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________________ सप्तमो लम्बः । तत्राम्रफलमाक्रष्टुं धनुषा कोऽपि नाशकत् । अशक्तैः कर्तुमारब्धं सुकरं किं न दुष्करम् ॥ ६३ ॥ अन्वयार्थः—(तत्र) उस बगीचेमें (कः अपि) उस देशके राज कुमारोंमेंसे कोई भी राजकुमार (धनुषा) धनुषसे (आम्रफलं) किसी भी आम्र फलको आक्रष्टुं। गिरानेके लिये (न अशकत) समर्थ नहीं हुआ। अत्र नीतिः । (हि) निश्चयसे (अशक्तैः) असमर्थ पुरुषोंसे (कर्तुं आरब्ध) करनेके लिये आरंभ किया हुआ (सुकरं) सरल काम भी किं दुष्करम् न) क्या दुःसाध्य नहीं होता है किन्तु दुःसाध्य होता ही है ॥ ६३ ॥ स्वामी तु तत्फलं विद्धमादत सशिलीमुखम् । तत्तन्मात्रकृतोत्साहैः माव्यते हि समीहितम् ॥६४॥ ___अन्वयार्थ:-(तु) परन्तु (स्वामी) जीवंधर स्वामीने (विद्धं. तत्फलं) बाणसे छेदित उस फलको (सशिलीमुखम् ) बाण सहित ( आदत्त ) ग्रहण कर लिया। अत्र नीतिः ! ( हि ) निश्चयसे (तत्तन्मात्र कृतोत्साहै:) प्रत्येक कार्यमें उत्साह व निपुणता युक्त पुरुष ही : समीहितम् ) इच्छित कार्यको ( साध्यते ) सफल कर लिया करते हैं ॥ ६४ ॥ अपराहपृषत्कोऽपि दृष्ट्वा व्यस्मेष्ट तत्कृतिम् । अपदानमशक्तानामद्भुताय हि जायते ॥ ६५ ॥ ___ अन्वयार्थः--(अपराद्धष्टषत्कोऽपि) लक्ष्यसे च्युत है बाण जिसका ऐसा कोई राजकुमार भी (तस्कृतिम् दृष्ट्वा) जीवंधर स्वामीकी बाण निपुणताको देखकर ( व्यस्मेष्ट ) अत्यंत आश्चर्य युक्त
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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