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________________ १९६ नवमो लम्बः । अरुद्धः कृपया ताभिरगाहिष्ट च तद्रहम् । सर्वथा दुग्धबीजाभाः कुतो जीवन्ति निर्घृणाः ॥ १८ ॥ अन्वयार्थः - ( ताभिः) उन स्त्रियोंसे (कृपया ) कृपा करके ( अरुद्ध:) नहीं रोका हुआ वह बूढ़ा (तद्गुहम् ) सुरमञ्जरीके घर में ( अगाहिष्ट ) चला गया । अत्र नीतिः ! (हि) निश्वयसे ( दग्धबीजाभाः ) जले हुए बीजकी तरह आभावाले (सर्वथा निर्घृणाः) सर्वथा दया रहित जीव (कुतः ) कैसे (जीवंति) जी सकते हैं ॥ १८ ॥ अभ्यधुः सुरमञ्जर्याः सुन्दर्यः सभया इदम् । सभयस्नेहसामर्थ्याः स्वाम्यधीना हि किंकराः ॥ १९ ॥ अन्वयार्थः -- फिर (सुन्दर्यः) द्वार रक्षक सुन्दरियोंने (समया) भय सहित (सुरमञ्जर्याः) सुरमञ्जरीसे ( इदं अम्यथुः ) यह सब बात कह दी । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे ( स्वाभ्यधीनाः) स्वामी के आधीन रहनेवाले (किंकराः) नौकर लोग ( समय स्नेहसामर्थ्या: 2 भय और स्नेही सामर्थ्य वाले होते हैं ॥ १९ ॥ पुरुषद्वेषिणी सापि वर्षीयांसं न्यशामयत् । भवितव्यानुकूलं हि सकलं कर्मदेहिनाम् ॥ २० ॥ अन्वयार्थः --- ( पुरुषद्वेषिणी सापि ) पुरुषों से द्वेष करनेवाली उस सुरमज्जरीने भी (वर्णीयांसं ) उस बूढ़ेको (न्यशामयत् ) देख कर बैठा लिया । अत्र नीति: ! (हि) निश्चयसे (देहिनाम् ) जीवोंके ( सकलं कर्म ) सम्पूर्ण काम (भवितव्यानुकूलं भवंति ) होनहारके अनुसार ही हुआ करते हैं ॥ २० ॥
SR No.022644
Book TitleKshatrachudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiddhamal Maittal
PublisherNiddhamal Maittal
Publication Year1921
Total Pages296
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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