Book Title: Jainagama Digdarshan
Author(s): Nagrajmuni, Mahendramuni
Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन डॉ० मुनि नगराज ឌា राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपूर Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भारती पुष्प ६. जैनागम दिग्दर्शन लेखक : डॉ. मुनि नगराज डी. लिट्. सम्पादक : उपाध्याय मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम' प्रकाशक : राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक देवेन्द्रराज मेहता सचिव, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर प्रथमावृत्ति १,१०० मूल्य : बीस रुपये (सजिल्द), सोलह रुपये (पेपर बेक), सन् १९८०, वि. सं. २०३७, वीर नि. सं. २५०६ प्राप्ति - स्थान : १. राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान यति श्यामलालजी का उपासरा, मोतीसिंह भोमियों का रास्ता, जयपुर - ३०२००३ (राजस्थान) २. अर्हत् प्रकाशन ३६६ - ३६८, तोदी कोर्नर, ३२, इजरा स्ट्रीट कलकत्ता -७०० ००१. मुद्रक : अजमेरा प्रिण्टिग वर्क्स घी वालों का रास्ता, जयपुर - ३०२००३ (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के छठे पूष्प के रूप में "जैनागम दिग्दर्शन" पुस्तक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हार्दिक प्रसन्नता है। ___जैन दर्शन और साहित्य के विशिष्ट विद्वान् डा. मुनिराज श्री नगराज जी महाराज से जनसाधारण को आगम-साहित्य की संक्षिप्त ज्ञान उपलब्ध कराने हेतु जैनागम दिग्दर्शन" पुस्तक लिखने के लिए प्राकृत भारती की तरफ से निवेदन किया गया था जिसे उन्होंने समयाभाव के उपरांत भी सहर्ष स्वीकार किया। प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं के प्रयास का फल है जिसके लिए संस्थान उनके प्रति बहुत ही आभारी है। इस पुस्तक का सम्पादन शतावधानी उपाध्याय श्री महेन्द्र मनि जी ने किया था, परन्तु पुस्तक-प्रकाशन के पूर्व ही उनका स्वर्गवास हो गया, अतः उनके प्रति संस्थान की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित है। ___ जैन दर्शन के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया, भूतपूर्व निदेशक, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद ने संस्थान के निवेदन पर इस पुस्तक पर प्रास्ताविक लिखना स्वीकार किया, इसके लिए संस्थान उनके प्रति भी आभारी है। पुस्तक के प्रकाशन में महोपाध्याय श्री विनयसागर संयुक्त सचिव ने जो अथक प्रयास किया तथा श्री पारस भंसाली जिन्होंने पुस्तक के मुख पृष्ठ के कला पक्ष को संवा के प्रति भी संस्थान कृतज्ञ है । देवेन्द्रराज मेहता दिनांक १५-५-८० सचिव, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर . Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन यह एक विश्रुत-धारणा है कि जब मुहम्मद गजनी ने सोमनाथ के मंदिर को तोड़ा, वहां की अगाध संरक्षित सामग्री नष्ट-भ्रष्ट की और अतुल धन राशि लूटकर अपने देश को लौटा उस समय जैन समाज भी चौंका व चिन्तित हुअा। दूरदर्शी प्राचार्यों व समस्त संघ के समक्ष प्रश्न था-आये दिन होने वाले ये हमले जैन संस्कृति व जैन साहित्य पर भी कभी दुदिन ला सकते हैं। इसी सन्दर्भ में जैन संघ का निर्णय रहा, संस्कृति की रक्षा का एकमात्र उपाय यही है कि जैन आगमों का व सम्बन्धित साहित्य का लिपिबद्ध-रूप ऐसे किसी स्थान पर सुरक्षित किया जाये, जहाँ विधर्मी हमलों की कम से कम सम्भावना व शक्यता हो । हम न रहें. हमारी संस्कृति न रहे, हमारी आगम-निधि बची रही तो समग्र जैन संस्कृति बची रह सकेगी, उसका पुनर्जागरण हो सकेगा। परिणामतः 'जैसलमेर का भण्डार' बना, जहां की निर्जल मरुस्थली में हमलावरों का पहँचना सहज शक्य नहीं था। प्रस्तुत घटना-प्रसंग पागमों की उपयोगिता व गरिमा पर पर्याप्त प्रकाश डाल देता है। आगम ग्रन्थ अध्यात्म व दर्शन से प्राप्लावित तो हैं ही, साथसाथ वे चिरन्तन युगों की सामाजिक, पार्थिक, राजनैतिक वस्तुस्थिति के बोध से भी भरे-परे हैं। गवेषक विद्वानों के लिए उनकी व्यापक एवं निरुपम उपयोगिता है । वे भारतीय इतिहास की अनेक दुर्भर रिक्तताओं को भरने में सक्षम प्रमाणित हुए हैं तथा हो रहे हैं। दिगम्बर-परम्परा आगम ज्ञान के विषय में दिगम्बर परम्परा की धारणा बहुत कुछ भिन्न है। दिगम्बर मान्यता के अनुसार प्राचार्य भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर, क्रमशः विशाख, प्रोष्ठिल आदि 11 प्राचार्य 10 पूर्वधर, नक्षत्र, जयपाल आदि 5 प्राचार्य एकादश अंगवर, सुभद्र, यशोभद्र आदि 4 प्राचार्य प्राचारांगधर हुए। तदनन्तर न तो पूर्व ज्ञान रहा, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न एकादश अंग ज्ञान रहा । यह समय वीर- निर्वाण 683 तक का होता है | श्रुत प्रवस्थिति के विषय में यह मौलिक मतभेद है । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य 'श्रागम' दिगम्बर परम्परा के आधारभूत शास्त्र नहीं बनते। उस परम्परा में जो प्राधारभूत शास्त्र हैं, उनका विवरण संक्षेप में यह है कि वीर- निर्वाण 683 के पश्चात् पूर्वज्ञान व अंग-ज्ञान की प्रांशिक रूप से धारणा करने वाले कुछ आचार्य हुए। उनमें से पुष्पदन्त और भूतबलि प्राचार्यों ने द्वितीय पूर्व प्रग्रायणी के प्रांशिक आधार पर 'षट्खण्डागम' की रचना की । आचार्य गुणधर न पांचवें पूर्व ज्ञानप्रवाद के प्रांशिक आधार पर 'कषाय 'पाहुड' की रचना की । प्राचार्य भूतबलि ने 'महाबंध ' का प्रणयन किया । आचार्य वीरसेन ने आगे चलकर इन ग्रन्थों पर धवला और जयधवला टीकाएं लिखीं । उक्त ग्रन्थ व टीकाएं दिगम्बर परम्परा में प्रागमवत् मान्य हैं। इनके अतिरिक्त प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार व नियमसार और आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के गोम्मटसार, लब्धिसार व द्रव्यसंग्रह आदि भी आगमवत् मान्य हैं । आगम ज्ञान के अस्तित्व - प्रश्न पर दोनों परम्पराम्रों में भले ही मौलिक मतभेद रहा है, पर दोनों परम्पराम्रों के प्रावारभूत ग्रन्थों से जो फलित प्रसूत हुआ है, वह जैन दर्शन व जैन संस्कृति को द्विरूप या विरूप करने वाला नहीं । जैन दर्शन के तात्विक व दार्शनिक रूप को प्रस्तुत करने वाला तत्वार्थ सूत्र ग्रन्थ व उसके रचयिता उमास्वाति ( दिगम्बर मान्यता में उमास्वामी ) दोनों परम्परात्रों में समान रूप से मान्य हैं। दोनों पक्षों के लिए यह एक योजक कड़ी है । अन्य भी आधारभूत मान्यताएं दोनों परम्पराओं की समान हैं । भेद-मूलक तो स्त्री - मुक्ति, केवली - आहार, अचेलकता, भगवान् महावीर का पाणिग्रहण, काल द्रव्य का रूप आदि कुछ ही मान्यताएं हैं । समग्र दर्शन को तोलने पर इनका वजन बहुत ही कम रह जाता है । निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है, दोनों शास्त्रीय धाराों का इतिवृत्त कुछ भी रहा हो, दोनों के प्रतिपादन साम्य ने किसी भी धारा को न्यून नहीं होने दिया है । (iii) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत पुस्तक में केवल श्वेताम्बर शास्त्रीय धारा का ही विश्लेषण किया गया है । श्रागम अपनी प्राचीनता व मौलिकता की दृष्टि से गवेषक विद्वानों की निरुपम थाती है । 'जैनागन दिग्दर्शन " पुस्तक उनके लिए कुरूंजी का कार्य करेगी, ऐसी आशा है । पुस्तक के प्रस्तुतीकरण में राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के सचिव देवेन्द्रराज मेहता का आवेदन ही एक मात्र निमित्त बना है। उनके कतिपय सुझाव भी इसमें क्रियान्वित किये गये हैं । सम्पादन उपाध्याय मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' ने किया है । उनकी पैनी निगाह में त्रुटियों के बच पाने की शक्यता बहुत कम ही रहती है । कार्य - व्यस्तता में भी उन्होंने इसका सम्पादन मनोयोग-पूर्वक किया है। २४ मार्च, १६७८ जैन उपाश्रय, बड़ा मंदिर, कलकत्ता ( iv ) मुनि नगराज Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक "जैनागम दिग्दर्शन" पुस्तक मैंने पढ़ी। जैनागम के विषय में परिचय देने वाले कई ग्रन्थ हैं किन्तु संक्षेप में आगमों के विषय में जानना हो तो यह ग्रन्थ उपयोगी सिद्ध होगा। लेखक डा. मुनि श्री नगराजजी ने इसमें श्वेताम्बर सम्प्रदाय मान्य 45 आगमों का परिचय उनकी टीकाओं के उल्लेख के साथ करा दिया है। प्रागम के विषय में सामान्य जिज्ञासा की पूर्ति यह ग्रन्थ अच्छी तरह से कर देगा, ऐसा मेरा विश्वास है । अतएव लेखक को धन्यवाद देना और वाचकों की ओर से आभार मानना मेरा कर्तव्य हो जाता है । लेखक ने जैनागमों की उत्पत्ति और संकलन की चर्चा सर्वप्रथम की है और तदनन्तर कौन शास्त्र सम्यक् और कौन मिथ्या इस ओर जो अनेकान्त - दृष्टि से वाचक का ध्यान आकर्षित किया है, वह ध्यान देने योग्य बात है। नन्दीसूत्र में यह विचारणा हुई है किन्तु इस ओर हमारा ध्यान विशेष जाता नहीं । अतएव इस विषय की चर्चा जो लेखक ने प्रारम्भ में की है उसके लिये पाठक उनका ऋणी रहेगा। प्रायः प्रागम का परिचय देने वाले इस बात को सम्यक् प्रकार से कहते नहीं। अतएव लेखक ने इस ओर पाठक का ध्यान दिलाया है वह उनकी उदार दृष्टि का परिणाम है। जैनागमों की रचना किसने और कब की ? यह एक समस्या है। और जब तक एक-एक पागम का विशिष्ट अध्ययन नहीं होगा तब तक यह समस्या बनी रहेगी। विदेशी विद्वानों ने इस समस्या का समाधान ढूढने का प्रयत्न किया है और उसमें सफल भी हुए हैं। उनके विचार में प्राचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), सूत्रकृतांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), उत्तराध्ययन और दशवैकालिक (शय्यंभवकृत) ये चार पागम सभी आगमों में प्राचीन हैं। सचमुच देखा जाय तो जैनों के ये चार वेद हैं । आगमों को वेद की संज्ञा भी दी गई है, वह इसलिए कि पार्यों में वेदों का सर्वाधिक महत्व था। अतएव ज्ञान-विज्ञान की Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामग्री का साधन यदि वैदिकों के लिए वेद हैं तो जैनों के लिए आगम वेदकोट में गिने जायें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इन चारों नागमों के बाद प्राचीनता की दृष्टि से छेदग्रन्थों को स्थान दिया गया है । वे छः हैं । इनमें से दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार और निशीथ इन चारों के कर्त्तारूप से चतुर्दशपूर्व विद् भद्रबाहु प्रथम माने गये हैं । छेद के बाद स्थान आता है आचारांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध ) और सूत्रकृतांग (द्वितीय श्रुतस्कन्ध) का । अंगों में जो कथाग्रन्थ हैं उनका स्थान इन्हीं के बाद का हो सकता है । किन्तु अंगों में प्रश्नव्याकरण अपने मौलिक रूप में विद्यमान न होकर नये रूप में ही हमारे समक्ष है । भगवती ग्रन्थ तो एक ही माना जाता है किन्तु उसमें कई प्राचीन नये स्तर देखे जा सकते हैं । उसमें प्रज्ञापना आदि उपांगों का साक्ष्य दिया गया है जो बताता है कि उपांगचर्चित विषयों को प्रामाण्य अर्पित करने के लिए ही उन विषयों की चर्चा भगवती में की गई है । सभी अंगों के विषय में परम्परा तो यह है कि उनकी रचना गणधरों ने की थी । किन्तु आज विद्यमान उन अंगों को देखकर यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी रचना एक काल में ही हुई होगी ? भगवान् ने जो उपदेश दिया उसे ही तत्काल गणधरों न इन अंगों में सूत्रबद्ध कर दिया होगा, यदि हम इस तथ्य की ओर ध्यान दें तो आगम-गत भूगोल - खगोल प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं। तो, सर्वज्ञ भगवान् ने ऐसी बात क्यों कही ? - इस समस्या का समाधान मिल जाता है कि ये बातें भगवान् के उपदेश की है ही नहीं। उनका उपदेश तो श्रात्मा के कर्मबन्ध और मोक्ष के कारणों के विषय में ही था । भूगोल- खगोल की चर्चा तो तत्तत्काल में आचार्यों ने भारत में जैसी जो विचारणा प्रचलित थी उनका प्रायः वैसे ही उल्लेख कर दिया है। इस चर्चा का सम्बन्ध भगवान् के मौलिक उपदेश के साथ नहीं है । यह तो एक धर्म, ( vi ) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब सम्प्रदाय का रूप ले लेता है तब सब विषयों की व्यवस्था अपनीअपनी दृष्टि से करनी अनिवार्य हो जाती है, इसी बात का संकेत है। आगमों में उपांग आदि अन्य जो ग्रन्थ हैं उन्हें तो परम्परा में भी स्थविर-कृत ही माना जाता है। अतएव ये सभी सर्वज्ञ प्रणीत हैं यह मानना जरूरी नहीं है। ऐसा मानने से ही प्रागमों में जहां भी परस्पर विरोध दिखाई देता है उनका भी समाधान आसान हो जाता है। एककर्तृक में विसंवाद प्रायः नहीं होता, किन्तु अनेक कर्तृक अनेक-कालिक ग्रन्थों में विसम्वाद सम्भव हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । अतएव आगमों का अभ्यास करके यह निर्णय करना जरूरी है कि कौनसी मौलिक बात भगवान् ने कही है और कौनसी बात बाद में प्राचार्यों ने जोडी है। प्रस्तुत ग्रन्थ में आगमों का परिचय-मात्र है और वह सामान्य जिज्ञासु के लिए ठीक ही है। किन्तु डा० मनि श्री नगराजजी से हमारी अपेक्षा तो यह है कि वे अपना सामर्थ्य इस ओर लगाकर यह बतावें कि पागम में कौन-कौन से ग्रन्थ का क्या-क्या काल हो सकता है और विचारों तथा मन्तव्यों का नवीनीकरण आगमों में किस प्रकार हुआ है ? अगली पुस्तक ऐसे विशिष्ट अध्ययन के साथ वे हमें दें ऐसी विनंती करना मैं अपना कर्त्तव्य समझता हूं। जब प्रागमपरिचय देना उन्होंने प्रारम्भ ही किया है तब उनके सामर्थ्य को देखकर हमारी ऐसी अपेक्षा हो, यह स्वाभाविक है। यह कार्य उनके लिए असम्भव नहीं है जबकि वे प्रागम और त्रिपिटक के निष्णातक रूप में हमारे आदर के पात्र हैं। पुस्तक की छपाई अच्छी है किन्तु प्राकृत उद्धरण कुछ अशुद्ध छपे हैं उन्हें दूसरे संस्करण में शुद्ध करके छापा जाना जरूरी है । इस ग्रन्थ में कुछ स्थल चिन्त्य हैं, जैसे-पु. 33 में नन्दीसूत्र को देवधि की रचना कहा है, किन्तु पृ. 151 में उसे देव वाचक की रचना मानी है। पृ० 49, सूत्रकृतांग का अन्य नाम सूत्राकृत न होकर सूचाकृत है। पृ० 19, पं० 14 में 'उपयोग' शब्द के स्थान पर वचोगतवाङ्मय होना चाहिए। प्रारम्भ में अंगों का जो परिचय दिया है वह अति (vii ) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त है जबकि अंग बाह्यों के परिचय में अधिक सामग्री दी गई है, इससे पुस्तक में परिचय की एक रूपता नहीं रही । लेखक का ध्यान इन बातों की ओर दिलाने से ग्रन्थ का मूल्य कम नहीं होता केवल दूसरे संस्करण में इस पर लेखक विचार कर सके इसके लिए ही यहाँ उनका ध्यान इस ओर आकृष्ट किया गया है । यथार्थ बात तो यह है कि लेखक ने इस पुस्तक को लिखकर सामान्य जिज्ञासु को प्रागमों के विषय में अच्छा परिचय दिया है और उसके लिए लेखक का वाचकवर्ग प्रभारी रहेगा ही । राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान ने अपने अस्तित्व के थोड़े से ही समय में विद्या- वितरण के क्षेत्र में अपना स्थान उचित रूप में जमाया है और उसे उत्तरोत्तर सफलता मिले यह शुभेच्छा है । राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान की प्रगति हो रही है उसमें उसके कर्मठ उत्साही सचिव श्री देवेन्द्रराज जी मेहता और उनके सहकारी महोपाध्याय पं० श्री विनयसागर जी का उत्साह मुख्य कारण है, विद्यारसिक विद्वद्वर्ग उनके प्रभारी रहेंगे । अहमदाबाद दिनांक 24-4-80 ( vili ) दलसुखभाई मालवणिया Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम 1-42 प्रागम विचार धर्मदेशना 1, अत्थागम : सुत्तागम 3, ग्यारह गणधर : नौ गण 4, श्रुत संकलन 5, श्रुत : कण्ठाग्र :अपरिवर्त्य 6, श्रुत का उद्भव 11, पुष्पमाला की तरह सूत्रमाला का ग्रथन 14, अर्थ को अनभिलाप्यता 16, मातृका पद 16, पूर्वात्मक ज्ञान और द्वादशांग 17, द्वादशांगी से पूर्व पूर्व-रचना 18, वृष्टिवाद में पूर्वो का समावेश 19, पूर्व - रचना : काल तारतम्य 19 पूर्व वाङमय की भाषा 20, पूर्वगत : एक परिचय 22, चूलिकाएं 24, चुलिकाओं की संख्या 25, वस्तु वाङ्मय 25, पूर्वविच्छेद काल 26. अनुयोग का अर्थ 26, आर्य रक्षित द्वारा विभाजन 28, प्रागमों की प्रथम वाचना 29, भद्रबाहु द्वारा पूर्वो की वाचना 31, प्रथम वाचना के अध्यक्ष एवं निर्देशक 32, द्वितीय वाचना - माथुरी वाचना 32, वाल भी वाचना 34, एक ही समय में दो वाचनाएँ ? 34, तृतीय वाचना 35, अग-प्रविष्ट तथा अंग-बाह्य 37, मलघारी हेमचन्द्र द्वारा व्याख्या 38, प्रा० मलयगिरि की व्याख्या 38, अंग-प्रविष्ट : अंग-बाह्य : सम्यक्ता 40, गृहीता का वैशिष्ट्य 41। पैंतालीस आगम 43-181 अग-संज्ञा क्यों ? 43 द्वादशांग -43 - 78 (1) आयारांग 43, द्वितीय श्रुतस्कन्ध : रचना : कले- . वर 44, दर्शन 45, व्याख्या-साहित्य 48. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) सूयगडंग, सूत्रकृतांग के नाम 49, सूत्रकृतांग का स्वरूप : कलेवर 49, विभिन्न वादों का उल्लेख 50, दर्शन और प्रचार 51, बौद्धभिक्षु 53 वेदवादी ब्राह्मण 54, आत्माद्वैतवादी 55, हस्ति तापस 55, व्याख्या साहित्य 56, (3) ठाणांग 56, दर्शन-पक्ष 57, व्याख्या - साहित्य 59, ( 4 ) समवायांग 60, वर्णन क्रम 61, (5) विवाह - पण्णत्ति 61, वर्णन - शैली 62, जैन धर्म का विश्वकोश 63, अन्य ग्रन्थों का सूचन 63, ऐतिहासिक सामग्री 63, दर्शन - पक्ष 64, ( 6 ) णायाघम्मकहाओ नाम की व्याख्या 65, आगम का स्वरूप : कलेवर 66, (7) उवासगदसानो नाम : अर्थ 67, आचारांग का पूरक 67, ( 8 ) अंतगडदसाओ नाम : व्याख्या 69, (9) अनुत्तरोववाइयदसाश्रो नाम : व्याख्या 70, वर्तमान रूप : अपरिपूर्ण, यथावत् 71, ( 10 ) पण्हवागरणाई नाम के प्रतिरूप 71, वर्तमान रूप 71, वर्तमान स्वरूप : समीक्षा 72, (11) faamga 73, ( 12 ) दिट्टिवाय, स्थानांग में दृष्टिवाद के पर्याय 75, दृष्टिवाद के भेद : उहापोह 76, भेद-प्रभेदों के रूप में विस्तार 76, अनुयोग का तात्पर्य 76, 78-110 उपांग 78, अंग : उपांग : प्रसादृश्य 78, वेदों के ( x ) द्वादश उपांग Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंग 79, वेदों के उपांग 79, उपवेदों की परि कल्पना 80, जैन श्रुतोपांग 80, (1) उववाइय, प्रौपपातिक का अर्थ 81, (2) रायपसेणीप 82, (3) जीवाजीवाभिगम 86, दर्शन-पक्ष 86, व्याख्या साहित्य 90, (4) पन्नवणा, नाम : अर्थ 91. रचना 91, रचना का आधार : एक कल्पना 92, म्लेच्छ 93, आर्य 93, व्याख्या-साहित्य 96, (5) सूरियपन्नत्ति 96, प्राभृत का अर्थ 96, व्याख्या साहित्य 97, (6) जम्बूद्दीवपन्नत्ति 97, वक्षस्कार का तात्पर्य 98, (7) चंदपन्नत्ति, स्थानांग में उल्लेख 98, रहस्यमय : एक समाधान 99, एक सम्भावना 100, संख्या . क्रम में भिन्नता 102, (8-12) पांच निरयावलियाँ 102. (8) निरयावलिया या कप्पिया 103, विषय वस्तु 103, (9) कप्पवडंसिया 105, (10) पुल्फिया 106, तापस वर्णन 106, (11) पुप्फचूला 108, (12) वण्हिदसा 109 । (xi ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह छेव सूत्र 110-126 छेद सूत्र 110, (1) निमीह, शब्द का अर्थ 111, रचना : रचनाकार 112, व्याख्या साहित्य 113, ( 2 ) महानिसीह 113, ऐतिहासिकता 114, ( 3 ) ववहार 114, कतिपय महत्त्वपूर्ण प्रसंग 116, रचयिता और व्याख्याकार 118, (4) दसासुयक्खंध 118, गणि सम्पदा रचनाकार : व्याख्या साहित्य 121, (5) कप्प 121, कलेवर : विषय वस्तु 121, कतिपय महत्त्वपूर्ण उल्लेख 122, रचना एव व्याख्या साहित्य 123, ( 6 ) पंचकप्प 125. 125, पत्त 125, रचना : व्याख्या साहित्य छह मूल सूत्र 126-168 126, मूल-सूत्र 126, मूल: नामकरण क्यों ? पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विमर्ष 127, प्रो. शर्पेण्टियर का मत 127, डॉ. वाल्टर शुनिंग का अभिमत 127, प्रो. गेरीनो की कल्पना 128, समीक्षा 128, 118, (1) उत्तरज्झयण, नामः विश्लेषण 129, विमर्ष 131, नियुक्तिकार का अभिमत 133. भद्रबाहुना प्रोक्तानि का अभिप्राय 134, विमर्ष : समीक्षा 134, विषय-वस्तु 135, हृष्टान्त कथानक 136, व्याख्या - साहित्य 137, सार्थकता 137, व्याख्या (2) श्रावस्सय, नाम साहित्य 139, ( xii ) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) (3) दसवेयालिय, नामः अन्वर्थकता 139, संकलन : प्राधार · पूर्वश्रुत 140, दूसरा प्राधार : अन्य आगम 140, चूलिकाएँ - रतिवाक्या 142, विविक्तचर्या 143, विशेषता : महत्त्व 144, व्य ख्या-साहित्य 144, प्रथम प्रकाशन 144 पिण्डनिज्जत्ति, नाम : व्याख्या 145, कुछ महत्त्वपूर्ण उल्लेख 146, -अोहनिज्जुत्ति, नाम : व्याख्या 147, एक महत्त्वपूर्ण प्रसंग 147, उपधि-निरूपण 148, जिनकल्पी व स्थविरकल्पी के उपकरण 148, साध्वी या प्रायिका के उपकरण 149, व्याख्या साहित्य 150, -पक्खिय सुत्त 150, खामणा-सुत्त 150, वंदित्तुसुत्त 151, - इसिभासिय 151, (5) नन्दी सूत्र, रचयिता 151, स्वरूप : विषय-वस्तु 151, दर्शन-पक्ष 152, ज्ञानबाद 153, अवधिज्ञान 153, मनः पर्ययज्ञान 156, केवल ज्ञान 157, प्राभिनिबोधिक ज्ञान 158, श्रुतज्ञान 162, (6) अनुयोगद्वार 164, महत्त्वपूर्ण सूचनाएं 165, .. __ अनुमान 166, उपमान 167, प्रागम 168 । दस पइण्णग - 168-181 प्रकीर्णकों की परम्परा 168, प्राप्त प्रकीर्णक 170, (1) चउसरण 170, (2) पाउर-पच्चक्खाण, नामः प्राशयः विषय 171, (3) महापच्चक्खाण, नामः अभिप्राय 172, विषय वस्तु 172, ( xiii ) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) भत्त-परिण्णा, नामः प्राशय 172, कतिपय महत्त्व पूर्ण प्रसंग 173, (5) तंदुल-वेयालिय, नाम : अर्थ 174, नारी का हीन रेखाचित्र 174, कुछ विचित्र व्युत्पत्तियां 175, (6) संथारग 176, (7) गच्छायार 177, व्याख्या-साहित्य 178 (8) गणिविज्जा 179, (9) देविंद-थय 179, (10) मरण-समाही 179, कलेवर : विषय-वस्तु 180, उपसंहार 181। भागमों पर व्याख्या - साहित्य 182-193 प्रयोजन 182, व्याख्यानों की विधाएँ 183, निज्जुत्ति 184, ऐतिहासिकता 184, नियुक्तियाँ : रचनाकार 185, भास 185, रचना : रचयिता 186, चुण्णिउद्भव : लक्षण 186, चूर्णियों की भाषा 187, प्राकृत की प्रधानता 188, चूर्णियाँ : रचनाकार 188, महत्त्वपूर्ण चूर्णियाँ 189, टीकाएँ - अभिप्रेत 190, टीकाएँ पुरावर्ती परम्परा 191, हिमवत् थेरावली में उल्लेख 191, प्रमुख टीकाकार-प्राचार्य हरिभद्रसूरि 191, शीलाङकाचार्य 192, शान्त्याचार्य एवं नेमिचन्द्राचार्य 192, प्राचार्य अभयदेव प्रभृति उत्तरवर्ती टीकाकार 193, विशेषता : महत्त्व 193 । (xiv) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विचार धर्म-देशना तीर्थंकर अर्द्धमागधी भाषा में धर्म-देशना देते हैं। उनका अपना वैशिष्ट्य होता है, विविध भाषा-भाषी श्रोतृगण अपनी-अपनी भाषा में उसे समझ लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे भाषात्मक पुद्गल श्रोताओं की अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाते हैं। जैनवाङमय में अनेक स्थलों पर ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं। समवायांग सूत्र में जहाँ तीर्थंकर के चौतीस अतिशयों का वर्णन है, वहाँ उनके भाषातिशय के सम्बन्ध में कहा गया है : "तीर्थंकर अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का पाख्यान करते हैं। उनके द्वारा भाष्यमाण अर्द्धमागधी भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी तथा सरीसृप प्रभृति जीवों के हित, कल्याण और सुख के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है।"१ प्रज्ञापना सूत्र में आर्य की बहुमुखी व्याख्या के सन्दर्भ में सूत्रकार ने अनेक प्रकार के भाषा-आर्य का वर्णन करते हुए कहा है : "भाषा-आर्य अर्द्धमागधी भाषा बोलते हैं और ब्राह्मी-लिपि का प्रयोग करते हैं।" १. भगवं च ण प्रहमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ । सावि य रणं अहमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसि मारियमणारियाणं दुप्पय-च उप्पयमिय-पसु-सरीसिवाणं अप्पप्पणो हिय-सिव-सुहदाय भासत्ताए परिणमइ । - समवायांग सूत्र ; ३४ २. किं तं भासारिया ? भासारिया प्रणेगविहा पण्णत्ता । तं जहा-जेणं प्रद्धमागहीए भासाए भासइ जत्थ वियरणं बंभी लिवी पवत्तई । -प्रज्ञापना; पद १, ३६ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन औपपातिक सूत्र का प्रसंग है : "तब भगवान् महावीर अनेकविध परिषद्-परिवृत (श्रेणिक) बिम्बिसार के पुत्र कूणिक (अजातशत्रु) के समक्ष शरद् ऋतु के नव स्तनित-नूतन मेघ के गर्जन के समान मधुर तथा गम्भीर, क्रौंच पक्षी के घोष के समान मुखर, दुन्दुभि की ध्वनि की तरह हृद्य वाणी से, जो हृदय में विस्तार पाती हुई, कण्ठ में वर्तुलित होती हुई तथा मस्तक में प्राकीर्ण होती हुई व्यक्त, पृथक्-पृथक् स्पष्ट अक्षरों में उच्चारित, मम्मणा - अव्यक्त वचनता-रहित, सर्वाक्षर-समन्वययुक्त, पुण्यानुरक्त, सर्वभाषानुगामिनी, योजनपर्यन्त श्रयमाण अर्द्ध मागधी भाषा में बोलते हैं, धर्म का परिकथन करते हैं। वह अर्द्ध मागधी भाषा उन आर्यों, अनार्यों की अपनी-अपनी भाषाओं में परिणत हो जाती है।" प्राचार्य हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन के मंगलाचरण में जैनी वाक् अर्द्ध मागधी भाषा के रूप में व्याख्या करते हुए 'सर्व भाषापरिणताम्' पद से प्रशस्तता प्रकट की है। अलंकारतिलक के रचयिता वाग्भट ने भी उसी प्रकार सर्वज्ञाश्रित अर्द्ध मागधी भाषा की स्तवना करते हुए भाव व्यक्त किये हैं : "हम उस अर्द्ध मागधी भाषा का प्रादरपूर्वक ध्यान, स्तवन करते हैं, जो सब की है, सर्वज्ञों द्वारा व्यवहृत है, समग्र भाषाओं में परिणत होने वाली है, सार्वजनीन है, सब भाषाओं का स्रोत है।"२ __ भाषा-प्रयोग को अनेक विधाएं होती हैं। जहाँ श्रद्धा, प्रशस्ति १. समणे भगवं महावीरे कोरिणयस्स रण्णो भंभासार पुत्तस्स मारदनवत्थ रिणय-महुरगभीर कोचणिग्योसदुंदुभिस्सरे उवेवीत्थडाए कंठे वट्ठियाए सिरे समाइगाए अगिलाए अमम्मरणाए सवक्खरसणिवाईयाए पुणरत्ताए सव्वभासारणुगामणिए सरस्सईए जोयरमणहारिणासरेणं अद्धमागहाए भासाए भासंति अरिहा धम्म परिकहेंति तेसिं सव्वेसिं पारियमणारियाण प्रगिलाए धम्म-माइक्खंति सा वि य णं अद्धमागहा भासा तेसि सव्वेसि प्रारियमणारियाणं प्रप्पणो सभासाए परिणमंति । - प्रोपपातिक सूत्र ; पृ. ११७, ११८ २. सर्वार्धमागधीं सर्वभाषासु परिणामिनीम् । सार्वीयां सर्वतो वाचं सार्वज्ञी प्ररिणदध्महे ॥ - अलंकार - तिलक १, १ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम विचार तथा समादर का भाव अधिक होता है, वहाँ भाषा अर्थवाद-प्रधान हो जाती है। इसे दूषणीय नहीं कहा जाता। परन्तु, जहाँ भाषा का प्रयोग जिस विधा में है, उसे यथावत् रूप में समझ लिया जाये तो कठिनाई नहीं होती। इसी दृष्टिकोण से ये प्रसंग ज्ञेय और व्याख्येय हैं। भगवान् श्री महावीर इस युग के अन्तिम तीर्थंकर थे। इस समय उपलब्ध अर्द्ध मागधी आगम-वाङमय उन्हीं की देशना पर आधारित है। प्रत्थागम : सुत्तागम आगम दो प्रकार के हैं.-१. अत्थागम (अर्थागम) और २. सुत्तागम (सूत्रागम)। तीर्थंकर प्रकीर्ण रूप में जो उपदेश करते हैं, वह अर्थागम है। अर्थात् विभिन्न अर्थों-विषय-वस्तुओं पर जब-जब प्रसंग आते हैं, तीर्थंकर प्ररूपणा करते रहते हैं। उनके प्रमुख शिष्य अर्थात्मक दृष्ट्या किये गये उपदेशों का सूत्ररूप में संकलन या संग्रथन करते रहते हैं। प्राचार्य भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्ति में इसी प्राशय को अग्रांकित शब्दावली में कहा गया है : “अर्हत् अर्थ का भाषण या व्याख्यान करते हैं। धर्म-शासन के हित के लिए गणधर उनके द्वारा व्याख्यात अर्थ का सूत्र रूप में ग्रथन करते हैं। इस प्रकार सूत्र प्रवृत्त होता है।" १. इन्द्रभूति, २. अग्निभूति, ३. वायुभूति, ४. व्यक्त, ५. सुधर्मा. ६. मण्डित, ७. मौर्यपुत्र ८. अकम्पित, ६. अचलभ्राता, १०. मेतार्य, ११. प्रभास; भगवान् महावीर के ये ग्यारह गणघर थे। उनका श्रमण-संघ नौ गणों में विभक्त था, जिनके नाम इस प्रकार हैं : १. गोदास गण, २. उत्तरबलियस्सय गण, ३. उद्देह गण, ४. चारण गण, ५. ऊर्ध्ववार्तिक गण, ६. विश्ववादी गण, ७. कामधिक गण, ८. माणव गण तथा ६. कोटिक गण ।' १. समणस्स भगवो महावीरस्स नव गणा होत्था। तं जहा—गोदास गणे, उत्तरबलियस्सयगणे, उद्देहगण, चारणगणे,उड्ढ़वाइयगणे, विस्सवाइगणे, कामिड्ढियगणे, मारवगणे, कोडियगणे। - स्थानांग; ६, २६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन गणधर आगम-वाङमय का प्रसिद्ध शब्द है । आगमों में मुख्यतया यह दो अर्थों में व्यवहृत हुआ है। तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य गणधर कहे जाते हैं, जो तीर्थंकरों द्वारा अर्थागम के रूप में उपदिष्टज्ञान का द्वादश अंगों के रूप में संकलन करते हैं। प्रत्येक गणधर के नियन्त्रण में एक गण होता है, जिसके संयम जीवितव्य के निर्वाह का गणधर पूरा ध्यान रखते हैं। गणधर का उससे भी अधिक आवश्यक कार्य है, अपने अधीनस्थ गण को आगम-वाचना देना। तीर्थंकर अर्थ में जो आगमोपदेश करते हैं, उन्हें गणधर शब्दबद्ध करते हैं । अर्थ की दृष्टि से समस्त प्रागम-वाङमय एक होता है, परन्तु, भिन्न-भिन्न गणधरों के द्वारा संग्रथित होने के कारण वह शाब्दिक दृष्टि से सर्वथा एक हो, ऐसा नहीं होता। शाब्दिक अन्तर स्वाभाविक है । अतः भिन्न-भिन्न गणधरों की वाचनाएँ शाब्दिक दृष्टि से सदृश नहीं होतीं । तत्वतः उनमें ऐक्य होता है। ग्यारह गणधर : नौ गण __ भगवान् महावीर के संघ में गणों और गणधरों की संख्या में दो का अन्तर था। उसका कारण यह है कि पहले से सातवें तक के गणधर एक-एक गण की व्यवस्था देखते थे, पृथक्-पृथक् आगमवाचना देते थे, परन्तु, आगे चार गणधरों में दो-दो का एक-एक गण था। इसका तात्पर्य यह है कि पाठवें और नौवें गण में श्रमण-संख्या कम थी; इसलिए दो-दो गणधरों पर सम्मिलित रूप से एक-एक गण का दायित्व था। तदनुसार अकम्पित और अचलभ्राता के पास आठवें गण का उत्तरदायित्व था तथा मेतार्य और प्रभास के पास नौवें गण का। कल्पसूत्र में कहा गया है : "भगवान् महावीर के सभी ग्यारहों गणधर द्वादशांग-वेत्ता, चतुर्दश-पूर्वी तथा समस्त गणि-पिटक के धारक थे। राजगृह नगर में मासिक अनशन पूर्वक वे कालगत हुए, सर्वदुःख-प्रहीण बने अर्थात् मुक्त हुए । स्थविर इन्द्रभूति (गौतम) तथा स्थविर आर्य सुधर्मा; ये दोनों ही भगवान् महावीर के सिद्धिगत Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम विचार होने के पश्चात् मुक्त हुए।"' ज्यों-ज्यों गणधर सिद्धि-प्राप्त होते गये, उनके गण सुधर्मा के गण में अन्तर्भावित होते गये। श्रु त-संकलन तीर्थंकर सर्वज्ञत्व प्राप्त करने के अनन्तर उपदेश करते हैं। तब उनका ज्ञान सर्वथा स्वाश्रित या आत्म-साक्षात्कृत होता है, जिसे दर्शन की भाषा में पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया है। सर्वज्ञ होने के बाद भगवान् महावीर ने समस्त जगत के समग्र प्राणियों के कल्याण तथा श्रेयस् के लिए धर्म-देशना दी। उनकी धर्म-देशनाओं के सन्दर्भ में बड़ा सुन्दर क्रम मिलता है। उनके निकटतम सुविनीत अन्तेवासी गौतम, यद्यपि स्वयं भी बहुत बड़े ज्ञानी थे, परन्तु, लोक-कल्याण की भावना से भगवान् महावीर से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते थे। भगवान् उनका उत्तर देते थे। श्रत का वह प्रवहमान स्रोत एक विपुल ज्ञान-राशि के रूप में परिणत हो गया। भगवान् महावीर द्वारा अर्द्धमागधी में उपदिष्ट अर्थागम का आर्य सुधर्मा ने सूत्रागम के रूप में जो संग्रथन किया, अंशतः ही सही द्वादशांगी के रूप में वही प्राप्त है। श्रुत-परम्परा के (महावीर के उत्तरवर्ती) स्रोत का आर्य सुधर्मा से जुड़ने का हेतु यह है कि वे ही भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी हुए; इसलिये आगे की सारी परम्परा आर्य सुधर्मा की (धर्म -) अपत्य-परम्परा या (धर्म -) वंशपरम्परा कही जाती है। कल्पसूत्र में लिखा है : “जो आज श्रमणनिर्ग्रन्थ विद्यमान हैं, वे सभी अनगार आर्य सुधर्मा की अपत्यपरम्परा के हैं, क्योंकि और सभी गणधर निरपत्य रूप में निर्वाण को प्राप्त हुए।"3 १. सव्वे एए समणस्स भगव प्रो महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवाल__ संगिणो चोद्दसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तणं प्रपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा । थेरे इदभूइ थेरे अज्ज सुहम्मे सिद्धि गए महावीरे पच्छा दोन्नि वि परिनिव्वुया॥२०३ ॥ २. बारहवां अंग दृष्टिवाद प्रभी लुप्त है। ३. जे इमे प्रज्जताते समणा निग्गंथा विहरंति ए ए णं सव्वे अज्ज सुहम्मस्स प्रणगारस्स पाहावच्चिज्जा, प्रवसेसा गणहरा निरवच्चा वोच्छिन्ना। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन श्रुतः कण्ठानः अपरिवर्त्य वेदों को श्रुति कहे जाने का कारण सम्भवतः यही है कि उन्हें सुनकर, गुरु-मुख से प्रायत्त कर स्मरण रखने की परम्परा रही है । जैन आगम-वाङ्मय को भी श्रु त कहा जाता है। उसका भी यही अभिप्राय प्रतीत होता है कि उसे सुनकर, प्राचार्य या उपाध्याय से अधिगत कर याद रखे जाने का प्रचलन था। सन कर जो स्मरण रखा जाए, उसमें सुनी हुई शब्दावली की यथावत्ता स्थिर रह सके, यह कठिन प्रतीत होता है। पुरा-कालीन मनीषियों के ध्यान से यह तथ्य बाहर नहीं था; अतः वे प्रारम्भ से ही इस ओर यथेष्ट जागरूकता और सावधानी बरतते रहे। वैदिक विद्वानों ने संहिता-पाठ, पद-पाठ, क्रम-पाठ, जटा-पाठ तथा धन-पाठ के रूप में वेद-मन्त्रों के पठन या उच्चारण का एक वैज्ञानिक अभ्यास-क्रम निर्धारित किया था। इस वैज्ञानिक पाठ-क्रम के कारण ही वेदों का शाब्दिक कलेवर आज भी अक्षुण्ण विद्यमान है। जैन आगमज्ञों ने इसे भलोभाँति अनुभव किया। उन्होंने भी आगमों के पाठ या उच्चारण के सम्बन्ध में कुछ ऐसी मर्यादाएँ, नियमन या परम्पराएँ बाँधीं, जिनसे पाठ का शुद्ध स्वरूप अपरिवर्त्य रह सके। अनुयोग द्वार सूत्र में आगमतः द्रव्यावश्यक के प्रसंग में सूचित किया गया है कि आगम-पाठ की क्या-क्या विशेषताएँ हैं ? वे इस प्रकार हैं : १. शिक्षित - साधारणतया पाठ सीख लेना, उसका सामान्यतः उच्चारण जान लेना । २. स्थित - अधोत पाठ को मस्तिष्क में स्थिर करना। ३. जित - क्रमानुरूप आगम-वाणी का पठन करना। यह तभी १. प्रागमो दवावस्सयं - जस्स णं प्रावस्सएति पदं -सिक्खतं, टितं, जितं, मित, परिजितं, नामसमं, घोससम, अहीणक्खरं, प्रणवक्खरं, अव्वाइद्धक्खरं, अक्खलियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं, पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं, कंट्ठोट्ठविप्पमुक्कं गुरुवायरणोवगयं । - अनुयोगद्वार सूत्र; ११ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम विचार ४. मित सधता है, जब पाठ निज-वरांगत- अधिकृत या स्वायत्त हो जाता है । मित का अर्थ मान, परिमाण या माप होता है । पाठ के साथ मित विशेषण का प्राशय पाठगत अक्षर आदि की मर्यादा, नियम, संयोजन प्रादि है | ५. परिजित - अनुक्रमतया पाठ करना सरल है । यदि उसी पाठ का व्यतिक्रम या व्युत्क्रम से उच्चारण किया जाये, तो बड़ी कठिनता होती है । यह तभी सम्भव होता है, जब पाठ परिजित अर्थात् बहुत अच्छी तरह अधिकृत हो । अध्येता को व्यतिक्रम या व्युत्क्रम से पाठ करने का भी अभ्यास हो । ७ ६. नामसम - हर किसी को अपना नाम प्रतिक्षण, किसी भी प्रकार की स्थिति में सम्यक् स्मरण रहता है । वह प्रत्येक व्यक्ति को आत्मसात् हो जाता है । अपने नाम की तरह आगम-पाठ का आत्मसात् हो जाना । ऐसा होने पर अध्येता किसी भी समय पाठ का यथावत् सहज रूप में उच्चारण कर सकता है । ७. घोषसम - घोष का अर्थ ध्वनि है । पाठ शुद्ध घोष या ध्वनिपूर्वक उच्चरित किया जाना चाहिए । व्याख्याकारों ने घोष का प्राशय उदात्त', अनुदात्त तथा स्वरित अभिहित किया है । जहाँ जिस प्रकार का स्वर उच्चरित होना अपेक्षित हो, वहाँ वैसा ही उच्चरित होना । वेद-मन्त्रों के उच्चारण में बहुत सावधानी रखी जाती थी । घोषसम के अभिप्राय में इतना और १. उच्चैरुदात्तः । २. नीचैरनुदात्तः । ३. समवृत्त्या स्वरितः । ४. मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, सा वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी १, २, २९-३१, मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह । यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोपराधात् ॥ पाणिनीय शिक्षा; ५२ - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन जोड़ा जाना भी संगत प्रतीत होता है कि जिन वर्णों के जो-जो उच्चारण स्थान हों, उनका उन-उन स्थानों से यथावत् उच्चारण किया जाए। व्याकरण में उच्चारण-सम्बन्धी जिस उपक्रम को प्रयत्न कहा जाता है, घोषसम में उसका भी समावेश होता है। ८. अहीनाक्षर-उच्चार्यमाण पाठ में किसी भी वर्ण को हीन अर्थात् गायब या अस्पष्ट न करना। पाठ स्पष्ट होना चाहिए। ६. अन्त्यक्षर-उच्चार्यमाण पाठ में जितने अक्षर हों, ठीक वे ही उच्चरित, हों, कोई अतिरिक्त या अधिक न मिल जाए। १. वर्गों के उच्चारण में कुछ चेष्टा करनी पड़ती है, उसे 'यत्न' कहते हैं । यह दो प्रकार का होता है। जो यत्न वर्ण के मुख से बाहर आने से पूर्व अन्तराल में होता है, उसको प्राभ्यन्तर कहते हैं। बिना इसके बाह्य यत्न निष्फल है। यही इसकी प्रकृष्टता है; अतएव इसे 'प्रयत्न' कहा जाता है। 'प्रकृष्टो यत्नः प्रयत्नः' यह अर्थ संगत भी इसीलिये है। इसका अनुभव उच्चारण करने वाला ही कर सकता है ; क्योंकि उसी के मुख के अन्तराल में यह होता है। दूसरा यत्न मुख से वणं निकलते समय होता है; अतएव यह बाह्य कहा जाता है। इसका अनुभव सुनने वाला भी कर सकता है। ___ यत्नो द्विधा-प्राभ्यन्तरो बाह्यश्च । प्राद्यः पंचधा-स्पृष्ट-ईषत्स्पृष्टईषद्विवृत-विवृत - संवृतभेदात् । तत्र स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम् । ईषत्स्पृष्ट - मन्तःस्थानाम् । ईषद्विवृतमूष्मणाम् । विवृतं स्वराणाम् । ह्रस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम्, प्रक्रियादशायां तु विवृतमेव । बाह्यस्त्वेकादशधा-विवारः संवारः श्वासो नादोऽघोषो घोषोल्पप्रारणो महाप्राण उदात्तोनुदात्तः स्वरितश्चेति । स्वरो विवारा: श्वासा प्रघोषाश्च । हशः संवारा नादा घोषाश्च । वर्गाणां प्रथमतृतीयपंचमा मणश्चाल्पप्राणाः । वर्गाणां द्वितीयचतुर्थो शलश्च महाप्राणाः । - लघु सिद्धान्त कौमुदी; संज्ञाप्रकरणम्, पृ० १८-२०. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम विचार १०. अव्याविद्धाक्षर-अ+वि+या+विद्ध के योग से अव्याविद्ध शब्द बना है। विद्ध का अर्थ बिंधा हुआ है और उसके पहले पा उपसर्ग लग जाने से उसका अर्थ सब ओर से या भलीभाँति बिंधा हुअा हो जाता है । 'या' मे पूर्व लगा 'वि' उपसर्ग बिंध जाने के अर्थ में और विशेषता ला देता है। अक्षर के व्याविद्ध होने का अर्थ है, उसका अपहत होना, पीड़ित होना। अपहनन या पीड़न का प्राशय अक्षरों के विपरीत या उल्टे पठन से है । वैसा नहीं होना चाहिए। ११. अस्खलित-पाठ का यथाप्रवाह उच्चारण होना चाहिए। प्रवाह में एक लय (Rhythm) होती है, जिससे पाठ द्वारा व्यज्यमान आशय सुष्ठुतया अवस्थित रहता है; अतएव पाठ में स्खलन नहीं होना चाहिए। अस्खलित रूप में किये जाने वाले पाठ की अर्थ-ज्ञापकता वैशद्य लिये रहती है। १२. अमिलित-अजागरूकता या असावधानी से किये जाने वाले पाठ में यह आशंकित रहता है कि दूसरे अक्षर कदाचित् पाठ के अक्षरों के साथ मिल जायें। वैसा होने से पाठोच्चारण की शुद्धता व्याहत हो जाती है। वैसा नहीं होना चाहिये। १३. अव्यत्यानेडित-अ+वि+अति+पाम्रडित के योग से यह शब्द बना है। आम्रडित का अर्थ शब्द या ध्वनि की आवृत्ति' है। पाइअ सद्दमहण्णवो में 'वच्चामेलिय' और 'विच्चामेलिय' दोनों रूप दिये हैं। दोनों का एक ही अर्थ है। वहाँ 'भिन्न-भिन्न अंशों से मिश्रित, अस्थान में ही छिन्न होकर चिर ग्रथित तथा तोड़ १. संस्कृत -(क) हिन्दी कोष ; प्राप्टे, पृ० ११५ (ख) Reduplication : Sanskrit-English Dictionary - Sir Monier M. Williams; p 147. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैनागम दिग्दर्शन कर सांधा हुआ' अर्थ' किया गया है। सूत्र - व्याख्याताओं ने इसका अर्थ अन्य सूत्रों अथवा शास्त्रों के मिलते-जुलते या समानार्थक पाठ को चालू या क्रियमाण - उच्चार्यमाण पाठ से मिला देना किया है, जो कोशकारों द्वारा की गयी व्याख्या से मिलता हुआ है । शास्त्र-पाठ या सूत्रोच्चारण में प्राम्र डन, अत्यधिक आम्र ेडन—व्यत्यास्र डन नहीं होना चाहिए । १४. प्रतिपूर्ण - शीघ्रता या अतिशीघ्रता से ग्रस्त-व्यस्तता आती है, जिससे उच्चारणीय पाठ का अंश छूट भी सकता है । पाठ का परिपूर्ण रूप से – समग्रतया, उसके बिना किसी अंश को छोड़े उच्चारण किया जाना चाहिए । १५. प्रति पूर्णघोष - पाठोच्चारण में जहाँ लय के अनुरूप बोलना आवश्यक है, वहाँ ध्वनि का परिपूर्ण या स्पष्ट उच्चारण भी उतना ही अपेक्षित है । उच्चार्यमाण पाठ का उच्चारण इतने मन्द स्वर से न हो कि उसके सुनाई देने में भी कठिनाई हो । प्रतिपूर्ण घोष समीचोन, संगत, वांछित स्वर से उच्चारण करने का सूचक है । जैसे, मन्द स्वर से उच्चारण करना वर्ज्य है, उसी प्रकार अति तीव्र स्वर से उच्चारण करना भी दूषणीय है । १६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त कण्ठ + प्रोष्ठ + विप्र + मुक्त के योग से यह शब्द निष्पन्न हुआ है । मुक्त का अर्थ छूटा हुआ है । जहाँ उच्चारण में कम सावधानी बरती जाती है, वहाँ उच्चार्यमाण वर्ण कुछ कण्ठ में, कुछ होठों में बहुधा अटक जाते हैं । जैसा अपेक्षित हो, वैसा स्पष्ट और सुबोध्य उच्चारण नहीं हो पाता । पाठोच्चारण के सम्बन्ध में जो सूचन किया गया है, वह एक ओर उच्चारण के परिष्कृत रूप और प्रवाह की यथावत्ता बनाये रखने के यत्न का द्योतक है, वहाँ दूसरी ओर उच्चारण, पठन, अभ्यास १. पाइप्रस महण्णवो ; पृ० ७७६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम विचार पूर्वक अधिगत या स्वायत्त किये गये शास्त्रों को यथावत् स्मृति में टिकाये रखने का भी सूचक है। इन सूचनाओं में अनुक्रम, व्यतिक्रम तथा व्युत्क्रम से पाठ करना, पाठ में किसी वर्ण को लुप्त न करना, अधिक या अतिरिक्त अक्षर न जोड़ना, पाठगत अक्षरों को परस्पर न मिलाना या किन्हीं अन्य अक्षरों को पाठ के अक्षरों के साथ न मिलाना आदि के रूप में जो तथ्य उपस्थित किये गये हैं, वे वस्तुतः बहुत महत्वपूर्ण हैं । इसके लिये सम्भवतः यही भावना रही हुई प्रतीत होती है कि श्रमण-परम्परा से उत्तरोत्तर गतिशील द्वादशांगमय मागम-वाङमय का स्रोत कभी परिवर्तित, विचलित तथा विकृत न होने पाये। श्रु त का उद्भव सर्वज्ञ ज्ञान की प्ररूपणा या अभिव्यंजना क्यों करते हैं, वह आगम रूप में किस प्रकार परिणत होता है, इसका विशेषावश्यक भाष्य में बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। वहां कहा गया है : "तप, नियम तथा ज्ञान रूपी वृक्ष पर आरूढ अमित-अनन्त ज्ञान-सम्पन्न केवली-ज्ञानी भव्यजनों को उद्बोधित करने के हेतु ज्ञान-पुष्पों की वृष्टि करते हैं। गणधर उसे बुद्धिरूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त ग्रथन करते हैं।'' वृक्ष के दृष्टान्त का विशदीकरण करते हुये भाष्यकार लिखते हैं : "जैसे, विपुल वन-खण्ड के मध्य एक रम्य, उन्नत तथा प्रलम्ब शाखान्वित कल्पवृक्ष है । एक साहसिक व्यक्ति उस पर आरूढ़ हो जाता है। वह वहां अनेक प्रकार के सुरभित पुष्पों को ग्रहण कर लेता है। भूमि पर ऐसे पुरुष हैं, जो पूष्प लेने के इच्छुक हैं और तदर्थ उन्होंने अपने वस्त्र फैला रखे हैं। वह व्यक्ति उन फूलों को फैलाये हुए वस्त्रों पर प्रक्षिप्त कर देता है। वे पुरुष अन्य लोगों पर अनुकम्पा १. तव-नियम-नाणरुक्खं प्रारूढ़ो केवली प्रमियनाणी। तो मुयइ नाणवुठिं भवियजणविबोहणछाए ॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउ निरवसेसं । तित्थयरभासियाई गंथंति तो पवयणट्ठा ।। -- विशेषावश्यक भाष्य : १०६४-६५ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनागम दिग्दर्शन करने के निमित्त उन फूलों को गूथते हैं। इसी तरह यह जगत् एक वनखण्ड है। वहां तप, नियम और ज्ञानमय कल्प वृक्ष है। चौतीस अतिशय-युक्त सर्वज्ञ उस पर आरूढ हैं। वे केवली परिपूर्ण ज्ञान-रूपी पुष्पों को छद्मस्थता रूप भूमि पर अवस्थित ज्ञान रूपी पुष्प के अर्थीइच्छुक गणधरों के निर्मल बुद्धिरूपी पट पर प्रक्षिप्त करते हैं।" भाष्यकार ने स्वयं ही प्रश्न उपस्थित करते हुए इसका और विश्लेषण किया है, जो पठनीय है : "सर्वज्ञ भगवान कृतार्थ हैं। कुछ करना उनके लिए शेष नहीं है। फिर वे धर्म-प्ररूपणा क्यों करते हैं ? सर्वज्ञ सर्व उपाय और विधि-वेत्ता हैं। वे भव्यजनों को उपदेश देने के लिये ही ऐसा करते हैं, अभव्यों को क्यों नहीं उद्बोधित करते ?" समाधान प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार कहते हैं : 'तीर्थंकर एकान्त रूप में कृतार्थ नहीं हैं; क्योंकि उनके जिन नाम-कर्म का उदय है। वह कर्म वन्ध्य या निष्फल नहीं है; अतः उसे क्षीण करने के हेतु यही उपाय है । अथवा कृतार्थ होते हुए भी जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश करना है, वैसे ही दूसरों से उपकृत न होकर भी परोपकार परायणता १. रुक्खाइरुवयनिरूवरणत्यमिह दव्वरुक्खदिळंतो। जह कोइ विउलवणसंडमझयारठ्ठियं रम्मं ॥ तुगं विउलक्खंधं साइसमो कप्परुक्खमारूढो। पज्जत्तगहियबहुविहसुरभिकुसुमोणुकंपाए । कुसुमत्थिभूमिचिट्ठिय पुरिसपसारियपडेसु पक्खिवइ । गंथति ते घेत्त सेसजणाणग्गहठाए । लोगवरणसंडमज्झे त्रोत्तीसाइसयसंपदोवेप्रो । तव-नियम-नाणमइय स कप्परुक्ख समारूढ़ो।। मा होज्ज नाणगहरणम्मि संसपो तेण केवलिग्गहणं । सो वि च उहा तो यं सवण्ण अमियनारिण त्ति ।। पज्जत्तनाणकुसुमो ताई छउमत्थभूमिसंथेसु । नाणकुसुमत्थिगणहरसियबुद्धिपडेसु पक्खिवइ । -विशेषावश्यक भाष्य : १०६६-११०१ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागम विचार १३ के कारण दूसरों का परमहित करना उनका स्वभाव है । कमल सूर्य से बोध पाते हैं-विकसित होते हैं, तो क्या सूर्य का उनके प्रति राग है ? सूर्य की किरणों का प्रभाव एक समान है, पर, कमल उससे विकसित होते हैं, कुमुद नहीं होते. तो क्या सूर्य का उनके प्रति द्वष है ? सूर्य की किरणों का प्रभाव एक समान है, पर, कमल उससे जो विकसित होते हैं और कुमुद नहीं होते, यह सूर्य का, कमलों का, कुमुदों का अपना-अपना स्वभाव है। उगा हुअा भी प्रकाशधर्मा सूर्य उल्लू के लिए उसके अपने दोष के कारण अन्धकाररूप है, उसी प्रकार जिन रूपी सूर्य अभव्यों के लिए बोध-रूपी प्रकाश नहीं कर सकते। अथवा जिस प्रकार साध्य रोग की चिकित्सा करता हुआ वैद्य रोगी के प्रति रागी और असाध्य रोग की चिकित्सा न करता या रोगी के प्रति द्वोषी नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार भव्यजनों के कर्म-रोग को नष्ट करते हुए जिनेन्द्ररूपी वैद्य उसके प्रति रागी नहीं होते तथा अभव्य जनों के असाध्य कर्म-रूपी रोग का अपचय न करने से उसके प्रति वे द्वषी नहीं कहे जा सकते । जैसे, कलाकार अनुपयुक्त काष्ठ आदि को छोड़ कर उपयुक्त काष्ठ आदि में रूप-रचना करता हुआ अनुपयुक्त काष्ठ के प्रति द्वषी और उपयुक्त काष्ठ के प्रति अनुरागी नहीं कहा जाता, उसी प्रकार योग्य को प्रतिबोध देते हुए और अयोग्य को न देते हए जिनेश्वर देव न योग्य के प्रति रागी और न अयोग्य के प्रति द्वषी कहे जा सकते हैं।" १. कीस कहइ कइत्थो किं वा भवियारण चेव बोहत्थं । सम्वोपायविहिण्णू कि वाऽभव्वे न बोहेइ ॥ नेगंतेण कयत्थो जेणोदिन्न जिणि दनामं से । तदवंझप्फलं तस्स य खवरणोवाप्रोऽयमेव जयो ।। जं व कयत्थस्स वि से प्रणवकयपरोवगारिसाभब्वं । परमा यदेसयत्त भासयसाभन्वमिव रविणो ॥ कि व कमलेसु रामो रविणो बोहेइ जेण सो ताई। कुमुएसु व से दोसो जं न विबुज्झति से ताई। जं बोह-मउलणाई सूरकरामरिसप्रो समाणाम्रो । क्रमशः Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पुष्पमाला की तरह सूत्रमाला का ग्रथन बीजादि बुद्धि-सम्पन्न' व्यक्ति ( गणधर ) उस ज्ञानमयी पुष्पवृष्टि को समग्रतया ग्रहण कर विचित्र पुष्प माला की तरह प्रवचन के निमित सूत्र - माला - शास्त्रग्रथित करते हैं । जिस प्रकार मुक्त - बिखरे हुये पुष्पों का ग्रहण दुष्कर होता है और गूंथे हुये पुष्पों या पुष्प गुच्छों का ग्रहण सुकर होता है, वही प्रकार जिन वचन रूपी पुष्पों के सम्बन्ध पिछले पृष्ठ का शेष कमल कुमुयारण तो तं साभव्वं तस्स तेसि च ॥ जह बोलूगाईस पगासघम्मावि सो सदोसेणं । उश्रो वि तमोरूवो एवमभव्वाण जिएसूरो ॥ सभं तिगिच्छमारणो रोगं रागी न भण्णए वेज्जो । मुरमाणो य प्रसज्झ निसेहयंतो जह प्रदोसो || तह भव्वकम्मरोगं नासंतो रागवं न जिरणवेज्जो । न य दोसी प्रभव्त्रासज्भकम्मरोगं निसेहतो ॥ मोत्त मजोग्गं जोग्गे दलिए रूवं करेइ स्वयारो । नय रागद्दोसिल्लो तहेव जोग्गे विबोहंतो ॥ जैनागम दिग्दर्शन - विशेषावश्यक भाष्य : ११०२-१११० कर लिये जाते हैं, उसे में उल्लिखित श्रादि शब्द अपने में अखण्ड धान्यप्रखण्ड सूत्र वाङ्मय को १. जिस बुद्धि के द्वारा एक पद से अनेक पद गृहीत बीज - बुद्धि कहते हैं। बीज - बुद्धि के साथ पाठ कोष्ठ - बुद्धि का सूचक है । जैसे, धान्य-कोष्ठ भण्डार संजोये रहता है, उसी प्रकार जो बुद्धि धारण करती है. वह कोष्ठ-बुद्धि कही जाती है । २. प्रवचन का अभिप्राय प्रसिद्ध वचन या प्रशस्त वचन या धर्म-संघ से है । अथवा प्रवचन से द्वादशांग लिया जा सकता है । वह ( द्वादशांग श्रुत) किस प्रकार ( उद्भावित ) हो, इस प्राशय से द्वादशांगात्मक प्रवचन के विस्तार के लिये या संघ पर अनुग्रह करने के लिये गणधर सूत्र रचना करते हैं द्वादशांग रूप प्रवचन सुख पूर्वक ग्रहण किया जा सके, उसका सुखपूर्वक गुरणन - परावर्तन, धारण-स्मरण किया जा सके, सुखपूर्वक दूसरों को दिया जा सके, सुखपूर्वक पृच्छा-विवेचन, विश्लेषरण, अन्वेषण किया जा सके, एतदर्थ गणधरों का सूत्र रचना का प्रयत्न होता है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम विचार १५ में है । पद, वाक्य, प्रकरण, अध्ययन, प्राभृत आदि निश्चित क्रमपूर्वक वे ( सूत्र ) व्यवस्थित हों, तो यह गृहीत है, यह गृहीतव्य है, इस प्रकार - समीचीनता और सरलता के साथ उनका ग्रहण, गुणन-परावर्तन, धारणस्मरण, दान, पृच्छा आदि सध सकते हैं । इसी कारण गणधरों ने श्रुत की अविच्छिन्न रचना की । उनके लिए वैसा अवश्य करणीय था; क्योंकि उन ( गणधरों) की वैसी मर्यादा है । गणधर - नाम-कर्म के उदय से उनके द्वारा श्रुत रचना किया जाना अनिवार्य है । सभी गणधर ऐसा करते रहे हैं ।"" स्पष्टीकरण के हेतु भाष्यकार जिज्ञासा - समाधान की भाषा में आगे बतलाते हैं : "तीर्थंकर द्वारा प्रख्यात वचनों को गणधर स्वरूप या कलेवर देते हैं । फिर उनमें क्या विशेषता है ? यथार्थता यह है कि तीर्थंकर गणधरों की बुद्धि की अपेक्षा से संक्षेप में तत्वाख्यान करते हैं, सर्वसाधारण हेतुक विस्तार से नहीं । दूसरे शब्दों में त् (सूक्ष्म) अर्थभाषित करते हैं । गणधर निपुणतापूर्वक उसका (विस्तृत) सूत्रात्मक ग्रथन करते हैं । इस प्रकार धर्म - शास्त्र के हित के लिये सूत्र प्रवर्तित होते हैं ।"२ १. तं नागकुसुमवुट्ठि घेत्त ं बीयाइबुद्धिश्रो सव्वं । गंथति पवयरट्ठा माला इव चित्तकुसुमारणं ॥ tri anj वरणमिह सुयनारणं कहं तयं होज्जा | पवर महवा संघो गर्हति तयरण गहट्ठाए ॥ धे व सुहं सुहगुणधारणा दाउ पुच्छिउ चेव । एएहि कारणेहि जीयं ति कयं गरणहरेहिं ॥ मुक्ककुसुमारणं गणाइयाई जह दुक्करं करेउ जे । गुच्छारण च सुहयरं तहेव जिरणवयरणकुसुमाणं ॥ पय-वक्क-पगररण-ज्झाय - पाहुडाइनियतक्कमपमाण । तदरगुसरता सहं चिय घेप्पइ गहियं इदं गेज्भं ॥ एवं गुणणं धरणं दारण पुच्छा य तदरसा रेणं । होइ सुहं जोयंपि य कायध्वमियं जनोऽवस्सं ॥ सहि गरणहरेहि जयंति सुयं जनो न वोछिन्नं । गरण हरमज्जाया वा जीयं सव्वाचिन वा ॥ - विशेषावश्यक भाष्यः ११११-१७ २. जिणभरिणइ च्चिय सुत्त गरगहरकरणम्मि को विसेसो त्थ । सो तदविक्ख भासइ न उ वित्थरम्रो सुयं कि तु ॥ प्रत्थंभास हा सुतं गंथति गरगहरा निउणं । सासरास हिट्ठाए तो सुत्त पवत्त इ ॥ वही, १११८-१६ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन अर्थ की अनभिलाप्यता ___ अर्थ की वाग्गम्यता या वागगम्यता के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करने के अभिप्राय से भाष्यकार लिखते हैं : "अर्थ अनभिलाप्य है। वह अभिलाप या निर्वचन का विषय नहीं है; इसलिये शब्दरूपात्मक नहीं है। ऐसी स्थिति में अर्थ का किस प्रकार कथन कर सकते हैं ? शब्द का फल अर्थ-प्रत्यायन है-वह अर्थ की प्रतीति कराता है; इसलिये शब्द में अर्थ का उपचार किया गया है। इस दृष्टिकोण से अर्थ-कथन का उल्लेख किया गया है।" पुनः आशंका करते हैं : "तब ऐसा कहा जा सकता है, अर्हत्, अर्थ-प्रत्यायक सूत्र ही भाषित करते हैं, अर्थ नहीं। गणधर उसी का संचयन करते हैं । तब दोनों में क्या अन्तर हुअा ?" - समाधान दिया जाता है-अर्हत् पुरुषापेक्षया-गणधरों की अपेक्षा से स्तोक-थोड़ा-सा कहते हैं, वे द्वादशांगी नहीं कहते; अतः द्वादशांगी की अपेक्षा से वह (अर्हत्-भाषित) अर्थ है तथा गणधरों की अपेक्षा से सूत्र ।" मातृका-पद - उत्पाद, व्यय तथा ध्र वत्व मूलक तीन पद, जो अर्हत् द्वारा भाषित होते हैं, मातका-पद कहे जाते हैं। उस सम्बन्ध में भाष्यकार लिखते हैं : "अंगादि सूत्र-रचना से निरपेक्ष होने के कारण (तीन) मातृका-पद अर्थ कहे जाते हैं। जिस प्रकार द्वादशांग प्रवचन-संघ के लिये हितकर है, उस प्रकार वे (मातृका-पद) हितकर नहीं हैं। संघ के लिये वही हितकर है, जो सुखपूर्वक ग्रहण किया जा सके। १. नण प्रत्थोऽभिलप्पो स कहं भासइ न सदरूवो सो। सदम्मि तदुवयारो प्रत्थप्पच्चायण फलम्मि ।। तो सुत्तमेव भासइ प्रत्यप्पच्चायगं, न नामत्थं । गणहारिणो वितं चिय करिति को पडिविसेसोत्थ ।। सो पुरिसाविक्खाए थोवं भरण्इ न उ बारसंगाई। प्रत्थो तदविक्खाए सुत्त चिय गणहराणं तं । -विशेषावश्यक भाष्य : ११२०-२२ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम विचार वह गणघरों द्वारा रचित बारह प्रकार का श्रु त है। वह निपुणनियतगुण या निर्दोष, सूक्ष्म तथा महान्-विस्तृत अर्थ का प्रतिपादक है।" भाष्यकार ने द्वादशांगात्मक प्रागम-रचना हेतु, परम्परा, क्रम, प्रयोजन, आदि के सन्दर्भ में बहुत विस्तार से जो कहा है, उनका मानसिक झुकाव यह सिद्ध करने की ओर विशेष प्रतीत होता है कि प्रागमिक परम्परा का उद्गम-स्रोत तीर्थंकर है; अतः गणधरों का कर्तृत्व केवल नियू हण, संकलन या ग्रथन मात्र से है। वैदिक परम्परा में वेद अपौरुषेय माने गये हैं। परमात्मा ने ऋषियों के मन में वेद-ज्ञानमय मन्त्रों की अवतारणा की। ऋषियों ने अन्तश्चक्षुषों से उन्हें देखा। फलतः शब्दरूप में उन्होंने उन्हें अभिव्यंजना दी। ऋषि मन्त्र-द्रष्टा थे, मन्त्र-स्रष्टा नहीं। इसी प्रकार भाष्यकार द्वारा व्याख्यात किये गये तथ्यों से यह प्रकट होता है, गणधर वास्तव में पागम स्रष्टा नहीं थे, प्रत्युत वे अर्हत्-प्ररूपित श्रु त के द्रष्टा या अनुभविता मात्र थे । जो उनके दर्शन और अनुभूति का विषय बना, उन्होंने शब्द रूप में उसकी अवतारणा की। भारतवर्ष की प्रायः सभी प्राचीन धार्मिक परम्पराओं का यह सिद्ध करने का विशेष प्रयत्न देखा जाता है कि उनका वाङमय अपौरुषेय, अनादि, ईश्वरीय या पार्ष है। पूर्वात्मक ज्ञान और द्वादशांग जैन वाङमय में ज्ञानियों की दो प्रकार की परम्परायें प्राप्त होती है: -पूर्वघर और द्वादशांग-वेत्ता। पूर्वो में समग्र श्रुत या वाक्१. अंगाइसुत्तरयणानिरवेक्खो जेण तेण सो प्रत्यो। महवा न सेसपवयणहियउ त्ति जह वारसंगमिणं ॥ पवयणहियं पुरण तयं जं सुहगहणाइ गणहरेहितो। बारसविहं पवत्तइ निउणं सुहम महत्थं च ।। निययगुणं वा निउणं निदोसं गणहराऽहवा निउणा । तं पुण किमाइ-पज्जतमामिह को व से सारो॥ -विशेषावश्यक भाष्य : ११२३-२५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन परिणय समग्र ज्ञान का समावेश माना गया है । वे संख्या में चतुर्दश हैं । जैन श्रमणों में पूर्वधरों का ज्ञान की दृष्टि से उच्च स्थान रहा है। जो श्रमण चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे, उन्हें श्रु तकेवली कहा जाता था। एक मत ऐसा है, जिसके अनुसार पूर्व ज्ञान भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती समय से चला आ रहा था। भगवान् महावीर के पश्चात् अर्थात् उत्तरवर्ती काल में जो वाङमय सजित हुअा, उससे पूर्व का होने से यह (पूर्वात्मक ज्ञान) 'पूर्व' शब्द से सम्बोधित किया जाने लगा। उसकी अभिधा के रूप में प्रयुक्त 'पूर्व' शब्द सम्भवतः इसी तथ्य पर प्राधृत है। द्वादशांगी से पूर्व पूर्व-रचना एक दूसरे अभिमत के अनुसार द्वादशांगी की रचना से पूर्व गणधरों द्वारा अर्हत्-भाषित तीन मातृका-पदों के आधार पर चतुर्दश शास्त्र रचे गये, जिनमें समग्रश्रत की अवतारणा की गयी; आवश्यक नियुक्ति में ऐसा उल्लेख है ।' द्वादशांगी से पूर्व-पहले यह रचना की गयी; अतः ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्वो के नाम से विख्यात हुये । श्रत ज्ञान के कठिन, कठिनतर और कठिनतम विषय शास्त्रीय पद्धति से इनमें निरूपित हुये। यही कारण है, यह वाङमय विशेषतः विद्वत्प्रयोज्य था । साधारण बुद्धिवालों के लिये यह दुर्गम था; अतएव इसके आधार पर उनके लाभ के लिये द्वादशांगी को रचना को गयो। १. धम्मोवाप्रो पवयणमड़वा पुनाई देसया तस्स । सम्वजिणाण गणहरा चोद्दसपुव्वा उ ते तस्स ॥ सामाइयाइया वा वयजीवनिकायभावणा पढमं । एसो धम्मोवादो जिणेहिं सन्वेहिं उवइट्ठो॥ -मावश्यक नियुक्ति : गाथा २६२-६३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम विचार आवश्यक नियुक्ति विवरण में प्राचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में जो लिखा है, पठनीय है। दृष्टिवाद में पूर्वो का समावेश द्वादशांगी के बारहवें भाग का नाम दृष्टिवाद है। वह पांच भागों में विभक्त है -१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका। चतुर्थ विभाग पूर्वगत में चतुर्दश पूर्व ज्ञान का समावेश माना गया है। पूर्व ज्ञान के प्राधार पर द्वादशांगी की रचना हुई, फिर भी पूर्व ज्ञान को छोड़ देना सम्भवतः उपयुक्त नहीं लगा । यही कारण है कि अन्ततः दृष्टिवाद में उसे सन्निविष्ट कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि जैन तत्व-ज्ञान के महत्वपूर्ण विषय उसमें सूक्ष्म विश्लेषण पूर्वक बड़े विस्तार से व्याख्यात थे। विशेषावश्यक भाष्य में उल्लेख है कि यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र उपयोग-ज्ञान का अवतरण अर्थात् समग्र वाङमय अन्तर्भूत है। परन्त, अल्पबुद्धि वाले लोगों तथा स्त्रियों के उपकार के हेतु उससे शेष श्रुत का नि' हण हुआ, उसके आधार पर सारे वाङमय का सर्जन हुमा ।२ पूर्व रचना : काल तारतम्य पूर्वो की रचना के सम्बन्ध में प्राचारांग-नियुक्ति में एक और १. ननु पूर्व तावा पूर्वाणि भगवद्भिर्गणधररुपनिबध्यन्ते, पूर्व करणात् पूर्वारणीति पूर्वाचार्यप्रदर्शितमुत्पत्तिश्रवणात्, पूर्वेषु च सकलवाङ्मयस्यावतारो, न खलु तदस्ति यत्पूर्वेषु नाभिहितं, ततः किं शेषांगविरचनेनांगबाह यविरचनेन वा ? उच्यते, इह विचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात्, तेषां च दुर्मेधसत्वात्, स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव, तासां तुच्छत्वादिदोषवहुलत्वात् । --पृ० ४८ : प्रकाशक भागमोदय समिति, बम्बई २. जइवि य भूयावाए सव्वस्स वनोगयस्स प्रोयारो । निज्जूहणा तहा वि हु दुम्मेहे पप्प हत्थी य ।। -विशेषावश्यक भाष्य · गाथा ५५१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन संकेत किया गया है, जो पूर्व के उल्लेखों से भिन्न है। वहां सर्वप्रथम प्राचारांग की रचना का उल्लेख है, उसके अनन्तर अंग-साहित्य और इतर वाङमय का । जहाँ एक ओर पूर्व वाङमय की रचना के सम्बन्ध में प्रायः अधिकांश विद्वानों का अभिमत उनके द्वादशांगी से पहले रचे जाने का है, वहां प्राचारांग-नियुक्ति में सब से पहले प्राचारांग के सर्जन का उल्लेख एक भेद उत्पन्न करता है। वर्तमान में उसके अपाकरण का कोई साधक हेतु उपलब्ध नहीं है। इसलिये इसका निष्कर्ष निकालने की ओर विद्वज्जनों का प्रयास रहना चाहिए। __सभी मतों के परिप्रेक्ष्य में ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है कि पूर्व वाङ्मय की परम्परा सम्भवतः पहले से रही है और वह मुख्यतः तत्त्ववाद की निरूपक रही है। वह विशेषत: उन लोगों के लिये थी, जो स्वभावतः दार्शनिक मस्तिष्क और तात्विक रुचि-सम्पन्न होते थे, सर्वसाधारण के लिये उसका उपयोग नहीं था। इसलिये कुछ उक्तियां प्रचलित हुई–बालकों, नारियों, वृद्धों, अल्पमेधावियों या गूढ़ तत्व समझने की न्यून क्षमता वालों के हित के लिये प्राकृत में धर्म-सिद्धांत की अवतारणा हुई।' पूर्व वाङ्मय की भाषा पूर्व वाङमय अत्यधिक विशालता के कारण शब्द-रूप में समग्रतया व्यक्त किया जा सके, सम्भव नहीं माना जाता। परम्परया कहा जाता है कि, मसी-चूर्ण की इतनी विशाल राशि हो कि अंबारी सहित हाथी भी उसमें ढंक जाये, उस मसी चूर्ण को जल में घोला जाए। उससे पूर्व लिखे जाएं, तथापि वह मसी-चूर्ण अपर्याप्त रहेगा। वे लेख में नहीं बांधे जा सकेंगे। अर्थात् पूर्व ज्ञान समग्रतया शब्द का विषय नहीं है। वह लब्धिरूप-प्रात्मक्षमतानुस्यूत है। पर, इतना सम्भाव्य मानना ही होगा कि जितना भी अंश रहा हो, शब्द-रूप १. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । अनुग्रहार्य तत्वज्ञः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।। -दशवकालिक वृत्ति ; पृ० २०३ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आगम विचार २१ में उसकी अवतारणा अवश्य हुई । तब प्रश्न उपस्थित होता है, किस भाषा में ऐसा किया गया ? साधारणतया यह मान्यता है कि पूर्व संस्कृत-बद्ध' थे। कुछ विद्वानों का इस सम्बन्ध में अन्यथा मत भी है। वे पूर्वो के साथ किसी भी भाषा को जोड़ना नहीं चाहते । लब्धिरूप होने से जिस किसी भाषा में उनकी अभिव्यंजना सम्भाव्य है। सिद्धान्ततः ऐसा भी सम्भावित हो सकता है, पर. चतुर्दश पूर्वधरों की, दश पूर्वधरों की, क्रमशः हीयमान पूर्वधरों की एक परम्परा रही है। उन पूर्वधरों द्वारा अधिगत पूर्व-ज्ञान, जितना भी वाग्-विषयता - में संचित हुआ, वहां किसी-न-किसी भाषा का अवलम्बन अवश्य ही रहा होगा। यदि संस्कृत में वैसा हुआ, तो स्वभावतः एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जैन मान्यता के अनुसार प्राकृत (अर्द्धमागधी) आदि भाषा है। तीर्थंकर अर्द्ध मागधी में धर्म-देशना देते हैं, जो श्रोत समुदाय की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। देवता इसी भाषा में बोलते हैं । अर्थात् वैदिक परम्परा में विश्वास रखने वालों के अनुसार छन्दस् (वैदिक संस्कृत) का जो महत्व है, जैन धर्म में आस्था रखने वालों के लिये आर्षत्व के सन्दर्भ में वही महत्व प्राकृत का है। भारत में प्राकृत बोलियां अत्यन्त प्राचीन काल से लोक-भाषा के रूप में व्यवहृत रही हैं। छन्दस् सम्भवतः उन्हीं बोलियों में से किसी एक पर प्राधृत शिष्ट रूप है। लौकिक संस्कृत का काल उससे पश्चादवर्ती है। इस स्थिति में पर्वश्रत को भाषात्मक दृष्टि से संस्कृत के साथ जोड़ना कहां तक संगत है ? कहीं पूर्ववर्ती काल में ऐसा तो नहीं हा, जब संस्कृत का साहित्यिक भाषा के रूप में सर्वातिशायी गौरव पुनः प्रतिष्ठापन्न हमा, तब जैन विद्वानों के मन में भी वैसा आकर्षण जगा हो कि वे भी अपने प्रादि-वाङमय का उसके साथ १. यदिति श्रुतमस्माभिः पूर्वेषां सम्प्रदायतः । चतुर्दशापि पूर्वाणि संस्कृतानि पुराभवन् । ११३ प्रजातिशयसाध्यानि तान्युच्छिन्नानि कालतः । मधुनकादशांग्यस्ति सुधर्मस्वामिभाषिता । ११४ –মা কৃষি Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनागम दिग्दर्शन लगाव सिद्ध करें, जिससे उसका माहात्म्य बढ़े। निश्चयात्मक रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता, पर, सहसा यह मान लेना समाधायक नहीं प्रतीत होता कि पूर्व-श्रत संस्कृत-निबद्ध रहा । पूर्वगत : एक परिचय पूर्वगत के अन्तर्गत विपुल साहित्य है। उसके अन्तर्वर्ती चौदह पूर्व हैं : १. उत्पाद पूर्व-समग्र द्रव्यों और पर्यायों के उत्पाद या उत्पत्ति को अधिकृत कर विश्लेषण किया गया है। इसका पद परिमाण एक करोड़ है। २. अग्रायणीय पूर्व-अग्र तथा अयन शब्दों के मेल से अग्रायणीय शब्द निष्पन्न हुआ है । अग्र का अर्थ' परिमाण और अयन का अर्थ गमन-परिच्छेद या विशदीकरण है। अर्थात् इस पूर्व में सब द्रव्यों, सब पर्यायों और सब जीवों के परिमाण का वर्णन है। पद-परिमाण छियानवें लाख है। ३. वीर्यप्रवाद पूर्व-सकर्म और अकर्म जीवों के वीर्य का विवेचन है। पद-परिमाण सत्तर लाख है। ४. अस्ति-नास्ति-प्रवाद पूर्व-लोक में धर्मास्तिकाय आदि जो हैं और खर-विषाणादि जो नहीं हैं, उनका इसमें विवेचन है अथवा सभी वस्तुएँ स्वरूप की अपेक्षा से हैं तथा पर-रूप की अपेक्षा से नहीं हैं, इस सम्बन्ध १. अग्र परिमाणं तस्य प्रयनं गमनं परिच्छेद इत्यर्थः । तस्मै हितमग्रायणीयम्, सर्वद्र व्यादिपरिमाणपरिच्छेदकारि-इति भावार्थः । तथाहि तत्र सर्वद्रव्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वजीवविशेषाणां च परिमाणमुपवर्ण्यते । -अभिधान राजेन्द्र : चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ २. अन्तरंग शक्ति, सामर्थ्य, पराक्रम । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विचार में विवेचन है ।' पद-परिमाण साठ लाख है । ५. ज्ञानप्रवाद पूर्व-मति आदि पांच प्रकार के ज्ञान का विस्तारपूर्वक विश्लेषण है । पद-परिमाण एक कम एक करोड़ है । २३ २ ६. सत्य - प्रवाद पूर्व—- सत्य का अर्थ संयम का वचन है । उनका विस्तारपूर्वक सूक्ष्मता से इसमें विवेचन है । पदपरिमाण छः अधिक एक करोड़ है । ७. प्रात्म-प्रवाद पूर्व - प्रात्मा या जीव का नय-भेद से अनेक प्रकार वर्णन है । पद-परिमाण छब्बीस करोड़ है । ८. कर्म-प्रवाद पूर्व - ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मों का प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश आदि भेदों की दृष्टि से विस्तृत वर्णन किया गया है । पद-परिमाण एक करोड़ छियासी हजार है । - ९. प्रत्याख्यान पूर्व – भेद-प्रभेद सहित प्रत्याख्यान त्याग का विवेचन है । पद-परिमाण चौरासी लाख है । १०. विद्यानुप्रवाद पूर्व - अनेक अतिशय - चमत्कार - युक्त विद्याओं का, उनके अनुरूप साधनों का तथा सिद्धियों का वर्णन है । पद-परिमाण एक करोड़ दश लाख है । ११. अवन्ध्य पूर्व - वन्ध्य शब्द का अर्थ निष्फल होता है । निष्फल न होना प्रवन्ध्य है । इसमें निष्फल न जाने वाले शुभ - फलात्मक ज्ञान, तप, संयम आदि का तथा १. यद् वस्तु लोकेऽस्ति धर्मास्तिकायादि, यच्च नास्ति खरशृंगादि तत्प्रवदतीत्यस्तिनास्तिप्रवादम् । अथवा सर्वं वस्तु स्वरूपेणास्ति, पररूपेण नास्तीति श्रस्तिनास्तिप्रवादम् । - अभिधान राजेन्द्र ; चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ २. सत्यं संयमो वचनं वा तत्सत्यसंयमं वचनं वा प्रकर्षेण सप्रपंचं वदतीति सत्यप्रवादम् । - प्रभिधान राजेन्द्र ; चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन अशुभ फलात्मक प्रमाद आदि का निरूपण है । पद परिमाण छब्बीस करोड़ है। १२. प्राणायु-प्रवाद पूर्व-प्राण अर्थात् पांच इन्द्रिय, मानस आदि तीन बल, उच्छवास-निःश्वास तथा आयु का भेद प्रभेद सहित विश्लेषण है । पद-परिमाण एक करोड़ छप्पन लाख है। १३. क्रिया-प्रवाद पूर्व-कायिक आदि क्रियाओं का, संयमात्मक क्रियाओं का तथा स्वाच्छान्द क्रियाओं का विशाल विपुल विवेचन है । पद-परिमाण नौ करोड़ है। १४. लोक बिन्दुसार पूर्व-लोक में या श्रुत-लोक में अक्षर के ऊपर लगे विन्द की तरह जो सर्वोत्तम तथा सर्वाक्षरसन्निपात लब्धि है, उस ज्ञान का वर्णन है।' पद परिमाण साढ़े बारह करोड़ है। चूलिकाएं चूलिकाएं पूर्वो का पूरक साहित्य है। इन्हें परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत तथा अनुयोग (दृष्टिवाद के भेदों) में उक्त और अनुक्त अर्थ की संग्राहिका ग्रन्थ-पद्धतियां कहा गया है। दृष्टिवाद के इन भेदों में जिन-जिन विषयों का निरूपण हुआ है, उन-उन विषयों में विवेचित महत्वपूर्ण अर्थों-तथ्यों तथा कतिपय अविवेचित अर्थों-प्रसंगा का इन चूलिकाओं में विवेचन किया गया है। इन चूलिकाओं का पूर्व वाङमय में विशेष महत्व है। ये चूलिकाएं श्रत रूपी पर्वत पर चोटियों की तरह सुशोभित हैं।। १. लोके जगति श्रुतलोके वा अक्षरस्योपरि बिन्दुरिव सार सर्वोत्तमं सर्वाक्षरसन्निपातलब्धिहेतुत्वात् लोकबिन्दुसारम् । -प्रभिधान राजेन्द्र ; चतुर्थ माग, पृ० २५१५. २. यथा मेरौ चूलाः, तत्र चूला इव दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगोक्तानुक्ताथ-- संग्रहपरा प्रन्यपद्धतयः । बही : पृ० २५१५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागम विचार चूलिकायों की संख्या पूर्वगत के अन्तर्गत चतुर्दश पूर्वो में प्रथम चार पूर्वो की चूलिकाएं हैं। द्रश्न उपस्थित होता है, दृष्टिवाद के भेदों में पूर्वगत एक भेद है। उसमें चतुर्दश पूर्वो का समावेश है। उन पूर्वो मैं से चारउत्पाद,अग्रयणीय,वीर्य-प्रवाद तथा अस्ति-नास्ति-प्रवाद पर चूलिकाएँ हैं। इस प्रकार इनका सम्बन्ध इन चार पूणे से होता है । परिकर्म,सूत्र, पूर्वगत और अनुयोग में उक्त अनुक्त अर्थों-विषयों की संग्राहिका के रूप में भी इनका उल्लेख किया गया है । उसकी संगति किस प्रकार हो सकती है? विभाजन या व्यवस्थापन की दृष्टि से पूर्वो को दृष्टिवाद के भेदों के अन्तर्गत पूर्वगत में लिया गया है । वस्तुतः उनमें समग्रश्रु त की अवतारणा है; अतः परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत तथा अनुयोग के विषय भी मौलिकतया उनमें अनुस्यूत हैं ही। ___ चार पूर्वो के साथ चूलिकाओं का जो सम्बन्ध है, उसका अभिप्राय है कि इन चार पूर्वो के सन्दर्भ में इन चुलिकाओं द्वारा सृष्टिवाद के सभी विषयों का, जो वहाँ विस्तृत या संक्षिप्त व्याख्यात हैं, कुछ कम व्याख्यात हैं, कुछ केवल सांकेतिक हैं, विशदरूपेण व्याख्यात नहीं हैं, संग्रह है। इसका आशय है कि चूलिकाओं में दृष्टिवाद के सभी विषय सामान्यतः सांकेतिक हैं. पर, विशेषतः जो विषय परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत तथा अनुयोग में विशदतया व्याख्यात नहीं हैं, उनका इनमें प्रस्तुतोकरण है। पहले पूर्व को चार, दूसरे को बारह, तीसरे की पाठ तथा चौथे की दश चूलिकाएँ मानी गयी हैं । इस प्रकार कुल ४+१२+८+१०=३४ चूलिकाएं हैं। वस्तु-वाङ्मय चूलिकाओं के साथ-साथ 'वस्तु' संज्ञक एक और वाङमय है, जो पूर्वो का विश्लेषक या विवर्धक है। इसे पूर्वान्तर्गत अध्ययनस्थानीय ग्रन्थों के रूप में माना गया है ।' श्रोताओं की अपेक्षा से १. पूर्वान्तर्गतेषु अध्ययनस्थानीयेषु ग्रन्यविशेषेषु । -प्रभिधान राजेन्द्र, षष्ठ भाग, पृ० ८७९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनागम दिग्दर्शन सूक्ष्म जीवादि भाव-निरूपण में भी 'वस्तु' शब्द अभिहित है।' ऐसा भी माना जा जाता है, सब दृष्टियों को इसमें अवतारणा है ।। पूर्व-विच्छेद-काल श्वेताम्बर-मान्यता के अनुसार प्राचार्य स्थूलभद्र के देहावसान के साथ अन्तिम चार पूर्वो का विच्छेद हो गया जो उन्हें सूत्रात्मक रूप में प्राप्त थे, अर्थात्मक रूप में नहीं। तदनन्तर दश पूर्वो की परम्परा आर्य वज्र तक चलती रही। नन्दी स्थविरावली के अनुसार आर्य वज्र भगवान महावीर के १८ वें पट्टधर थे। उनका देहावसान वीर-निर्वाणाब्द ५८४ में माना जाता हैं। आर्य वज्र के स्वर्गवास के साथ दशम पूर्व विच्छिन्न हो गया। अनुयोग का अर्थ अनुयोग शब्द अनु और योग के संयोग से बना है। अनु अपसर्ग यहाँ प्रानुकूल्यार्थवाचक है। सूत्र (जो संक्षिप्त होता है) का, अर्थ (जो विस्तीर्ण होता है) के साथ अनुकूल, अनुरूप या सुसंगत संयोग अनुयोग कहा जाता है। प्रागमों के विश्लेषण तथा व्याख्यान के प्रसंग में प्रयुक्त विषय-विशेष का द्योतक है । अनुयोग चार भेदों में विभक्त किये गये हैं: १. चरणकरणानुयोग.४ २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयोग तथा ४. द्रव्यानुयोग ।५ आगमों में इन चार अनुयोगों का विवेचन है । कहीं विस्तार से वर्णित हुए हैं और कहीं संक्षेप १. श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादि भावकथने । २. सर्वदृष्टीनां तत्र समवतारस्तस्य जनके । अभिधान राजेन्द्र : चतुर्थ भाग, पृ० २५१६ ३. चत्तारिउ पण प्रोगा, चरणे धम्मगणियाणप्रोगे य । दवियाऽणुप्रोगे य तहा, जहकम्मं ते महड्ढ़ीया । -अभिधान राजेन्द्र : प्रथम भाग, पृ० ३५६ ४. चरण का अर्थ चर्या, प्राचार या चारित्र्य है। इस सम्बन्ध में जहां विवेचन-विश्लेषण हो, वह चरणकरणानुयोग है । ५. द्रव्यों के सन्दर्भ में सबसत्पर्यायालोचनात्मक विश्लेषण या विशद विवेचन जिसमें हो, वह द्रव्यानुयोग है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमम विचार २७ से । आर्य वज्र तक प्रागमों में अनुयोगात्मक दृष्टि से पृथक्ता नहीं थी। प्रत्येक सूत्र चारों अनुयोगों द्वारा व्याख्यात होता था । आवश्यक नियुक्ति में इस सम्बन्ध में उल्लेख है : 'कालिक श्रु त (अनुयोगात्मक) व्याख्या की दृष्टि से अपृथक् थे अर्थात् उनमें चरणकरणानुयोग प्रभृति अनुयोग चतुष्टय के रूप में अविभक्तता थी। आर्य वज्र के अनन्तर कालिक श्रत और दृष्टिवाद की अनुयोगात्मक पृथक्ता (विभक्त्रता) की गयी।" आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में सूचित किया है : "तब तक साधु तीक्ष्णप्रज्ञ थे; अतः अनुयोगात्मक दृष्ट्या अविभक्तरूपेण व्याख्या का प्रचलन था-प्रत्येक सूत्र में चरणकरणानुयोग आदि का अविभागपूर्वक वर्तन था।" नियुक्ति में जो केवल कालिक श्रु त का उल्लेख किया गया है, प्राचार्य मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है : "मुख्यता की दृष्टि से यहां कालिक श्रु त का ग्रहण है, अन्यथा अनुयोगों का तो कालिक, उत्कालिक आदि में सर्वत्र अविभाग था ही।" विशेषावश्यक भाष्य में इस सम्बन्ध में विश्लेषण करते हुए कहा गया है : 'आर्य वज्र तक जब अनुयोग अपृथक् थे, तब एक ही सूत्र की चारों अनुयोगों के रूप में व्याख्या होती थी।" अनुयोग विभक्त कर दिए जाएं, उनकी पृथक्करण कर छंटनी कर दी जाए, तो वहां (उस सूत्र में) वे चारों अनुयोग व्यवछिन्न नहीं हो जाएंगे? भाष्यकार समाधान देते हैं कि “जहां किसी एक सूत्र की १. जावंत प्रज्ज वइरा अपहुत्तं कालिप्राणुप्रोगस्स । तेरणारेण पुहुत्तं कालिम सुम दिट्ठिवायं य ।। -प्रावश्यक नियुक्ति - ७६३ २. यावदार्यवज्रा-पार्ववनस्वामिनो मुखो महामतयस्तावत्कालिकानुयोगस्य कालिकश्रुतव्याख्यानस्यापृथक्त्वं-प्रतिसूत्रं चरणकरणानुयोगादीनामविभागेन वर्तमासीत्, तदा साधूनां तीक्ष्णप्रज्ञत्वात् । कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा सर्वानुयोगस्यापृथक्त्वमासीत् । -प्रावश्यक नियुक्ति : पृ० ३८३, प्रका० प्रागमोदय समिति, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जैनागम दिग्दर्शन व्याख्या चारों अनुयोगों में होती थी वहां चारों में से अमुक अनुयोग के आधार पर व्याख्या किये जाने का वहां प्राशय है श्रार्य रक्षित द्वारा विभाजन अनुयोग-विभाजन का कार्य श्रार्य रक्षित द्वारा सम्पादित हुआ । आरक्षित वज्र के पट्टाधिकारी थे । वे महान् प्रभावक थे, देवेन्द्रों द्वारा अभिपूजित थे । उन्होंने युग की विषमता को देखते हुए कहां, कौनसा अनुयोग व्याख्येय है, इसका मुख्यता की दृष्टि से चार प्रकार से विभाजन किया- सूत्र -ग्रन्थों को चार अनुयोगों में बांटा । ' 1 आर्य रक्षित ने शिष्य पुष्यमित्र - दुर्बलिका पुष्यमित्र को, जो मति, 'मेधा' और धारण आदि समग्र गुणों से युक्त थे, कष्ट से श्रुतार्णव को धारण करते देख कर, अतिशय ज्ञानोपयोग द्वारा यह जाना कि लोग क्षेत्र और काल के प्रभाव से भविष्य में मति, मेधा और धारणा से परिहीन होंगे। उन पर अनुग्रह करते हुए उन्होंने कालिक प्रदिश्रुत के विभाग द्वारा अनुयोग किये । ६ १. पुहुत्ते प्रभोगे चत्तारि दुवार मासए एगो ! हुताोगकरणे ते प्रत्थ तम्रो विवोच्छिन्ना ॥ किं वरेहि पुहुत्तं कयमह तदणंतरेहि भरिणयम्मि । तदतरेहिं तदमिहिय गहिय सुत्तत्थसरिहिं || देविदवं दिएहिं महाणुभावेहि रक्खियज्जेहं । जुगमासज्ज विभत्तो रणभोगो तो कभी चउहा ॥ विशेषावश्यक भाष्य : २२८६-८८ २. मति = प्रवबोध-शक्ति ३. मेधा पाठ-शक्ति — -- ४. धारणा = अवधारणा शक्ति ५. ऐदंयुगीन पुरुषानुग्रहबुद्ध, या चरणकरण द्रव्य धर्मकथा गरिणतानुयोग भेदाच्चतुर्धा । सूत्रकृतांगटीका, उपोद्घात - ६. नाऊण रक्खियज्जो मइमेहाधाररणासभगापि । किच्छेण घरे मारणं सुयावं पूसमित्तं ति ॥ utternut प्रोगो मइमेहाघारणाइपरिहीणे । नाऊ गमेस पुरिसे खेत्तं कालारणभावं च ॥ सानुग्गहोरोगे वीसु कासी य सुयविभागे णं ॥ - - विशेषावश्यक भाष्य : २२८६.६१ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम विचार विशेषावश्यक भाष्य के वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्र ने २५११वीं गाथा की व्याख्या में प्रसंगोपात्ततया यह सूचित किया है कि “दुर्बलिका पुष्यमित्र के अतिरिक्त प्रार्य रक्षित के तीन मुख्य शिष्य और थेविन्ध्य, फल्गुरक्षित और गोष्ठामाहिल । श्राचार्य रक्षित ने दुर्बलिका पुष्यमित्र को आदेश दिया, वे विन्ध्य को पूर्वों की वाचना दें । दुर्बलिका पुष्यमित्र वाचना देने लगे । पर पुनरावृत्ति न कर पाने के कारण नवम पूर्व की उनको विस्मृति होने लगी । प्राचार्य रक्षित को उस समय लगा, ऐसे बुद्धिशाली व्यक्ति को भी यदि सूत्रार्थ विस्मृत होने लगे हैं, तब भविष्य में और अधिक कठिनाई उत्पन्न हो जायेगी । उन्होंने इस विवशता से प्रेरित होकर पृथक्-पृथक् अनुयोगों की व्यवस्था की ।" अनुयोगों के आधार पर सूत्रों का विभाजन निम्नांकित प्रकार से हुआ : ' १. प्रथम — चरणकरणानुयोग में कालिक श्रुत- ग्यारह अंग, महाकल्प श्रुत तथा छेद सूत्र । २. द्वितीय - धर्मकथानुयोग में ऋषिभाषित । ३. तृतीय - गणितानुयोग में सूर्यप्रज्ञप्ति आदि । ४. चतुर्थ - द्रव्यानुयोग में दृष्टिवाद । २६ आगमों की प्रथम वाचना में अनेक स्रोतों से यह विदित होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य बारह वर्षों का भीषण दुर्भिक्ष पड़ा । जनता अन्नादि खाद्य पदार्थों के प्रभाव में त्राहि-त्राहि करने लगी । भिक्षोपजीवी श्रमणों को भी १. कालियसुयं च इसिमासियाई तइमा य सूरपन्नती । सव्वो य दिवाम्रो चउत्थम्रो होइ श्रणुप्रोगो ॥ जं च महाकप्पसुयं जाणि श्र से सारिण छेयसुत्ताणि । चरणकररणा प्रोगो त्ति कालियत्थे उवगयाणि ॥ विशेषावश्यक भाष्य : २२६४-६५ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनागम दिग्दर्शन तब भिक्षा कहां से प्राप्त होती ? स्थविरावली में इस सम्बन्ध में उल्लेख है : "वह दष्काल कालरात्रि के समान कराल था। साधुसंघ (भिक्षापूर्वक) जीवन निर्वाह हेतु समुद्रतट पर चला गया। अधीत का गुणन-यावृत्ति न किये जाने के कारण साधुओं का श्रुत विस्मृत हो गया। अभ्यास न करते रहने से मेधावी जनों द्वारा किया गया अध्ययन भी नष्ट हो जाता है । दुष्काल का अन्त हुआ । सारा साधु-संघ पाटलिपुत्र में मिला । जिस-जिस को जो अंग, अध्ययन, उद्देशक आदि स्मरण थे, उन्हें संकलित किया गया। बारहवें अग दृष्टिवाद का संकलन नहीं हो सका। संघ को चिन्ता हुई । आचार्य भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर थे। वे नेपाल में साधना कर रहे थे । श्रीसंघ ने उन्हें बुलाने के लिए दो मुनि भेजे।"' प्राचार्य हरिभद्र के प्राकृत उपदेश पद तथा आवश्यक चूर्णि में भी इसी तरह का वर्णन है। नीरनिधि अथवा समुद्र-तट पर साधुओं के जाने के उल्लेख से श्रमण-संघ के दक्षिणी समुद्र-तट या दक्षिण देश जाने की कल्पना की .१. इतश्च तस्मिन् दुष्काले, कराले कालरात्रिवत् । निर्वाहार्थं साधुसंवस्तीरं नीरनिधेर्ययौ ॥ प्रगुण्यमानं तु तदा, साधूनां विस्मृतं श्रुतम् । अनभ्यसनतो नश्यत्यधीतं धीमतामपि । संघोऽथ पाटलिपुत्रे, दुष्कालान्तेऽखिलोऽमिलत् । यदंगाध्ययनोद्देशाद्यासीद् यस्य तदादिकम् ॥ ततश्चैकादशाानि श्रीसंघोऽमेलयत्तदा । दृष्टिवादनिमित्त च, तस्थौ किंचिद् विचिन्तयन् ॥ नेपालदेशमार्गस्थं, भद्रबाहु च पूर्विणम् । ज्ञात्वा संघः समाह्वातु तत: प्रेषीन्मुनिद्वयम् ॥ -स्थविरावली चरितम् : ९५५-५६ जामो प्रतम्मि समये दुक्कालो दो य दसम वरिसारिण। सव्वो साहुसमूहो गयो तम्रो जलहितीरेसु ॥ तदुवरमे सो पुणरवि पाडलिपुत्ते समागमो विहिया । संघेणं सुयविसया चिंता कि कस्स प्रत्थे ति॥ जं जस्स प्रामि पासे उद्देसज्झयणमाइसंघडिउ । तं सव्वं एक्कारस्स मंगाई तहेव ठवियाई॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -आगम विचार ३१ जाती है । किन्तु, नीरनिधि से दक्षिणी समुद्र तट ही क्यों लिया जाए ? उससे बंगोपसागर (बंगाल की खाड़ी) भी लिया जा सकता है, जिस के तट पर उड़ीसा की एक लम्बी पट्टी अवस्थित है, जहां जैन धर्म का संचार हो चुका था । भद्रबाहु द्वारा पूर्वो की वाचना प्राचार्य भद्रबाहु के पास श्रीसंघ का प्रदेश पहुँचा। वे महाप्राण ध्यान की साधना में निरत थे । उनके लिए पाटलिपुत्र आ पाना सम्भव नहीं था । उससे उनकी साधना व्याहत होती थी । उन्होंने स्वीकृति दी कि वहां रहते हुए वे समागत अध्ययनार्थियों को पूर्वों को वाचना दे सकेंगे - प्रध्यापन करा सकेंगे। कहा जाता है, तदनुसार श्रीसंघ ने पन्द्रह सौ श्रमणों को नेपाल भेजा । उनमें पांच सौ विद्यार्थी श्रमण थे तथा प्रत्येक अध्ययनार्थी श्रमण के खान-पान आदि आवश्यक कार्यों की व्यवस्था, परिचर्या आदि के हेतु दो-दो श्रमण नियुक्त थे । इस प्रकार कुल एक हजार परिचारक श्रमण थे । प्राचार्य भद्रबाहु ने वाचना देना प्रारम्भ किया । उत्तरोत्तर वाचना चलते रहने में कठिनाई सामने आने लगी । दृष्टिवाद पूर्व ज्ञान की अत्यधिक दुरूहता व जटिलता तथा तदनुरूप ( तदपेक्ष) बौद्धिक क्षमता व धारणा-शक्ति की न्यूनताके कारण अध्ययनार्थी श्रमण परिश्रान्त होने लगे । अन्ततः वे घबरा गये । उनका साहस टूट गया । स्थूलभद्र के अतिरिक्त कोई भी श्रमण अध्ययन में नहीं टिक सका । स्थूलभद्र ने अपने अध्ययन का क्रम निरबाध चालू रखा । दश पूर्वो - का सूत्रात्मक तथा अर्थात्मक ज्ञान उन्हें अधिगत हो गया। आगे अध्ययन चल ही रहा था । इस बीच एक घटना घट गयी । उनकी -बहिनें जो साध्वियाँ थी, श्रमण भाई की श्रु ताराधना देखने के लिये आई | स्थूलभद्र इसे पहले ही जान गये । बहिनों को चमत्कार दिखाने के हेतु विद्या-बल से उन्होंने सिंह का रूप बना लिया । बहिनें भय से ठिठक गईं । स्थूलभद्र तत्क्षण असली रूप में आ गये । बहिनें चकित हो गयीं । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनागम दिग्दर्शन आचार्य भद्रबाहु ने सब कुछ जान लिया। वे विद्या के द्वारा बाह्य चमत्कार दिखाने के पक्ष में नहीं थे; अतः इस घटना से वे स्थूल भद्र पर बहुत रुष्ट हुये। आगे वाचना देना बन्द कर दिया । स्थूलभद्र ने क्षमा मांगी। बहत अनुनय-विनय किया। तब उन्होंने आगे के चार पूर्वो का ज्ञान केवल सूत्र रूप में दिया, अर्थ नहीं बतलाया । स्थूलभद्र को चतुर्दश पूर्वो का पाठ तो ज्ञात हो गया, पर, वे अर्थ दश ही पूर्वो का जान पाये; अतः उन्हें पाठ की दृष्टि से चतुर्दश पूर्वधर और अर्थ की दृष्टि से दश पूर्वधर कहा जा सकता है। इस प्रकार अर्थ की दृष्टि से भद्रबाहु के अनन्तर चार पूर्वो का विच्छेद हो गया। प्रथम वाचना के अध्यक्ष एवं निर्देशक ग्यारह अंगों का संकलन पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुआ। इसे प्रथम आगम-वाचना कहा जाता है। इसकी विधिवत् अध्यक्षता या नेतृत्व किसने किया, स्पष्ट ज्ञात नहीं होता । प्राचार्य भद्रबाहु विशिष्ट योग साधना के सन्दर्भ में नेपाल गये हुये थे; अतः उनका नेतृत्व तो सम्भव था ही नहीं। भद्रबाहु के बाद स्थूलभद्र की ही सब दृष्टियों से वरीयता अभिमत है। यह भी हो सकता है, प्राचार्य भद्रबाहु जब नेपाल जाने लगे हों, उन्होंने संघ का अधिनायकत्व स्थूलभद्र को सौंप दिया हो। अधिकतम यही सम्भावना है, प्रथम आगम-वाचना स्थूलभद्र के नेतृत्व में हुई हो। द्वितीय वाचना—माथुरी बाचना आवश्यक चूणि के अनुसार प्रागमों की प्रथम वाचना वीरनिर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई। उसमें ग्यारह अंग संकलित हए। गरु-शिष्य क्रम से वे शताब्दियों तक चालू रहे, पर, फिर वीरनिर्वाण के लगभग पौने सात शताब्दियों के पश्चात् ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि आगमों के पुनः संकलन का उद्योग करना पड़ा। कहा जाता है, तब बारह वर्षों का भयानक दुभिक्ष पड़ा। लोक-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। लोगों को खाने के लाले पड़ गये। श्रमणों पर भी उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। खान-पान, रहन-सहन, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागम विचार आदि की अनुकूलता मिट गयी। श्रामण्य में स्थिर रह पाना अत्यधिक कठिन हो गया। अनेक , श्रमण काल-कवलित हो गये। नन्दी चूणि में इस सम्बन्ध में उल्लेख है-ग्रहण, गुणन, अनुप्रेक्षा आदि के प्रभाव में श्रु त नष्ट हो गया। कुछ का कहना है, श्रु त नष्ट नहीं हुआ, अधिकांश श्रुत-वेत्ता नष्ट हो गये। हार्द लगभग समान ही है। किसी भी प्रकार से हो, श्रुत-शृंखला व्याहत हो गयी। दुर्भिक्ष का समय बीता। समाज की स्थिति सुधरी। जो श्रमण बच पाये थे, उन्हें चिन्ता हुई कि श्रुत का संरक्षण कैसे किया जाये ? उस समय प्राचार्य स्कन्दिल युग-प्रधान थे। उनका युगप्रधानत्व-काल इतिहास-वेत्ताओं के अनुसार वीर-निर्वाण ८२७-८४० माना गया है। नन्दी स्थविरावली में प्राचार्य स्कन्दिल का उलेल्ख भगवान् महावीर के अनन्तर चौवीसवें स्थान पर है। नन्दीकार ने उनकी प्रशस्ति में कहा है कि “आज जो अनुयोग-शास्त्रीय अर्थपरम्परा भारत में प्रवृत्त है, वह उन्हीं की देन है। वे परम यशस्वी थे। नगर-नगर में उनकी कीति परिव्याप्त थी।" नन्दी सूत्र देवद्धिगणी क्षमाश्रमण द्वारा विरचित माना जाता है। वे अन्तिम आगम-वाचना (तृतीय वाचना) के अध्यक्ष थे। देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने प्राचार्य स्कन्दिल के अनुयोग के भारत में प्रवृत्त रहने का जो उल्लेख किया है, उसका कारण यह प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने नेतृत्व में समायोजित वाचना में यद्यपि पिछली दोनों (माथुरी और वालभी) वाचनाओं को दृष्टिगत रखा था, फिर भी प्राचार्य स्कन्दिल की (माथुरी) वाचना को मुख्य आधार-रूप में स्वीकार किया था; अतः उनके प्रति आदर व्यक्त करने की दृष्टि से उनका यह कथन स्वाभाविक है। ___ मथुरा उस समय उत्तर भारत में जैन धर्म का मुख्य केन्द्र था। वहाँ प्राचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में आगम-वाचना का आयोजन हुआ। आगम-वेत्ता मुनि दूर-दूर से आये । जिन्हें जैसा स्मरण था, सब समन्वित करते हुए कालिक श्रु त संकलित किया गया । उस समय प्राचार्य स्कन्दिल ही एक मात्र अनुयोगधर थे। उन्होंने उपस्थित श्रमणों को अनुयोग की वाचना दी। यह वाचना मथुरा में दी गयी Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैनागम दिग्दर्शन थी; अतः 'माथुरी वाचना' कहलाई। इसका समय वही अर्थात् परिनिर्वाणाब्द ८२७ और ८४० के मध्य होना चाहिये, जो आचार्य स्कन्दिल का युगप्रवान-काल है। वालभी वाचना लगभग माथुरी वाचना के समय में ही वलभी-सौराष्ट्र में नागार्जुन सूरि के नेतृत्व में एक मुनि-सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसका उद्देश्य विस्मृत श्रु त को व्यवस्थित करना था। उपस्थित मनियों की स्मृति के आधार पर श्र तोद्धार किया गया। इस प्रकार जितना उपलब्ध हो सका, वह सारा वाङ्मय सुव्यवस्थित किया गया। नागार्जुन सूरि ने समागत साधुओं को वाचना दो। प्राचार्य नागार्जुन सूरि ने इस वाचना की अध्यक्षता या नेतृत्व किया। उनकी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी; यह नागार्जुनीय वाचना कहलाती है। वलभी की पहली वाचना के रूप में इसकी प्रसिद्धि है। एक ही समय में दो वाचनाएँ ? . कहा जाता है, उक्त दोनों वाचनाओं का समय लगभग एक ही है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि एक ही समय में दो भिन्न स्थानों पर वाचनाएँ क्यों आयोजित की गयीं ? वलभी में आयोजित वाचना में जो मुनि एकत्र हुए थे, वे मथुरा भी जा सकते थे। इसके कई कारण हो सकते हैं : १. उत्तर भारत और पश्चिम भारत के श्रमण-संघ में स्यात् किन्हीं कारणों से मतैक्य नहीं हो। इसलिए वलभी में सम्मिलित होने वाले मुनि मथुरा में सम्मिलित नहीं हुए हों। उनका उस (मथुरा में आयोजित) वाचना को समर्थन न रहा हो। २. मथुरा में होने वाली वाचना की गतिविधि, कार्यक्रम, पद्धति तथा नेतृत्व आदि से पश्चिम का श्रमण-संघ सहमत न रहा हो। ३. माथुरी वाचना के समाप्त हो जाने के पश्चात् यह वाचना आयोजित की गयी हो। माथुरी वाचना में हुआ कार्य पश्चिमी श्रमण संघ को पूर्ण सन्तोषजनक न लगा हो; अतः प्रागम एवं तदुप Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम विचार ३५ जीवी वाङमय का उससे भी उत्कृष्ट संकलन तथा सम्पादन करने का विशेष उत्साह उनमें रहा हो और उन्होंने इस वाचना की प्रायोजना की हो। फलतः इसमें कालिक श्रु त के अतिरिक्त अनेक प्रकरण-ग्रन्थ भी संकलित किये गये, विस्तृत पाठ वाले स्थलों को अर्थ-संगति पूर्वक व्यवस्थित किया गया। इस प्रकार की और भी कल्पनाएं की जा सकती हैं। पर इतना तो मानना होगा कि कोई-न-कोई कारण ऐसा रहा है, जिससे समसामयिकता या समय के थोड़े से व्यवधान से ये वाचनाएं आयोजित की गयीं। कहा जाता है, इन वाचनाओं में वाङमय लेख-बद्ध भी किया गया। दोनों वाचनाओं में संकलित साहित्य में अनेक स्थलों पर पाठान्तर या वाचना-भेद भी दृष्टिगत होते हैं। ग्रन्थ-संकलन में भी कुछ भेद रहा है। ज्योतिष्करण्डक की टीका' में उल्लेख है कि अनुयोगद्वार आदि सूत्रों का संकलन माथुरी वाचना के आधार पर किया गया। ज्योतिष्करण्डक आदि ग्रन्थ वालभी वाचना से गृहीत हैं। उपयुक्त दोनों वाचनाओं की सम्पन्नता के अनन्तर प्राचार्य स्कन्दिल और नागार्जुन सूरि का परस्पर मिलना नहीं हो सका। इसलिए दोनों वाचनाओं में संकलित सूत्रों में यत्र-तत्र जो पाठ-भेद चल रहा था, उसका समाधान नहीं हो पाया और वह एक प्रकार से स्थायी बन गया। तृतीय वाचना उपयुक्त दोनों वाचनाओं के लगभग डेढ शताब्दी पश्चात् अर्थात् वीर-निर्वाणानन्तर ६८०वें या ६६३वें वर्ष में वलभी में फिर उस युग के महान् आचार्य और विद्वान् देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में तीसरी वाचना आयोजित हुई। इसे वलभी की दूसरी १. पृ. ४१ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन वाचना' भी कहा जाता है। श्रुत-स्रोत की सतत प्रवहणशीलता के अवरुद्ध होने की कुछ स्थितियां पैदा हुई, जिससे जैन संघ चिन्तित हुआ। स्थितियों का स्पष्ट रूप क्या था, कुछ नहीं कहा जा सकता। पर, जो भी हो, इससे यह प्रतीत होता है कि श्रु त के संरक्षण के हेतु जैन संघ विशेष चिन्तित तथा प्रयत्नशील था। पिछली डेढ शताब्दी के अन्तर्गत प्रतिकूल समय तथा परिस्थितियों के कारण श्रु त-वाङमय का बहुत ह्रास हो चुका होगा। अनेक पाठान्तर तथा वाचना-भेद आदि का प्रचलन था ही; अतः श्रु त के पुनः संकलन और सम्पादन की प्रावश्यकता अनुभूत किया जाना स्वाभाविक था। उसी का परिणाम यह वाचना थी। पाठान्तरों, वाचना-भेदों का समन्वय, पाठ की एकरूपता का निर्धारण, अब तक असंकलित सामग्री का संकलन आदि इस वाचना के मुख्य लक्ष्य थे। सूत्र-पाठ के स्थिरीकरण या स्थायित्व के लिए यह सब अपेक्षित था। वस्तुतः यह बहुत महत्वपूर्ण वाचना थी। भारत के अनेक प्रदेशों से आगमज्ञ, स्मरण-शक्ति के धनी मुनिवृन्द आये। पिछली माथुरी और वालभी वाचना के पाठान्तरों तथा वाचना-भेदों को सामने रखते हुए समन्वयात्मक दृष्टिकोण से १. पिछली दोनों वाचनामों के साथ जिस प्रकार दभिक्ष की घटना जडी है, इस वाचना के साथ भी वैसा ही है। समाचारी शतक में इस सम्बन्ध में उल्लेख है कि बारह वर्ष के भयावह दुभिक्ष के कारण बहुत से साधु दिवंगत हो गये। बहुत-सा श्रत विच्छिन्न हो गया, तब भव्य लोगों के उपकार तथा श्रत को अभिव्यक्ति के हेतु श्रीसंघ के अनुरोध से देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने (९८. वीर निर्वाणाब्द) दुष्काल में जो बच सके, उन सब साधुनों को वलभी में बुलाया। विच्छिन्न, अवशिष्ट, न्यून, अधिक, खण्डित, अखण्डित प्रागमालापक उनसे सुन बुद्धिपूर्वक अनुक्रम से उन्हें संकलित कर पुस्तकारूढ़ किया। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागम विचार विचार किया गया। समागत विद्वानों में जिन-जिन को जैसा पाठ स्मरण था, उससे तुलना की गयी। इस प्रकार बहुलांशतया एक समन्वित पाठ का निर्धारण किया जा सका। प्रयत्न करने पर भी जिन पाठान्तरों का समन्वय नहीं हो सका, उन्हें टीकाओं, चूणियों आदि में संगृहीत किया गया। मूल और टीकाओं में इस ओर संकेत' किया गया है। जो कतिपय प्रकीर्णक केवल एक ही वाचना में प्राप्त थे, उन्हें ज्यों-का-त्यों रख लिया गया और प्रामाणिक स्वीकार कर लिया गया। पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं में संकलित वाङ्मय के अतिरिक्त जो प्रकरण-ग्रन्थ विद्यमान थे, उन्हें भी संकलित किया गया। यह सारा वाङमय लिपिबद्ध किया गया। इस वाचना में यद्यपि संकलन, सम्पादन आदि सारा कार्य तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक शैली से हुआ, पर, यह सब मुख्य आधार माथुरी वाचना को मान कर किया गया । आज अंगोपांगादि श्रु त-वाङमय जो उपलब्ध है, वह देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न वाचना का संस्करणरूप है। अंग-प्रविष्ट तथा अंग-बाह्य आगम-वाङमय को प्रणयन या प्रणेता की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है : १. अंग-प्रविष्ट तथा २. अंग-बाह्य । आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में अग अर्थात् अंग-प्रविष्ट तथा अनंग अर्थात् अंग-बाह्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है : 'गणधरकृत व स्थिविरकृत, आदेशसृष्ट (अर्थात् तीर्थंकर प्ररूपित त्रिपदी-जनित) व उन्मुक्त व्याकरण-प्रसूत (अर्थात् विश्लेषण-प्रतिपादनजनित) ध्र व नियत व चल-अनियत; इन द्विविध विशेषताओं से युक्त वाङमय अंग-प्रविष्ट तथा अंग-बाह्य नाम से अभिहित है।"२ गणधरकृत, आदेशजनित तथा ध्र व; ये १. वाचनान्तरे तु पुन:. नागार्जुनीयास्तु एवं पठन्ति' इत्यादि द्वारा सकेतिक । २. गणहरथेरकयं वा पाएसा मुक्कवागरणो वा। धुवचलविसेसमो वा अंगाणगेसु नाणत्त । -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५५० Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ जैनागम दिग्दर्शन विशेषण अंग प्रविष्ट से सम्बद्ध हैं तथा स्थविरकृत, उन्मुक्त व्याकरण प्रसूत और चल; ये विशेषण अंग बाह्य के लिये हैं । मलधारी हेमचन्द्र द्वारा व्याख्या प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने भाष्य की इस गाथा का विश्लेषण करते हुये लिखा है : गौतम आदि गणधरों द्वारा रचित द्वादशांग रूप श्र त अंगप्रविष्ट श्र त कहा जाता है तथा भद्रबाहु स्वामी आदि स्थविर-वृद्ध प्राचार्यों द्वारा रचित आवश्यक नियुक्ति प्रादि श्रुत अंगबाह्य श्रु त कहा जाता है। गणधर द्वारा तीन बार पूछे जाने पर तीर्थ कर द्वारा उद्गीर्ण उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य मूलक त्रिपदी के आधार पर निष्पादित द्वादशांग श्रु त अंगप्रविष्ट श्रु त है तथा अर्थ-विश्लेषण या प्रतिपादन के सन्दर्भ में निष्पन्न आवश्यक आदि श्रु त अंगबाह्य श्रु त कहा जाता है। ध्र व या नियत श्रु त अर्थात् सभी तीर्थ करो के तीर्थ में अवश्य होने वाला द्वादशांग रूप श्रत अंगप्रविष्ट श्रुत है तथा जो सभी तीर्थ करों के तीर्थ में अवश्य हो ही, ऐसा नहीं है, वह तन्दुलवैचारिक आदि प्रकरण रूप श्रु त अंगबाह्य श्रु त है। प्रा० मलयगिरि की व्याख्या नन्दी सूत्र की टीका में टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि ने अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य श्रत की व्याख्या करते हये लिखा है : "सर्वोत्कृष्ट श्रु तलब्धि-सम्पन्न गणधर रचित मूलभूत सूत्र, जो सर्वथा नियत हैं, ऐसे आचारांगादि अंगप्रविष्ट श्रुत हैं। उनके अतिरिक्त अन्य श्रुत-स्थविरों द्वारा रचित श्रु त अगबाह्य श्रु त है।" अंगबाह्य श्रु त दो प्रकार का है : (१) सामायिक आदि छः प्रकार का आवश्यक तथा (२) तद्व्यतिरिक्त। आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रु त दो प्रकार का है : (१).कालिक एवं (२) उत्कालिक । जो श्रुत रात तथा दिन के प्रथम प्रहर तथा अन्तिम प्रहर में ही पढ़ा जाता है, वह कालिक' श्रु त है तथा जो काल वेला को वजित कर सब समय पढ़ा १. जिसके लिये काल-विशेष में पढ़े जाने की नियामकता नहीं है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागम विचार ३६ जाता है, वह उत्कालिक श्रु त है। वह दशवैकालिक आदि अनेक प्रकार का है। उनमें से कतिपय ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं : १. कल्प-श्रु त, जो स्थविरादि कल्प का प्रतिपादन करता है। वह दो प्रकार का है-एक चुल्लकल्प श्रु त है,जो अल्प ग्रन्थ तथा अल्प अर्थ वाला है। दूसरा महाकल्प श्रु त है, जो महाग्रन्थ और महा अर्थ वाला है। २. प्रज्ञापना, जो जीव आदि पदार्थों की प्ररूपणा करता है। ३. प्रमादाप्रमाद अध्ययन, जो प्रमाद-अप्रमाद के स्वरूप का भेद तथा विपाक का ज्ञापन करता है। ४. नन्दी, ५. अनुयोगद्वार, ६. देवेन्द्रस्तव, ७. तन्दुलवैचारिक, ८. चन्द्रावेध्यक, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति, १०. पोरिषीमण्डल, ११. मण्डल - प्रवेश, १२. विद्याचारण, १३. गणिविद्या, १४. ध्यानविभक्ति, १५. मरण-विभक्ति, १६. प्रात्मविशुद्धि, १७. वीतराग-श्रु त, १८. संलेखना श्रु त, १६. विहारकल्प, २०. चरणविधि, २१. अातुर प्रत्याख्यान, २२. महाप्रत्याख्यान आदि । ये उत्कालिक श्रु त के अन्तर्गत हैं। कालिक श्रु त अनेक प्रकार का है : १. उत्तराध्ययन, २. दशाकल्प, ३. व्यवहार, ४. वृहत्कल्प. ५. निशीथ, ६. महानिशीथ, ७. ऋषिभाषित ग्रन्थ, ८. जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, ६. द्वीपसागर-प्रज्ञप्ति, १०. चन्द्र-प्रज्ञप्ति, ११. क्षुल्लकविमान-प्रविभक्ति, १२. महाविमान प्रविभक्ति, १३. अगचूलिका, १४. वर्गचूलिका, १५. विवाह-चूलिका, १६. अरुणोपपात, १७. वरुणोपपात, १८. गरुडोपपात, १६. धरणोपपात, २०. वैश्रमणोपपात, २१. वैलंधरोपपात, २२ देवेन्द्रोपपात, २३. उत्थान-श्रु त, २४. समुत्थान-श्रु त, २५. नाग-परिज्ञा, २६. निरयावलिया, २७. कल्पिका, २८ कल्पावतंसिका, २६. पुष्पिका, २० पुष्पचूला, ३१. वृष्णिदशा; इत्यादि चौरासी हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभ के समय में थे। संख्यात हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ बीच के बाईस तीर्थ करों के समय तथा चौदह हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवान् महावीर के समय में थे। जिस तीर्थ कर के औत्पातिकी प्रादि चार प्रकार की बुद्धि से युक्त जितने शिष्य थे, Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन उनके उतने हजार ग्रन्थ थे । प्रत्येकबुद्ध भी उतने ही होते थे । यह कालिक, उत्कालिक श्रुत 'गबाह्य कहा जाता है । ४० 'ग-प्रविष्ट: श्रंग बाह्य सम्यक्ता जैन दर्शन का तत्व ज्ञान जहाँ सूक्ष्मता, गम्भीरता, विशदता आदि के लिए प्रसिद्ध है, वहां उदारता के लिए भी उसका विश्ववाङ् मय में अनुपम स्थान है । वहां किसी वस्तु का महत्व केवल उसके नाम पर आधृत नहीं है, वह उसके यथावत् प्रयोग तथा फल पर टिका है। अंग-प्रविष्ट और प्रग- बाहय के सन्दर्भ में जिन शास्त्रों की चर्चा की गयी है, वे जैन परम्परा के मान्य ग्रन्थ हैं । उनके प्रति जैनों का बड़ा प्रादर है । इन ग्रन्थों की प्रादेयता और महनीयता इनको ग्रहण करने वाले व्यक्तित्व पर अवस्थित है । यद्यपि ये शास्त्र अपने स्वरूप की दृष्टि से सम्यक् श्रुत हैं, पर गृहीता की दृष्टि से इन पर इस प्रकार विचार करना होगा - यदि इनका गृहीता सम्यक् दृष्टि सम्पन्न या सम्यक्त्वी है, तो ये शास्त्र उसके लिए सम्यक् श्रुत हैं और यदि इनका गृहीता मिथ्यादृष्टि सम्पृक्त - मिथ्यात्वी है, तो ये मान्य ग्रन्थ भी उसके लिए मिथ्या श्रुत की कोटि में चले जाते हैं । इतना ही नहीं, जो जैन शास्त्र, जिन्हें सामान्यतः असम्यक् ( मिथ्या ) श्रत कहा जाता है, यदि सम्यक्त्वी द्वारा परिगृहीत होते हैं, तो वे उसके लिए सम्यक् श्रुत की कोटि में प्रा जाते हैं । इस तथ्य का विशेषावश्यक भाष्यकार ने तथा आवश्यक नियुक्ति के विवरणकार प्राचार्य मलयगिरि ने बड़े स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है । " १. ( क ) भगाणगं पविट्ठ सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छ्रयं । प्रासज्ज उ सामित्तं लोइय लोउत्तरे भयणा || - विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५३७( ख ) – सम्यक् श्रुतम् - - पुराण रामायण भारतादि, सर्वमेव वा दर्शनपरिग्रहविशेषात् सम्यक् श्रुतमितरद् वा, तथाहि-- सम्यग्दृष्टी सर्वमपि श्रुतं सम्यक् तम हेयोपादेयशास्त्राणां हेयोपादेयतया परिज्ञानात्, मिथ्यादृष्टो सवं मिध्याश्रुतम् विपर्ययात् । -- प्रावश्यक नियुक्तिः पृ० ४७, प्रका० प्रागमोदय समिति बम्बई Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागम विचार गृहीता का वैशिष्ट्य प्रत्येक पदार्थ अस्तित्व-धर्मा है । वह अपने स्वरूप में अधिष्ठित है, अपने स्वरूप का प्रत्यायक है । उसके साथ संयोजित होने वाले अच्छे बुरे विशेषण पर सापेक्ष हैं । अर्थात् दूसरों - अपने भिन्न-भिन्न प्रयोक्ताओं या गृहीताओं की अपेक्षा से उसमें सम्यक् या असम्यक् व्यवहार होता है । प्रयोक्ता या गृहीता द्वारा अपनी आस्था या विश्वास के अनुरूप प्रयोग होता है । यदि प्रयोक्ता का मानस विकृत है, उसकी आस्था विकृत है, विचार दूषित है, तो वह अच्छे से अच्छे कथित प्रसंग का भी जघन्यतम उपयोग कर सकता है; क्योंकि वह उसके यथार्थ स्वरूप का श्रं कन नहीं कर पाता । जिसे बुरा कहा जाता है, उसके गृहीता का विवेक उद्बुद्ध और प्रास्था सत्परायण है, तो उसके द्वारा उसका जो उपयोग होता है, उससे अच्छाइयाँ ही फलित होती हैं, क्योंकि उसकी बुद्धि सद्ग्राहिणी है । ૪ર जैन दर्शन का तत्व - चिन्तन इसी आदर्श पर प्रतिष्ठित है । यही कारण है कि प्रविष्ट श्रुत और प्रगबाह्य श्रुत जैसे प्रार्ष वाङ्मयको मिथ्या श्रुत तक कहने में हिचकिचाहट नहीं होती, यदि वे मिथ्यात्वी द्वारा परिगृहीत हैं । वास्तविकता यह है, जिसका दर्शनविश्वास मिथ्यात्व पर टिका है, वह उसी के अनुरूप उसका उपयोग करेगा अर्थात् उसके द्वारा किया गया उपयोग मिथ्यात्व - सम्वलित होगा । उससे जीवन की पवित्रता नहीं सधेगी । मिथ्यात्व - ग्रस्त व्यक्ति के कार्यकलाप श्रात्म-साधक न हो कर अनात्म परक होते हैं । इसलिये सम्यक् श्रुत भी उसके लिये मिथ्या श्रुत है । यही अपेक्षा सम्यष्टि द्वारा गृहीत मिथ्या श्रुत के सम्बन्ध में होती है । सम्यक्त्वी के कार्य-कलाप सम्यक् या श्रात्म-साधक, स्वपरिष्कारक तथा बुद्धिमूलक होते हैं। वह किसी भी शास्त्र का उपयोग अपने हित में कर लेता है । यह ठीक ही है, ऐसे पुरुष के लिये मिथ्या श्रुत भी सम्यक् श्रुत का काम करता है। जैन तत्व- चिन्तन का यह वह वरेण्य पक्ष है, जो प्रत्येक आत्म-साधक के लिए समाधान कारक है । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२. जैनागम दिग्दर्शन अंग प्रविष्ट तथा अंग बाह्य के रूप में जिन प्रागम-ग्रन्थों की चर्चा की गयी है, उनमें कुछ उपलब्ध नहीं हैं। जो उपलब्ध हैं, उनमें कुछ नियुक्तियों को सन्निहित कर श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ४५ आगम-ग्रन्थों को प्रमाण-भूत मानता है। वे अंग, उपांग, छेद तथा मूल आदि के रूप में विभक्त हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस प्रागम अंग-संज्ञा क्यों ? अर्थ रूप में (त्रि पद्यात्मकतया) तीर्थंकर प्ररूपित तथा गणधर ग्रथित वाङमय अंग वाङमय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसे अंग नाम से क्यों अभिहित किया गया? यह प्रश्न स्वाभाविक है। उत्तर भी स्पष्ट है। श्रुत की पुरुष के रूप में कल्पना की गयी। जिस प्रकार एक पुरुष के अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रु त-पुरुष के अंगों के रूप में बारह पागमों को स्वीकार किया गया। कहा गया है : "श्रु त-पुरुष के पादद्वय, जंघाद्वय, ऊरुद्वय, गात्र द्वय-देह का अग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग, बाहुद्वय, ग्रीवा तथा मस्तक (पाद २ + जंघा २ + ऊरु २ + गात्राद्ध २+बाह २+ ग्रीवा १+मस्तक १ = १२), ये बारह अंग हैं । इनमें जो प्रविष्ट हैं, अंगत्वेन अवस्थित हैं, वे आगम श्र त-पुरुष के अंग हैं।"१ बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छिन्न हो गया। इस समय ग्यारह अंग प्राप्त हैं। १. प्रायारांग (प्राचारांग) प्राचारांग में श्रमण के प्राचार का वर्णन किया गया है। यह दो श्रु त-स्कन्धों में विभक्त है। प्रत्येक श्रुत-स्कन्ध का अध्ययनों तथा १. इह पुरुषस्य द्वादश अगानि भवन्ति । तद्यथा-द्वौ पादो, द्वे जंघे, द्वे ऊरुणी, द्वे गात्रार्द्ध, द्वौ बाहू, ग्रीवा, शिरश्च एवं श्रुतपुरुषस्यापि परमपुरुषस्याचारादीनि द्वादशांगानि क्रमेण वेदितव्यानि । तथा चोक्तम् पायदुर्ग जंघोरु गाप्रदुगद्ध तु दो य बाहू य । गीवा सिरं च पुरिसो बारस अगेसु य पविट्ठो। श्रुतपुरुषस्यांगेषु प्रविष्ट मंगप्रविष्टम् । अंगभावेन व्यवस्थिते श्रुत भेदे "। --अभिधान राजेन्द्र, भाग १, पृ० ३८ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जैनागम दिग्दर्शन प्रत्येक अध्ययन का उद्देशों या चूलिकाओं में विभाजन है । प्रथम श्रु त-स्कन्ध में नौ अध्ययन एवं चौवालीस उद्देश हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तीन चूलिकाएं हैं, जो १६ अध्ययनों में विभाजित हैं। भाषा, रचना-शैली, विषय-निरूपण आदि की दृष्टि से यह स्पष्ट है कि प्रथम श्रुत-स्कन्ध बहुत प्राचीन है। अधिकांशतया यह गद्य में रचित है। बीच बीच में यत्र-तत्र पद्यों का भी प्रयोग हुअा है । अर्द्धमागधी प्राकृत के भाषात्मक अध्ययन तथा उसके स्वरूप के अवबोध के लिए यह रचना बहुत महत्वपूर्ण है। सातवें अध्ययन का नाम महापरिज्ञा निदिष्ट किया गया है, पर, उसका पाठ प्राप्त नहीं है। इसे व्युछिन्न माना जाता है। कहा जाता है, इसमें कतिपय चमत्कारी विद्याओं का समावेश था। लिपिबद्ध हो जाने से अधिकारी, अनधिकारी; सब के लिए वे सुलभ हो जाती हैं। अनधिकारी या अपात्र के पास उनका जाना ठीक न समझ श्री देवद्धिगणो क्षमाश्रमण ने आगम-लेखन के समय इस अध्ययन को छोड़ दिया। यह एक कल्पना है। वस्तुस्थिति क्या रही, कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है, बाद में इस अध्ययन का विच्छेद हो गया हो। ___ नवम उपधान अध्ययन में भगवान महावीर की तपस्या का मार्मिक और रोमांचकारी वर्णन वहां उनके लाढ़ (बर्दवान जिला), वज्रभूमि (मानभूम और सिंहभूम जिले) तथा शुभ्र भूमि (कोडरमा, हजारीबाग का क्षेत्र) में बिहार-पर्यटन तथा प्रज्ञ जनों द्वारा किये गये विविध प्रकार के घोर उपसर्ग-कष्ट सहन करने का उल्लेख किया गया है। भगवान् महावीर के घोर तपस्वी तथा अप्रतिम कष्ट सहिष्णु जीवन का जो लेखा-जोखा इस अध्ययन में मिलता है, वह अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है। द्वितीय श्रु तस्कन्ध : रचना : कलेवर द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में श्रमण के लिये निर्देशित व्रतों व तत्सम्बन्धी भावनाओं का स्वरूप, भिक्षु-चर्या, आहार-पानशुद्धि,शर यासंस्तरण-ग्रहण, विहार-चर्या, चातुर्मास्य-प्रवास, भाषा, वस्त्र, पात्र Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम ४५ आदि उपकरण, मल-मूत्र-विसर्जन आदि के सम्बन्ध में नियम-उपनियम आदि का विवेचन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि महाकल्पश्र त नामक प्राचारांग के निशीथाध्ययन की रचना प्रत्याख्यान पूर्व की तृतोय आचार-वस्तु के बीसवें प्राभूत के आधार पर हुई है । आचारांग वास्तव में द्वादशांगात्मक वाङमय में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। "अगाणं कि सारो ? आयारो" जैसे कथन इसके परिचायक हैं। दर्शन प्राचारांग का प्रारम्भ दर्शन के मूलभूत प्रश्न से होता है। वह मूलभूत प्रश्न है, आत्मा या अस्तित्ववाद। आचारांग प्रथम श्रु तस्कन्ध, प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में ही अस्तित्ववाद की संक्षिप्त, सुदृढ़ एवं मनोग्राही स्थापना की गई है। पाठक मूलस्पर्शी आनन्द की अनुभूति पा सकें तथा 'तन्दुल न्यायेन' समग्र प्राचारांग की भाव-भाषा का प्राभास भी पा सकें; अतः वह मौलिक प्रसंग यथावत् यहां समुद्ध त किया जा रहा है। "सुयं मे पाउसं ! ते रणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसि नो सण्णा भवइ, तंजहापुरस्थिमानो वा दिसानो आगो अहमंसि, दाहिरगाप्रो वा दिसानो आगो अहमंसि, पच्चत्थिमानो वा दिसाम्रो प्रागो अहमंसि, उत्तरानो वा दिसानो आगो अहमंसि, उड्ढामो वा दिसानो आगो अहमंसि, अहे वा दिसानो आगो अहम सि, प्रणयरीनो वा दिसाम्रो आगो अहमंसि, प्रण दिसानो वा पागनो अहमंसि।" आयुष्मन् ! मैंने सुना है । भगवान ने यह कहा-इस जगत् में कुछ मनुष्यों को यह संज्ञा नहीं होती, जैसे-मैं पूर्व दिशा से पाया हूं, १. प्राचारांग नियुक्ति, २६१ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैनागम दिग्दर्शन अथवा दक्षिण दिशा से आया हूं, अथवा पश्चिम दिशा से आया हूं, अथवा उत्तर दिशा से आया हूं, अथवा ऊर्ध्व दिशा से आया हूं, अथवा अघोदिशा से आया हूं, अथवा किसी अन्य दिशा से पाया हूं, अथवा अनुदिशा से आया हूं। . "एवमेगेसि यो रणातं भवति-अस्थि मे पाया प्रोववाइए, रगत्थि मे पाया प्रोववाइए, के अहं प्रासी ? के वा इनो चुनो इह पेच्चा भविस्सामि ?" __इसी प्रकार कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात नहीं होता-मेरी आत्मा पुनर्जन्म नहीं लेने वाली है, अथवा मेरो आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है। मैं पिछले जन्म में कौन था ? मैं यहां से च्युत होकर अगले जन्म में क्या होऊगा ? "सेज्जं पुरण जाणेज्जा-सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसि वा प्रतिए सोच्चा, तं जहापुरथिमानो वा दिसानो आगो अहमंसि, दक्खिरणाप्रो वा दिशाम्रो प्रागो अहमंसि, पच्चत्थिमाओ वा दिसाओ पागो अहमसि, उत्तरानो वा दिसानो आगो अहमंसि, उड्ढामो वा दिसानो आगो अहमंसि, अहे वा दिसानो आगो अहमंसि, अण्णयरीमो वा दिसानो आगो अहमंसि, अण दिसानो या आगो अहमंसि ।" कोई मनुष्य १. पूर्व जन्म की स्मृति से, २. पर (प्रत्यक्ष ज्ञानी) के निरूपण से, अथवा ३. अन्य (प्रत्यक्ष ज्ञानी के द्वारा श्रु त व्यक्ति) के पास सुनकर, यह जान लेता है, जैसे मैं पूर्व दिशा से आया हं, अथवा दक्षिण दिशा से आया हूं, अथवा पश्चिम दिशा से आया हूं, अथवा उत्तर दिशा से आया हूं, अथवा ऊर्ध्व दिशा से आया हूं, अथवा अधो दिशा से आया हूं, अथवा किसी अन्य दिशा से आया हूं, अथवा अनुदिशा से आया हं।। "एवमेगेसि जं रणातं भवइ-अस्थि मे आया अोववाइए। जो इमानो दिशाम्रो अणु दिसानो वा अण संचरइ, सव्वाप्रो दिसामो सव्वाप्रो अणु दिसायो जो प्रागग्रो अण संचरइ सोहं ।" Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस प्रागम इसी प्रकार कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात होता है- मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है, जो इन दिशाओं और अनुदिशाओं में अनुसंचरण करती है, जो सब दिशाओं और सब अनुदिशाओं से आकर अनुसंचरण करता है, वह मैं हूं। "से पायावाई, लोगवाई, कय्मवाई, किरियावाई।" ___ जो अनुसंचरण को जान लेता है, वहो आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है। भगवान् महावीर का अस्तित्ववाद मनुष्य व अन्य जंगम प्राणियों तक सीमित नहीं था। उसमें स्थावर प्राणियों के अस्तित्व को भी उतनी ही दृढ़ता से स्वीकारा गया है, जितना जंगम प्राणियों के अस्तित्व को। वहां पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीवन की भी मुक्त चर्चा है, जो लगभग जैन दर्शन की अपनी मौलिक मान्यता ही मानी जा सकती है। इसी आचारांग के वनस्पति निरूपण में कहा गया है : "से बेमि-अप्पेगे अंधमन्मे, अप्पेगे अंधमच्छे।" वनस्पतिकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल, अंघ,बधिर, मूक, पंगु और अवयव-हीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है। शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है। "अप्पेगे पायमन्मे, अप्पेगे पायमच्छे ।" इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पैर आदि का शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर उसे प्रकट करने में अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पति को होती है। "अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।" . . मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे जो कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ नागम दिग्दर्शन " से बेमि - इमपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं । sift बुढिधम्मयं एयंपि बुढिधम्मयं । इमपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । इमपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति । इमपि श्राहारगं, एयंपि श्राहारगं । इमपि णिच्चयं, एयंपि णिच्चयं । इमपि प्रसासयं, एयंपि प्रसासयं । sift चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं । इमपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं ।" मैं कहता हूं - मनुष्य भी जन्मता है, वनस्पति भी जन्मती है । मनुष्य भी बढ़ता है, वनस्पति भी बढ़ती है । मनुष्य भी चैतन्ययुक्त है, वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। मनुष्य भी छिन्न होने पर म्लान होता है, वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है । मनुष्य भी प्रहार करता है, वनस्पति भी प्रहार करती है । मनष्य भी अनित्य है, वनस्पति भी अनित्य है । मनुष्य भी प्रशाश्वत है वनस्पति भी अशाश्वत है । मनुष्य भी उपचित और अपचित होता है, वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है । मनुष्य भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है । व्याख्या - साहित्य आचारांग पर प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्युक्ति, श्री जिनदास गणी द्वारा चूर्ण, श्री शीलांकाचार्य द्वारा टीका तथा श्री जिनहंस सूरि द्वारा दीपिका की रचना की गयी । जैन वाङ् मय के प्रख्यात अध्येता डा० हर्मन जेकोबी ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा इसकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावना लिखी । प्रो० एफ० मैक्समुलर द्वारा सम्पादित 'Sacred Books of the East' नामक ग्रन्थमाला के अन्तर्गत २२ वें भाग में उसका प्राक्सफोर्ड से प्रकाशन हुआ । आचारांग के प्रथम श्रु-तस्कन्ध का प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो० वाल्टर शूविंग ने सम्पादन किया तथा सन् १६१० में लिप्जग से इसका प्रकाशन किया। आचार्य भद्रबाहुकृत नियुक्ति . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस आगम ४६ तथा प्राचार्य शीलांक रचित टीका के साथ सन् १९३५ में पागमोदय समिति, बम्बई द्वारा इसका प्रकाशन हुअा। २. सूयगडंग (सूत्रकृतांग) सूत्र कृतांग के नाम सूत्रकृतांग के लिए सूयगड, सुत्तकड तथा सूयागड; इन तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है । सूयगड या सुत्तकड का संस्कृत-रूप सूत्रकृत है। इसकी शाब्दिक व्याख्या इस प्रकार है :-अर्थरूपतया तीर्थङ्करों से सूत्र का उद्भव हया । उससे गणधरों द्वारा किया गया या निबद्ध किया गया ग्रन्थ । इस प्रकार सूत्रकृत शब्द का फलित होता है। अथवा सूत्र के अनुसार जिसमें तत्वावबोध कराया गया हो, वह सूत्रकृत है । सूयागड का संस्कृत रूप सूत्राकृत है । इसका अर्थ है-स्व और पर समय-सिद्धान्त का जिसमें सूचन किया गया हो,वह सूचाकृत या सूयागड है।। सूत्र का अर्थ भगवद्भाषित और कृत का अर्थ उसके आधार पर गणधरों द्वारा किया गया या रचा गया, इस परिधि में तो समस्त द्वादशांगी ही समाहित हो जाती है; अतः सूत्रकृतांग की ही ऐसी कोई विशेषता नहीं है । स्व-अपने, पर-दूसरों के समय-सिद्धान्तों या तात्विक मान्यताओं के विवेचन का जो उल्लेख किया गया है, वह महत्वपूर्ण है। वैसा विवेचन इसी आगम में है, अन्य किसी में नहीं। सूत्रकृतांग का स्वरूप : कलेवर दो श्रु त-स्कन्धों में विभक्त है। प्रथम श्रुत-स्कन्ध में सोलह तथा दूसरे में सात अध्ययन हैं। पहला श्रुत-स्कन्ध प्रायः पद्यों में १. सूयगडं अंगाणं, बितियं तस्स य इमाणि नामाणि।। सूयगडं सुत्तकडं, सूयागडं चेव गोणाई ॥२॥ सूत्रकृतमिति -एतदंगानां द्वितीयं तस्य चामून्येकाथिकानि, तद्यथासूत्रमुत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृद्भ्यः ततः कृतं ग्रन्थरचनया गणवरैरिति, तथा सूत्रकृतमिति सूत्रानुसारेण तत्वावबोधः क्रियतेऽस्मिन्निति, तथा सूचाकृतमिति स्वपरसमयार्थसूचनं सूचा सास्मिन् कृतेति । एतानि चास्य गुणनिष्पन्नानि नामानीति। -अभिधान राजेन्द्र; सप्तम भाग, पृ० १०२७. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन है। उसके केवल एक अध्ययन में गद्य का प्रयोग हुआ है। दूसरे श्रतस्कन्ध में गद्य और पद्य दोनों पाये जाते हैं। इस पागम में गाथा छन्द के अतिरिक्त इन्द्रवज्रा, वैतालिक, अनुष्टुप् आदि अन्य छन्दों का भी प्रयोग हुअा है। विभिन्न वादों का उल्लेख पंचभूतवाद, ब्रह्म कवाद-अद्वैतवाद या एकात्मवाद, देहात्मवाद, अज्ञानवाद, प्रक्रियावाद, नियतिवाद, अकर्तृत्ववाद, सद्वाद्, पंचस्कन्धवाद तथा धातुवाद आदि का प्रथम स्कन्ध में प्ररूपण किया गया है। तत्पक्षस्थापन और निरसन का एक सांकेतिक-सा, अस्पष्ट सा क्रम वहां है। इससे यह बहुत स्पष्ट नहीं होता कि उन दिनों अमुक-अमुक वाद किस प्रकार की दार्शनिक परम्पराएं लिये हुए थे। हो सकता है,इन वादों का तब तक किसी व्यवस्थित तथा परिपूर्ण दर्शन के रूप में विकास न हो पाया हो। इन वादों पर अवस्थित दार्शनिक परम्पराओं (schools of Philosophy) के ये प्रारम्भिक रूप रहे हों। श्रमणों द्वारा भिक्षाचार में सतर्कता, परिषहों के प्रति सहनशीलता, नरकों के कष्ट, साधुनों के लक्षण, ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षु तथा निर्ग्रन्थों जैसे शब्दों की व्याख्या, उदाहरणों तथा रूपकों द्वारा अच्छी तरह की गई है । उल्लिखित मतवादों की चर्चा सम्बन्धित व्याख्या-ग्रन्थों में विस्तार से भी मिलती है। द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में पर-मतों का खण्डन किया गया है। विशेषतः वहां जीव व शरीर के एकत्व, ईश्वरकर्तृत्व, नियतिवाद आदि की चर्चा है। प्रस्तूत श्रत-स्कन्ध में प्राहार-दोष, भिक्षा-दोष आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है । प्रसंगवश योग, उत्पाद, स्वप्न, स्वर, व्यंजन, स्त्री लक्षण आदि विषयों का भी निरूपण हुआ है। अन्तिम अध्ययन का नाम नालन्दीय है । इसमें नालन्दा में हुये गौतम गणधर और पापित्यिक उदक पेढ़ाल पुत्त का वार्तालाप है । अन्त में उदक पेढ़ाल पुत्त द्वारा चतुर्याम धर्म के स्थान पर पंच महाव्रत स्वीकार करने का वर्णन है। प्राचीन मतों, वादों और दृष्टिकोणों के अध्ययन के लिए तो यह श्रु ताँग महत्वपूर्ण है ही, भाषा की दृष्टि से भी विशेष प्राचीन Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ पैतालीस आगम सिद्ध होता है। भाषा-वैज्ञानिक भी इसमें अध्ययन की प्रचुर सामग्री पाते हैं। वर्शन और प्राचार सूत्रकृतांग का अदइज्जणाम (आर्द्र कीयाख्य) अध्ययन उस समय के विभिन्न मतवादों का संकेत देता है । सुन्दर घटना प्रसंग के साथ-साथ वहां अनेक दर्शन-पक्षों के प्राचार का सहजतया उद्घाटन हो जाता है । प्राककुमार आर्द्र कपुर के राजकुमार थे। उनके पिता ने एक बार अपने मित्र राजा श्रेणिक के लिए बहुमूल्य उपहार भेजे । उस समय आर्द्र ककुमार ने भी अभयकुमार के लिए उपहार भेजे। राजगृह से भी उनके बदले में उपहार आये । आर्द्र ककुमार के लिए अभयकुमार की ओर से जिन मूति के रूप में उपहार प्राया । उसे पाकर आर्द्र ककुमार प्रतिबुद्ध हुये । जाति-स्मरण ज्ञान के आधार से उन्होने दीक्षा ग्रहण की और वहां से भगवान महावीर की ओर विहार किया। मार्ग में एक-एक कर विभिन्न मतों के अनुयायी मिले। उन्होंने पाककुमार से धर्म-चर्चाएं की। आर्द्र ककुमार मुनि ने भगवान महावीर के मत का समर्थन करते हये सभी मतवादों का खण्डन किया । वह सरस चर्चा-प्रसंग इस प्रकार है। गोशालक-पाक ! मैं तुम्हें महावीर के विगत जीवन की कथा सुनाता हूं। वह पहले एकान्त विहारी श्रमण था । अब वह भिक्षु-संघ के साथ धर्मोपदेश करने चला हैं। इस प्रकार उस अस्थिरात्मा ने अपनी आजीविका चलाने का ढोंग रचा हैं । उनके वर्तमान और विगत के आचरण में स्पष्ट विरोध है। आर्द्र क मुनि-भगवान् महावीर का एकान्त-भाव अतीत, वर्तमान और भविष्य, इन तीनों कालों में स्थिर रहने वाला है। राग-द्वेष से रहित वे सहस्रों के बीच रहकर भी एकान्त-साधना कर रहे हैं । जितेन्द्रिय साधु वाणी के गुण-दोषों को समझता हुआ उपदेश दे, इसमें किंचित् भी दोष नहीं है । जो महाव्रत, अणुव्रत, प्रास्रव संवर आदि श्रमण-धर्मों को जानकर,विरक्ति को अपनाकर कर्म-बन्धन से दूर रहता है, उसे मैं श्रमण मानता हूँ। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन गोशालक-हमारे सिद्धांत के अनुसार कच्चा पानी पीने में, जीवादि धान्य के खाने में, उहिष्ट आहार के ग्रहण में तथा स्त्री-संभोग में एकान्त विहारी तपस्वी को कोई पाप नहीं लगता। आर्द्र क मुनि-यदि ऐसा है, तो सभी गृहस्थी श्रमण ही हैं, क्योंकि वे ये सभी कार्य करते हैं। कच्चा पानी पीने वाले, बीज-धान्य आदि खाने वाले तो केवल पेट भराई के लिए ही भिक्षु बने हैं। संसार का त्याग करके भी ये मोक्ष को पा सकेंगे, ऐसा मैं नहीं मानता। ___गोशालक-ऐसा कहकर तो तुम सभी मतों का तिरस्कार कर रहे हो ? आर्द्रक मुनि-दूसरे मत वाले अपने मत का बखान करते हैं और दूसरों की निन्दा । वे कहते हैं--तत्व हमें ही मिला है, दूसरों को नहीं। मैं तो मिथ्या मान्यताओं का तिरस्कार करता है, किसी व्यक्ति विशेष का नहीं। जो संयमी किसी स्थावर प्राणी को कष्ट देना नहीं चाहते, वे किसी का तिरस्कार कैसे कर सकते हैं ? गोशालक - तुम्हारा श्रमण उद्यान-शालाओं में, धर्मशालाओं में इसलिए नहीं ठहरता कि वहां अनेक तार्किक पण्डित, अनेक विज्ञ भिक्षु ठहरते हैं । उसे डर है कि वे मुझे कुछ पूछ बैठे और मैं उनका उत्तर न दे सक। आर्द्रक मुनि - भगवान् महावीर बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करते तथा वे बालक की तरह बिना विचारे भी कोई काम नहीं करते । वे राज-भय से भी धर्मोपदेशन हों करते, फिर दूसरे भय की तो बात ही क्या?वे प्रश्नों का उत्तर देते हैं और नहीं भी देते । वे अपनी सिद्धि के लिए तथा आर्य लोगों के उद्धार के लिए उपदेश करते हैं। वे सर्वज्ञ सुनने वालों के पास जाकर अथवा न जाकर धर्म का उपदेश करते हैं, किन्तु, अनार्य लोग दर्शन से भ्रष्ट होते हैं, इसलिए भगवान उनके पास नहीं जाते। - गोशालक-जैसे लाभार्थी वणिक् क्रय-विक्रय की वस्तु को लेकर महाजनों से सम्पर्क करता है, मेरी दृष्टि से तुम्हारा महावीर भी लाभार्थी वणिक् है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस आगम ५३ पाक मुनि-महावीर नवीन कर्म नहीं करते। पुराने कर्मों का नाश करते हैं । वे मोक्ष का उदय चाहते हैं, इस अर्थ में वे लाभार्थी हैं, यह मैं मानता हूं। वणिक तो हिंसा, असत्य, अब्रह्म आदि अनेक पाप-कर्म करने वाले हैं और उनका लाभ भी चार गति में भ्रमण रूप है । भगवान् महावीर जो लाभ अजित कर रहे हैं, उसकी आदि है. पर अन्त नहीं है । वे पूर्ण अहिंसक, परोपकारक और धर्म-स्थित हैं। उनकी तुलना तुम आत्म-अहित करने वाले वणिक के साथ कर रहे हो, यह तुम्हारे अज्ञान के अनुरूप ही है । बौद्ध मिक्षु बौद्ध भिक्षु-कोई पुरुष खली के पिण्ड को मनुष्य मानकर पकाये अथवा तुम्बे को बालक मानकर पकाये, तो वह हमारे मत के अनुसार पुरुष और बालक के वध का ही पाप करता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति पुरुष व बालक को खली व तुम्बा समझ कर भेदित करता है व पकाता है, तो वह पुरुष व बालक के वध करने का पाप उपाजित नहीं करता । साथ-साथ इतना और कि हमारे मत में वह पक्व मांस पवित्र और बुद्धों के पारणे के योग्य है। आर्द्र ककुमार ! हमारे मत में यह भी माना गया है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन दो सहस्र स्नातक (बोधि सत्व) भिक्षुओं को भोजन कराता है, वह देवगति में आरोग्य नामक सर्वोत्तम देव होता है। पाककुमार-इस प्रकार प्राण-भूत की हिंसा करना और उसमें पाप का अभाव कहना, संयमी पुरुष के लिए उचित नहीं है। इस प्रकार का जो उपदेश देते हैं और जो सुनते हैं, वे दोनों ही प्रकार के लोग अज्ञान और अकल्याण को प्राप्त करने वाले हैं। जिसे प्रमादरहित होकर संयम और अहिंसा का पालन करना है और जो स्थावर व जंगम प्राणियों के स्वरूप को समझता है, क्या वह कभी ऐसी बात कह सकता है ? जो तुम कहते हो ? बालक को तुम्बा समझकर और तुम्बे को बालक समझकर पका ले, क्या यह कोई होने वाली बात हैं ? जो ऐसा कहते हैं, वे असत्य-भाषी और अनार्य हैं। .. मन में तो बालक को बालक समझना और ऊपर से उसे तुम्बा Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ जैनागम दिग्दर्शन कहना, क्या यह संयमी पुरुष के लक्षण हैं ? स्थूल और पुष्ट भेड़ को मारकर, उसे अच्छी तरह से काटकर, उसके मांस में नमक डालकर, तेल में तल कर,पिप्पली आदि द्रव्यों से बघार कर तुम्हारे लिए तैयार करते हैं; उस मांस को तुम खाते हो और यह कहते हो कि हमें पाप नहीं लगता; यह सब तुम्हारे दुष्ट स्वभाव तथा रस-लंपटता का सूचक है। इस प्रकार का मांस कोई अनजान में भी खाता है, वह पाप करता है; फिर यह कहकर कि हम जान कर नहीं खाते; इसलिए हमें दोष नहीं है, सरासर झूठ नहीं तो क्या है ? प्राणि-मात्र के प्रति दया-भाव रखने वाले, सावद्य दोषों का वर्जन करने वाले ज्ञातपुत्रीय भिक्षु दोष की आशंका से उद्दिष्ट भोजन का ही विवर्जन करते हैं। जो स्थावर और जंगम प्राणियों को थोड़ी भी पीड़ा हो, ऐसा प्रवर्तन नहीं करते हैं, वे ऐसा प्रमाद नहीं कर सकते । संयमी पुरुष का धर्म-पालन इतना सूक्ष्म है। जो व्यक्ति प्रतिदिन दो-दो सहस्र स्नातक भिक्षुत्रों को भोजन खिलाता है, वह तो पूर्ण असंयमी है । लोही से सने हाथ वाला व्यक्ति इस लोक में भी तिरस्कार का पात्र है, उसके परलोक में उत्तम गति की तो बात ही कहां ? जिस वचन से पाप को उत्तेजन मिलता है, वह वचन कभी नहीं बोलना चाहिए। तथाप्रकार की तत्त्व-शुन्य वाणी गुणों से रहित है। दीक्षित कहलाने वाले भिक्षुओं को तो वह कभी बोलनी ही नहीं चाहिए। हे भिक्षुग्रो ! तुमने ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त किया है और जीवों के शुभाशुभ कर्म-फल को समझा है । सम्भवतः इसी विज्ञान से तुम्हारा यश पूर्व व पश्चिम समुद्र तक फैला है और तुमने ही समस्त लोक को हस्तगत पदार्थ की तरह देखा है ? वेदवादी ब्राह्मण वेदवादी-जो प्रतिदिन दो सहस्र स्नातक ब्राह्मणों को भोजन खिलाता है, वह पुण्य की राशि एकत्रित कर देव-गति में उत्पन्न होता है, ऐसा हमारा वेद-वाक्य है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस आगम पाक मुनि-मार्जार की तरह घर-घर भटकने वाले दो हजार स्नातकों को जो खिलाता है,मांसाहारी पक्षियों से परिपूर्ण तथा तीव्र वेदनामय नरक में जाता है। दया-प्रधान धर्म की निन्दा और हिंसा प्रधान धर्म की प्रशंसा करने वाला मनुष्य एक भी शोल रहित ब्राह्मण को खिलाता है, तो वह अन्धकारयुक्त नरक में भटकता है। उसे देव-गति कहां है ? प्रात्मावतवादी प्रात्माद्वैतवादी-पाक मुनि ! अपने दोनों का धर्म समान है । वह भूत में भी था और भविष्य में भी रहेगा । अपने दोनों धर्मों में प्राचार प्रधान शील तथा ज्ञान को महत्व दिया गया है। पुनर्जन्म की मान्यता में भी कोई भेद नहीं है। किन्तु हम एक अव्यक्त, लोकव्यापी, सनातन, अक्षय और अव्यय आत्मा को मानते हैं। वह प्राणिमात्र में व्याप्त है, जैसे-चन्द्र तारिकाओं में। आर्द्र क मुनि - यदि ऐसा ही है, तो फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व दास, इसी प्रकार कीड़े, पंखी, सर्प, मनुष्य व देव आदि भेद ही नहीं रहेंगे और वे पृथक्-पृथक् सुख-दुःख भोगते हुये इस संसार में भटकेंगे भी क्यों ? परिपूर्ण कैवल्य से लोक को समझे बिना जो दूसरों को धर्मोपदेश करते हैं,वे अपना और दूसरों का नाश करते हैं । परिपूर्ण कैवल्य से लोक-स्वरूप को समझकर तथा पूर्ण ज्ञान में समाधियुक्त बन कर जो धर्मोपदेश करते हैं, वे स्वयं तर जाते हैं और दूसरों को भी तार लेते हैं। इस प्रकार तिरस्कार योग्य ज्ञान वाले आत्माद्वैतवादियों को और सम्पूर्ण ज्ञान,दर्शन,चारित्र युक्त जिनों को अपनी समझ में समान बतला कर हे आयुष्मन् ! तू अपनी ही विपरीतता प्रकट करता है । हस्ती तापस हस्ती तापस-हम एक वर्ष में एक बड़े हाथी को मारकर अपनी आजीविका चलाते हैं। ऐसा हम अन्य समस्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा बुद्धि रखते हुये करते हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन पाक मुनि--एक वर्ष में एक ही प्राणो मारते हो और फिर चाहे अन्य जीवों को नहीं भी मारते, किन्तु इतने भर से तुम दोष मुक्त नहीं हो जाते । अपने निमित्त एक ही प्राणी का वध करने वाले तुम्हारे और गृहस्थों में थोड़ा ही अन्तर है। तुम्हारे जैसे आत्म-अहित करने वाले मनुष्य कभो केवल-ज्ञानी नहीं हो सकते। तथारूप स्वकल्पित धारणाओं के अनुसरण करने की अपेक्षा जिस मनुष्य ने ज्ञानी के आज्ञानुसार मोक्ष मार्ग में मन, वचन, काया से अपने आपको स्थित किया है तथा जिसने दोषों से अपनी आत्मा का संरक्षण किया है और इस संसार-समुद्र को तैरने के साधन प्राप्त किये हैं, वही पुरुष दूसरों को धर्मोपदेश दे। व्याख्या-साहित्य प्राचार्य भद्रबाहु ने सूत्रकृतांग पर नियुक्ति की रचना की। आचार्य शीलांक ने वाहरि गणी के सहयोग से टीका लिखी । चूणि भी लिखी गयी । श्री हर्षकुल और श्री साधुरंग द्वारा दीपिकानों की रचना हयी । डा० हर्मन जेकोबी ने अंग्रेजी में अनुवाद किया जो Sacred Books of the East के पैंतालीसवें भाग में आक्सफोर्ड से प्रकाशित हुआ। . ३. ठारणांग (स्थानांग) - दश अध्ययनों में यह श्र तांग विभाजित है। इसमें ७८३ सूत्र हैं । उपर्युक्त दो श्रु तांगों से इसकी रचना भिन्न कोटि की है। इसके प्रत्येक अध्ययन में, अध्ययन की संख्या के अनुसार वस्तु-संख्यायें गिनाते हुये वर्णन किया गया है । एक लोक, एक अलोक, एक धर्म, एक अधर्म, एक दर्शन, एक चरित्र, एक समय आदि । इसी प्रकार दूसरे अध्ययन में उन वस्तुओं की गणना और वर्णन आया है, जो दो-दो हैं- जैसे दो क्रियायें आदि । इसी क्रम में दशवें अध्ययन तक यह वस्तुभेद और वर्णन दश की संख्या तक पहुंच गया है । इस कोटि की वर्णन-पद्धति की दृष्टि से यह श्रु तांग पालि बौद्ध ग्रन्थ अगुत्तर निकाय से तुलनीय है। नाना प्रकार के वस्तु-निर्देश अपनी-अपनी दृष्टि से बड़े महत्व के हैं । उदाहरणार्थ, ऋक्, यजुष और साम, ये तीन वेद बतलाये Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस आगम गये हैं। धर्म-कथा, अर्थ-कथा और काम-कथा, तीन प्रकार की कथाओं का उल्लेख है । वृक्ष तीन प्रकार के बतलाये गये हैं। भगवान् महावीर के तीर्थ-धर्म संघ में हुये सात निह नवों (धर्मशासन से विमुख और अपलापक - विपरीत प्ररुपणा करने वालों) की भी चर्चा पाई है। भगवान् महावीर के तीर्थ में (जिन नौ पुरुषों ने तीर्थंकरगोत्र बांधा, यथाप्रसंग उनका भी उल्लेख है। इस प्रकार संख्यानुक्रम के आधार पर इसमें विभिन्न विषयों का वर्णन प्राप्त होता है, जो अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। दर्शन-पक्ष एक प्रकार से प्रारम्भ कर दश प्रकार तक के मूर्त-अमूर्त भावों का जहां दिग्दर्शन है, वहां दर्शन का भी कौन-सा विषय अछूता रह सकता है ? मूल में जहां संकेत है, व्याख्या-ग्रन्थों में उन्हीं संकेत-सूत्रों पर विस्तृत चर्चा भी है । ठाणांग में हेतुवाद का भी निरूपण है। वह न्याय विषय का सूचन-मात्र है। वहाँ हेतु, प्रमाण और हेत्वाभासों को एक ही संज्ञा से अभिहित किया गया है। व्याख्याकारों ने उन पर यथावस्थित प्रकाश डाला है। स्थानांग का प्रतिपादन निम्नोक्त क्रम से है : .. हेउ चउन्विहे पण्णत्ते, तंजहा-जावए, थावए, वंसए, लूसए। हेतु चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-यापक, स्थापक, व्यंसक और लूषक । ___ अहवा हेउ चउविहे पण्णत तंजहा-पच्चक्खे, अणुमारणे, प्रोवम्मे, आगमे। ___अथवा हेतु चार प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-प्रत्यक्ष, अनुमान, प्रौपम्य, आगम । _अहवा हेउ चउविहे पण्डत्ते, तंजहा-अस्थि ते अस्थि, अत्थि ते पत्थि, रणत्थित्त अत्थि. पत्थित रणत्थि। . तात्पर्य यह है, तो वह भी है। यह है, तो वह नहीं है। यह नहीं, तो वह है। यह नहीं, तो वह भी नहीं है । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन प्रमाण एवं हेतु तत्त्व से परिचित विद्वानों के लिए उक्त तीनों ही प्रकार के हेतुवाद सहज-गम्य हैं। उदाहरण मात्र के लिए केवल प्रथम चार भेदों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जोकि कथाक्रम के साथ बहुत ही सरस एवं सुगम बन गये हैं । ५८ 1 यापक हेतु - जिस हेतु से वादी काल यापन करता है । विशेषणों व बकोक्तियों से सामान्य बात को भी लम्बा कर ऐसा किया जाता है । वस्तुस्थिति को समझने में तथा उत्तरित करने में प्रतिवादी को भी समय लगता है । इस तरह व्यर्थ का कालयापन करके वादी अपना फलित सिद्ध करता है । इस हेतु पर कथा तक है- किसी कुलटा स्त्री ने अपने भद्र पति से कहा, आज कल ऊंट के 'मींगरणे' बाजार में बहुत मंहगे हो गये हैं। एक-एक मींगणा एक-एक रूप्यक में बिकता है। तुम मींगणे लेकर बाजार जाओ और यथा - भाव बेचकर द्रव्यार्जन करो | पति बाजार गया । मींगणों के भाव पूछता रहा । कुलटा पत्नी ने अपना उतना समय अपने अन्य प्रेमी के साथ बिताया । स्थापक हेतु -जो हेतु अपने साध्य की अविलम्ब स्थापना कर देता है, वह स्थापक हेतु है । जैसे - " वन्हिमान् पर्वतोऽयं धूमत्वात् " यह पर्वत अग्निमान् है; क्योंकि धुंआ दीख रहा है । साध्य की अविलम्ब स्थापना के लिए उदाहरण दिया गया है - कोई धूर्त परिव्राजक प्रत्येक गांव में जाकर कहता है, पृथ्वी के मध्य भाग में दिया गया दान बहुत ही फलवान् होता है । तुम्हारा गांव ही मध्य भाग है । यह तथ्य मैं ही जानता हूं, अन्य कोई नहीं । किसी अन्य भद्र परिव्राजक ने इस माया जाल को तोड़ने के लिए ग्रामवासियों के बीच यह कहना प्रारम्भ किया - परिव्राजक ! पृथ्वी का बीच तो कोई एक ही स्थान हो सकता है । तुम तो सभी गावों में यही कहते आ रहे हो । भद्र परिव्राजक के इतना कहते ही सारा माया जाल टूट गया । पृथ्वी का केन्द्र तो कोई एक ही स्थान हो सकता है, तत्काल यह सब के समझ में आ गया। हेतु साध्य को सिद्धि में सफल हो गया ।। व्यंसक हेतु – प्रतिपक्षी को व्यामुग्ध कर देने वाला हेतु व्यंसक हेतु है । जैसे - " अस्ति जीवः, प्रस्ति घटः" की स्थापना पर कोई कह Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस आगम ५६ दे, अस्तित्व धर्म दोनों में समान है; अतः जीव और घट एक ही हो गये अर्थात् जीव भी चेतन, घट भी चेतन । तथारूप व्यामुग्धता व्यंसक हेत है। उदाहरण में बताया गया है-एक गाड़ीवान अरण्य से जा रहा था। मार्ग में उसने एक तित्तिरी पकड़कर गाड़ी में रख ली। किसी नगर में पहुंचा। एक धूर्त ने कहा- शकटतित्तिरी का क्या मोल हैं ? गाड़ीवान् ने समझा, गाड़ी में स्थित तित्तिरी के लिए पूछ रहा है। उसने कहा- इसका मोल तर्पणालोडिका अर्थात् जल मिश्रित सक्तु है । धूर्त शकट-सहित तित्तिरी लेकर चलने लगा। गाडीवान् झगड़ने लगा, तो धूर्त ने कहा- मैंने तो शकट-तित्तिरी अर्थात् शकट सहित तित्तिरी का मोल ही पूछा था। शाकटिक बेचारा व्यामुग्ध रहा । धूर्त शकट और तित्तिरी लेकर चलते बना । यह है, व्यंसक हेतु । __ लूषक हेतु-धूर्त द्वारा प्रापादित अनिष्ट का निराकरण करने वाला लूषक हेत है। जैसे-छला गया शाकटिक किसी अन्य धूर्त से वितर्क सीख कर शकट-अपहर्ता के घर जाता है और कहता हैशकट-तित्तिरी का मेरा मोल तर्पण-लोडिका तो दो । धूर्त ने अपनी पत्नी से कहा-सक्तु घोल कर इसे दे दो। पत्नी घोलने बैठी, तो शाकटिक पत्नी को ही बांह पकड़कर ले जाने लगा। धूर्त ने कहायह क्या कर रहे हो ? शाकटिक ने कहा-तर्पणा-लोडिका को ही तो ले जा रहा हूं। यह तो मेरे मोल में आई है; अतः मेरी पत्नी है । सक्त घोलती हुई स्त्री भी तो तर्पणा-लोडिका होती है। बात दोनों ओर से टकरा गई तो धूर्त ने कहा-शाकटिक ! तुम तुम्हारी शकटतित्तिरी ले जाओ। मेरी पत्नी मेरे पास रहने दो। इस प्रकार व्यसक हेतु का निराकरण ही लूषक हेतु माना गया है। व्याख्या-साहित्य प्राचार्य अभयदेवसूरि (सन् १०६३) ने स्थानांग पर टीका लिखी है। प्राचारांग,सूत्रकृतांग तथा दृष्टिवाद (जो उपलब्ध नहीं हैं) के अतिरिक्त शेष नौ अगों पर उनकी टीकायें हैं । वे नवांगी टीकाकार कहलाते हैं । प्राचार्य अभयदेव ने टीकाकार के उत्तरदायित्व Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जैनागम दिग्दर्शन निर्वाह की कठिनाइयों का उसमें जो वर्णन किया है, उससे उस समय की शास्त्रावस्थिति ज्ञात होती है। वे लिखते हैं "शास्त्राध्येत - सम्प्रदायों के नष्ट हो जाने, सद ऊह, सद् विवेक, सद्वितर्कणा के वियोग, सब विषयों के विवेचनपरक शास्त्रों की अस्वायत्तता, स्मरण-शक्ति के अभाव, वाचनाओं के अनेकत्व, पुस्तकों के अशुद्ध पाठ, सूत्रों की अति गम्भीरता तथा कहीं-कहीं मतभेद; आदि कारणों से त्रुटियां रह जाना सम्भावित है। विवेकशील व्यक्तियों ने शास्त्रों का जो अर्थ स्वीकार किया है, वही हमारे लिए ग्राह्य है, दूसरा नहीं। प्राचार्य अभयदेव ने प्रागे उल्लेख किया है कि इन सब कठिनाइयों के होते हुए भी श्री द्रोणाचार्य आदि के सहयोग से उन्होंने इसकी टीका की रचना की है। प्राचार्य नागर्षि द्वारा स्थानांग पर दीपिका की रचना की गयी। ४. समवायांग समवायॐ का अर्थ समूह या समुदाय होता है। इसका वर्णनक्रम स्थानांग जैसा है । स्थानांग में एक से दस तक संख्यायें पहुँचती हैं, जबकि इसमें वे संख्यायें एक से प्रारम्भ होकर काटानुकोटि (कोडाकोडी) तक जाती हैं । समवायांग में बारह अंगों तथा उनके विषयों का उल्लेख है । संख्या क्रमिक वर्णन के अन्तर्गत यथा-प्रसंग १. सम्प्रदायो गुरुक्रमः । २. सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्चमे ॥ वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ।। ऊरणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तेऽनुगतो योऽर्थः सोऽस्मद्ग्राह्यो न चेतरः ।।---४६६ पृ० ३. दुवालसंगे गणिपिडिए पन्नत्त । तं जहा-पायारे, सूयगडे, ठाणे, समवाए, विवाहपन्नती, णायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसामो, अणुत्तरोववाइयदसामो, पण्हावागरणाई, विवागसुए, दिट्ठिवाए । से किं तं पायारे ? आयारेणं समणाणं निग्गंथाणं माहिज्जइ ॥ -समवायांग सूत्र; द्वादशांगाधिकार, पृ० २३१-३२ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम आचारांग के प्रथम श्रु त-स्कन्ध के नौ अध्ययनों, सूत्रकृतांग के प्रथम श्रत-स्कन्ध के सोलह अध्ययनों, णायाधम्मकहाओ के प्रथम श्र तस्कन्ध के उन्नीस अध्ययनों, दृष्टिवाद के कतिपय सूत्रों का त्रैराशिका सूत्र-पद्धति से रचे जाने, उत्तराध्ययन के छतीस अध्ययनों तथा चौवालीस ऋषि भाषित अध्ययनों, अन्तिम रात्रि में भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित पचपन अध्ययनों तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के चौरासी हजार पदों आदि का इसमें उल्लेख हैं। नन्दी सूत्र की भी इसमें चर्चा है। इन उल्लेखों से ऐसा प्रकट होता है कि द्वादशांग के सूत्र-बद्ध हो जाने के पश्चात् इसका लेखन हुआ। वर्णन-क्रम समवायांग में कुलकरों, चौवीस तीर्थंकरों, चक्रवतियों, बलदेवों एवं वासुदेवों का, उनके माता-पिता, जन्मस्थान आदि का नामानुक्रम से वर्णन किया गया है। उत्तम शलाका, पुरुषों की संख्या चौवन (तीर्थंकर २४, चक्रवर्ती १२, बासुदेव ६, बलदेव +-५४) दी गई हैं, तिरेसठ नहीं। वहां प्रतिवासुदेवों को शलाका पुरुषों में नहीं लिया गया है। इससे यह सम्भावित प्रतीत होता है कि उन्हें बाद में शलाका पुरुषों में स्वीकार किया गया हो। यह सारा वर्णन समवायांग के जिस अंश में है, उसे एक प्रकार से संक्षिप्त जैन पुराण की संज्ञा दी जा सकती है । जैन पुराणों के उपजीवक के रूप में निश्चय ही इस भाग का बड़ा महत्व है। भगवान् ऋषभ को यहां कौशलीय तथा भगवान महावीर को वैशालीय कहा गया है, इससे भगवान् महावीर के वैशाली के नागरिक होने का तथ्य पुष्ट होता है। समवायांग में लेख, गणित, रूपक, नाट्य, गीति, वाद्ययंत्र आदि बहत्तर कलाओं का वर्णन है। ब्राह्मी लिपि आदि अठारह लिपियों तथा ब्राह्मी के छयालीस मातृका-अक्षरों की चर्चा है । इस पर प्राचार्य अभयदेवसूरि की टीका है। ५. विवाह-पण्णत्ति (व्याख्या-प्रज्ञप्ति) जीव-अजीव आदि पदार्थों की विशद, विस्तृत व्याख्या होने १. मंखलिपुत्र गोशालक का मत Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैनागम दिग्दर्शन के कारण हुए अंग का नाम व्याख्या-प्रज्ञप्ति है। संक्षेप में भगवती सूत्र भी कहा जाता है। इसमें इकतालीस शतक हैं। प्रत्येक शतक अनेक उद्देशों (उद्देशकों) में बंटा हुअा है । प्रथम से आठ तक, बारह से चौदह तक तथा अठारह से बीस तक के शतकों में से प्रत्येक में दश-दश उद्देशक हैं । इसके अतिरिक्त अवशिष्ट शतकों में उद्देशों की संख्याए न्यूनाधिक पाई जाती हैं। पन्द्रहवें शतक का उद्देशों में विभाजन नहीं है। उसमें मंखलिपुत्र गोशालक का चरित्र है। यह अपने आप में एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है। व्याख्या-प्रज्ञप्ति का सूत्र-क्रम से भी विभाजन प्राप्त होता है इसमें कुल सूत्र-संख्या ८६७ है। वर्णन-शैली व्याख्या-प्रज्ञप्ति की वर्णन-शैली प्रश्नोत्तर के रूप में है। गणघर गौतम जिज्ञासु-भाव से प्रश्न उपस्थित करते हैं और भगवान् महावीर उनका उत्तर देते हैं या समाधान करते हैं। टीकाकार आचार्य अभयदेवसूरि ने इन प्रश्नोंत्तरो की संख्या छत्तीस हजार बतलाई है। उन्होंने पदों की संख्या दो लाख अठासी हजार दी है। इसके विपरीत समवायांग में पदों की संख्या चौरासी हजार तथा नन्दी में एक लाख चौतालीस हजार बतलाई गयी है। कहीं-कहीं प्रश्नोत्तर बहुत छोटे-छोटे हैं । उदाहरणार्थप्रश्न- भगवन् ! ज्ञान का फल क्या है ?, उत्तर - विज्ञान । १. वि विविधाः-जीवाजीवादिप्रचुरपदार्थविषयाः, प्रा-अभिविधिना कथंचिनिखिलज्ञेयव्याप्त्या मर्यादया, वा-परस्परासंकीर्णलक्षणाभि - धानरूपयाझ्याः ख्यानानि-भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयाप्रतिप्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ताः प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानमभियस्याम् ।। ...."अथवा विवाहा-विविधा विशिष्टा वाऽर्थप्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते प्रबाध्यन्ते वा यस्याम्....... -अभिधान राजेन्द्र; षष्ठ भाग, पृ० १२३८. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पंतालीस आगम प्रश्न- विज्ञान का फल क्या है ? उत्तर-प्रत्याख्यान । प्रश्न- प्रत्याख्यान का फल क्या है ? उत्तर-संयम । कहीं-कहीं वैसे प्रश्नोत्तर भी हैं जिनमें पूरा शतक ही आ गया है। मंखलिपुत्र गौशालक के वर्णन से सम्बद्ध पन्द्रहवां शतक इसका उदाहरण है। जैन धर्म का विश्वकोश प्रश्नोत्तर-क्रम के मध्य जैन तत्वज्ञान, इतिहास, अनेकानेक घटनाओं तथा विभिन्न व्यक्तियों का वर्णन, विवेचन इतना विस्तत हो गया है कि उनसे सम्बद्ध अनेक पहलओं का व्यापक ज्ञान प्राप्त होता है । इस अपेक्षा से इसे प्राचीन जैन ज्ञान का विश्वकोश (Encyclopaedia) कहना अतिरंजन नहीं होगा। अन्य ग्रन्थों का सूचन विस्तार में जाते हुए विवरण को संक्षिप्त करने के निमित्त स्थान-स्थान पर प्रज्ञापना, जीवाभिगम, औपपातिक व नन्दी जैसे ग्रन्थों का उल्लेख करते हए उनमें से उन-उन प्रसंगों को लेने का सूचन किया है । नन्दीसूत्र वल्लभी वाचना के आयोजक एवं प्रधान श्री देवद्धिगणी क्षमाश्रमण की रचना माना जाता है। इसका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख होने से तथा यहां के विवरणों को उसे देखकर पूर्ण कर लेने की जो सूचना की गई है, उससे यह प्रमाणित होता है कि इस श्रु तांग को वर्तमान रूप नन्दीसूत्र रचे जाने के पश्चात् वीर निर्वाण से लगभग १००० वर्ष पश्चात् ई० सन् ५२७ में प्राप्त हुआ है। वही स्थिति अन्य श्र तांगों के सम्बन्ध में भी घटित होती है । ऐसा होते हुए भी इसमें सन्देह नहीं कि विषयवस्तु पुरातन तथा प्राचार्य-परम्परानुस्यूत है। ऐतिहासिक सामग्री भगवान् महावीर के जीवन-चरित्र, उनके अनेक शिष्य श्रावकगृहस्थ अनुयायी तथा अन्य तीर्थंकरों के सम्बन्ध में इस श्रु तांग में Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैनागम दिग्दर्शन विवेचन प्राप्त होता है जो इतिहास को दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। सातवें शतक में वर्णित महाशिलाकंटक संग्राम तथा रथमसल संग्राम ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा युद्ध-विज्ञान की दृष्टि से प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है । अंग, बंग, मगध, मलय, मालव, अच्छ, वच्छ, कोच्छ, दाढ, लाढ़, वज्जि, मोलि, कासी, कौशल, अबाह, संभुक्तर आदि जनपदों का उल्लेख भारत की तत्कालीन प्रादेशिक स्थिति का सूचन करता है । आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक, भगवान् महावीर के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मंखलिपुत्र गोशालक के जीवन, कार्य, आदि के संबंध में जितने विस्तार से यहां परिचय प्राप्त होता है,उतना अन्यत्र नहीं होता । स्थान-स्थान पर पापित्यों तथा उनके द्वारा स्वीकृत व पालित चातुर्याम धर्म का उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान् महावीर के समय में तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के युग से चला आने वाला निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय स्वतन्त्र रूप में विद्यमान था। उसका भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित पंच महाव्रत मूलक धर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था तथा क्रमशः उसका भगवान् महावीर के आम्नाय में सम्मिलित होना प्रारम्भ हो गया था। - आचार्य अभयदेवसूरि की टीका के अतिरिक्त इस पर अवचूर्णि तथा लघुवृत्ति भी है । लघुवृत्ति के लेखक श्रा दानशेखर हैं। दर्शन-पक्ष भगवती पागम के सहस्रों प्रश्नों में नाना प्रश्न दर्शन-सम्बद्ध हैं । वे जैन दर्शन की मूलभूत धारणाओं को स्पष्ट करते हैं । उदाहरणार्थ प्रथम शतक के षष्ठम उद्देशक में कतिपय जटिल प्रश्नों को एक नन्हें से उदाहरण से ऐसा उत्तरित कर दिया गया है कि उससे आगे कोई प्रश्न नहीं रहता । पहले जीव बना या अजीव, पहले लोक बना या अलोक आदि अनेक प्रश्नों के उत्तर में बताया गया है-पहले मुर्गी बनी या अण्डा, मुर्गी से अण्डा उत्पन्न हुअा या अण्डे से मुर्गी ? जैसे मर्गी और अण्डे में कोई क्रम नहीं बनता, शाश्वत भाव होने के कारण जड़ और चेतन, लोक और अलोक में भी कोई क्रम नहीं बनता। , मुर्गी व अण्डे की पूर्वापरता का उदाहरण पूर्वोक्त क्रमबद्धता के प्रश्नों का निराकरण तो करता ही है, उनसे भी अधिक वह जगत् Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम कत्तत्व के प्रश्न को निरस्त करता है । मुर्गी से अण्डा, अण्डे से मुर्गी यही कार्य कारण भाव पहले था, आज है। भविष्य में भी रहेगा। बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज, की भी यही बात है। माता-पिता के क्रम से सन्तति-परम्परा पहले भी चलती थी, आज भी चलती है, भविष्य में नहीं चलेगी, यह सोचने का विषय नहीं है । यह चिन्तन अब बौद्धिक स्तर का नहीं रहा कि किसी समय यह क्रम नहीं चलता था और किसो जगत् में स्रष्टा ने इस कार्य कारण' स्थिति को खड़ा किया। भौतिक, अभौतिक प्रत्येक क्रिया का हेतु आज मनुष्य के लिए बुद्धिगम्य बनता जा रहा है। किसी दिन मनुष्य का ज्ञान प्राज की अपेक्षा बहुत सीमित था तथा वह बादलों में प्रकटित इन्द्र-धनुष को भी ईश्वरीय-लीला के अतिरिक्त कुछ नहीं सोच सकता था। भगवान् महावीर के कथनानुसार विश्व-अस्तित्व की अपेक्षा अनादि, अनन्त तथा परिवर्तन की अपेक्षा सादि, सान्त है। भगवती पागम में लोक विषयक प्रश्न को कई स्थानों पर अनेकान्त की विविध विधाओं से खोला है। ६. रणायाधम्मकहानो (जाताधर्मकथा या ज्ञातृधर्मकथा) नाम की व्याख्या _णायाधम्मकहानो के तीन संस्कृत-रूपान्तर हो सकते हैंज्ञाताधर्मकथा, ज्ञातृधर्मकथा, न्याय धर्मकथा । अभिधान राजेन्द्र में 'ज्ञाता धर्मकथा' व्याख्या में कहा गया है:-"ज्ञात का अर्थ उदाहरण है। इसके अनुसार इसमें उदाहरण-प्रधान धर्मकथाएं हैं। अथवा इसका अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है- जिसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में ज्ञात अर्थात् उदाहरण हैं तथा दूसरे श्र त-स्कन्ध में धर्म कथायें हैं, वह 'ज्ञाताधर्गकथा' है।" ज्ञातृधर्मकथा की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है:-ज्ञातृ अर्थात् ज्ञातृ कुलोत्पन्न या ज्ञातृपुत्र भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट १. ज्ञातान्युदाहरणानि तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा अथवा ज्ञातानि ज्ञाताध्ययनानि प्रथमश्र तस्कन्धे, धर्मकथा द्वितीये, यासु ग्रन्थपद्धतिषु ता ज्ञाताधर्मकथाः ।। -अभिधान राजेन्द्र; चतुर्थ भाग, पृ० २००६ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जैनागम दिग्दर्शन धर्मकथाओं का जिसमें वर्णन है, वह ज्ञातृ धर्मकथा सूत्र है । परम्परया इसी नाम का अधिक प्रचलन है। तीसरा रूप जो 'न्यायधर्मकथा' सूचित किया गया है, इसके अनुसार न्याय-ज्ञान अथवा नीति-सम्बन्धी सामान्य नियमों विधानों और दृष्टान्तों द्वारा बोध कराने वाली धर्मकथायें जिसमें हों, न्याय-धर्मकथा सूत्र है। आगम का स्वरूपः कलेवर दो श्र त-स्कन्धों में पागम विभक्त है। प्रथम श्रु त स्कन्ध में उन्नीस अध्ययन हैं तथा दूसरे में दश वर्ग। प्रथम श्रुत-स्कन्ध के अध्ययन में राजगृह के राजा श्रेणिक-बिम्बिसार के धारिणी नामक रानी से उत्पन्न राजपुत्र मेघकुमार का वर्णन है। जब वह कुमार अपने वैभव तथा समृद्धि के अनुरूप अनेक विद्याओं तथा कलाप्रों की शिक्षा प्राप्त करते हुए युवा हुआ, उसका अनेक राजकुमारियों से विवाह कर दिया गया। एक बार ऐसा प्रसंग बना, राजकुमार ने भगवान् महावीर का उपदेश-श्रवण किया। उसके मन में वैराग्य हमा। उसने दीक्षा स्वीकार कर ली। श्रमण-धर्म का पालन करते हुए उसके मन में कुछ दुर्बलता आई। वह क्षुब्ध हुअा और अनुभव करने लगा, जैसे उसने राजवैभव छोड़ श्रमण-धर्म स्वीकार कर मानो भूल की हो । किन्तु भगवान् महावीर ने उसे उसके पूर्व-भव का वृत्तान्त सुनाया, तो उसका मन संयम में स्थिर और दढ हो गया। अन्य अध्ययनों में इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कथानक हैं, जिनके द्वारा तप, त्याग व संयम का उदबोध दिया गया है। पाठवें अध्ययन में विदेह-राजकन्या मल्लि तथा सोलहवें अध्ययन में द्रौपदी के पूर्व जन्म की कथा है। ये दोनों कथायें बहुत महत्वपूर्ण हैं । द्वितीय श्र त-स्कन्व दश वर्गों में विभक्त है। इन वर्गों में प्रायः स्वर्गों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली स्त्रियों की कथायें हैं। प्राचार्य अभयदेवसूरि की टीका है। उसे द्रोणाचार्य ने संशोधित किया था । आचार्य अभयदेवसूरि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में जो लिखा है, उसके अनुसार तब अनेक वाचनायें प्रचलित थीं । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस आगम ७. उवासगदसाश्रो ( उपासकदशा) नामः अर्थ उपासक का अर्थ श्रावक तथा दशा का अर्थ तद्गतअणुव्रत आदि क्रिया-कलापों से प्रतिबद्ध या युक्त अध्ययन (ग्रन्थ- प्रकरण ) है ।' ६७ प्रस्तुत श्रुतांग में दश अध्ययन हैं जिनमें दश श्रावकों के कथानक हैं । इन कथानकों के माध्यम से जैन गृहस्थों द्वारा पालनीय धार्मिक नियम समझाये गये हैं । साथ-साथ यह भी बतलाया गया है। fa धर्मोपासकों को अपने धर्म के परिपालन के सन्दर्भ में कितने ही विघ्नों तथा प्रलोभनों का सामना करना पड़ता है, पर, वे उनसे कभी विचलित या धर्मच्युत नहीं होते । अन्त मे बारह गाथाओं द्वारा दशों कथानकों के मुख्य वण्यं विषयों का संकेत करते हुए ग्रन्थ का सार उपस्थित किया गया है । श्राचारांग का पूरक इस श्रुतांग को एक प्रकार से प्राचारांग का पूरक कहा जा सकता है । आचारांग में जहां श्रमण-धर्म का निरूपण किया गया है, वहाँ इसमें श्रमणोपासक - श्रावक या गृहस्थ धर्म का निरूपण किया गया है । आनन्द आदि महावैभवशाली गृहस्थों का जीवन कैसा था, उस समय देश की समृद्धि कैसी थी, इत्यादि विषयों का इस श्रुतांग से अच्छा परिचय मिलता है । प्राचार्य अभयदेवसूरि की इस पर टीका है । इसी श्रागम का एक सुन्दर, सरस व हृदयस्पर्शी प्रसंग यहां प्रस्तुत किया जा रहा है- भगवान् महावीर अपनी बृहत् शिष्य मण्डली के साथ वैशाली के समीपस्थ वाणिज्य ग्राम में आये । ईशान कोण स्थित द्य तिपलाश उद्यान में ठहरे । इन्द्रभूति गौतम दो दिन से उपोसित थे । तीसरे दिन पात्र, चीवर और शास्ता की अनुज्ञा ले, I १. उपासका: श्रावकास्तद्गतारगुव्रतादि क्रियाकलापप्रतिबद्धा दशाध्ययनानि उपासक दशा । - श्रभिधान राजेन्द्र ; भा० पृ० १०६४ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८५ जैनागम दिग्दर्शन भिक्षाटन के लिए निकले । गलियों व चौराहों पर एक ही चर्चा थी कि भगवान् महावीर का प्रथम उपासक श्रानन्द श्रमणोपासक प्रलम्ब तपस्या से अपने शरीर को क्षीण कर अब 'संथारा' - आमरण अन शन में चल रहा है । गौतम के मन में आनन्द से मिलने की उत्कंठा जगी । भिक्षाटन से लौटते हुए वे प्रानन्द की पौषधशाला में पहुंचे । द्वार पर रुके । गौतम को आये देखकर मानन्द पुलकित हुआ बोला - भदन्त ! मैं उठकर आगे आऊ, आपका अभिवादन करू, ऐसी मेरी शारीरिक क्षमता नहीं रही है । आप ही आगे आयें। मुझे निकट से दर्शन दें । ,, गौतम आगे बढ़े। आनन्द ने यथाविधि वन्दन कर स्वयं को तृप्त किया । गौतम की ओर देख वह बोला, भदन्त ! मुझे इस शान्त साधना में रहते हुए विशाल अवधिज्ञान ( श्रतीन्द्रिय ज्ञान ) की उपलब्धि हुई है, जिससे मैं पूर्व, पश्चिम व दक्षिण में पांच-पांच सौ योजन लवण समुद्र तक, उत्तर में चूलहेमवंत पर्वत तक, ऊंचाई में प्रथम सुधर्मा स्वर्ग तक, अधस्तल में प्रथम नरक के लोलुच नरकवास तक सब कुछ हस्तामलकवत् देख सकता हूँ । गौतम ने आनन्द के कथन पर विश्वास नहीं किया। कहा श्रानन्द ! इतना विपुल अवधि ज्ञान किसी गृही को हो नहीं सकता । तुमने मिथ्या सम्भाषण किया है। इसका प्रायश्चित्त करो । आनन्द ने कहा— भदन्त ! प्रायश्चित्त मिथ्याचरण का होता है, न कि सत्याचरण का । मैं प्रायश्चित्त का भागी नहीं हूं । कृपया आप ही प्रायश्चित्त करें । आप ही ने सत्य को असत्य कहा है । गौतम के मन में आनन्द के कथन से दुश्चिन्ता हुई । मैं चतुदश सहस्र भिक्षुत्रों में अग्रगण्य श्रमण हूं | यह एक श्रमणोपासक मेरी बात को काट रहा है । गौतम ने सोचा, इसका निर्णय मैं भगवान् महावीर से करा - ऊँगा । वे द्रुतगति से उद्यान में आये । भगवान् महावीर को वन्दन किया और सारी समस्या कही । भगवान् महावीर तो वीतराग थे। उनके मन में भला कब आता कि मेरे अग्रणी शिष्य की प्रतिष्ठा का प्रश्न है और मुझे Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस श्रागम ६६ इसकी शान रखनी है । उन्हें तो यथार्थं ही कहना था । वे बोले, - गौतम ! प्रायश्चित्त के भागी तुम ही हो। तुमने असत्य का आग्रह लिया था । आनन्द ने जो कहा, वह सम्भव है, सत्य है । तुम इन्हीं पैरों वापिस जाओ और श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा-याचना करो । I गौतम भी तो वीतराग-साधना के पथिक थे । अपने अहं का विसर्जन कर, ग्रानन्द के पास लौटे। अपनी भूल को स्वीकार किया, आनन्द से क्षमा-याचना की । ८. श्रन्तगडदसानो ( श्रन्तकृद्दशा) नाम : व्याख्या जिन महापुरुषों ने घोर तपस्या तथा आत्म-साधना द्वारा निर्वाण प्राप्त कर जन्म-मरण - आवागमन का अन्त किया, वे श्रन्तकृत् कहलाये | उन अर्हतों का वर्णन होने से इस श्रुतांग का नाम अन्तकृद्दशाँग है । इस श्रुतांग में आठ वर्ग हैं। प्रथम में दश, द्वितीय ठ, तृतीय में तेरह, चतुर्थ में दश, पंचम में दश, षष्ठ में सोलह, सप्तम में तेरह, तथा अष्टम वर्ग में दश अध्ययन हैं । इस श्रुतांग में कथानक पूर्णतया वर्णित नहीं पाये जाते । 'वण्णओ' और 'जाव' शब्दों द्वारा अधिकांश वर्णन व्याख्या - प्रज्ञप्ति अथवा ज्ञाताधर्मकथा - आदि से पूर्ण कर लेने की सूचना मात्र कर दी गयी है । स्थानांग में प्रन्तकृद्दशा का जो वर्णन आया है, उससे इसका वर्तमान स्वरूप मेल नहीं खाता । वहां इसके दश ' अध्ययन बतलाये हैं । उन अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं : १. नमि अध्ययन, २. मातंग अध्ययन, ३. सोमिल अध्ययन, ४. रामगुप्त अध्ययन, ५. सुदर्शन अध्ययन, ६. जमालि अध्ययन, ७. भगालि अध्ययन, १. दस दसानो पण्णत्तानो तं जहा कम्मविवागदसाओ, उबासगदसाम्रो, अंतगडवसाम्रो, भरगुत्तरोववाइयदसा, श्रायारदसाम्रो, पण्हावागरणदसानो, बंघदसानो, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाप्रो, संखेवियदसाओ । - स्थानांग सूत्र; स्थान १०, २ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन ८. किंकर्मपल्लित अध्ययन, ६. फालित अध्ययन, १०. मंडितपुत्र अध्ययन | बहुत सम्भावित यह प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में इस श्रुतांग ग्रन्थ में उपासकदशाँग की तरह दश ही अध्ययन रहे होंगे । पीछे पल्लवित होकर वर्तमान रूप में पहुंचा हो । जिस प्रकार उपासकदशा में गृहस्थ साधकों या श्रावकों के कथानक वर्णित हैं, उसी तरह इस श्रुतांग में अर्हतों के कथानक वर्णित किये गये हैं और वे प्रायः एक जैसी शैली में लिखे गये हैं । ७० अन्तकृद्दशा के तृतीय वर्ग के अष्टम अध्ययन में देवकी - पुत्र गजसुकुमाल का कथानक है; जो विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यह कथानक उत्तरवर्ती जैन साहित्य में पल्लवित और विकसित होकर अवतरित हुआ है । छठे वर्ग के तृतीय अध्ययन में अजुन मालाकार का कथानक है, जो जैन साहित्य में बहुत प्रसिद्ध है । स्वतन्त्र रूप से इस कथानक पर अनेक रचनाएं हुई हैं । अष्टम वर्ग में अनेक प्रकार की तपो विधियों, उपवासों तथा व्रतों का वर्णन है । ६. अनुत्तरोववाइयदसाधो (अनुत्तरोपपातिकदशा) नाम : व्याख्या ताँग में कतिपय ऐसे विशिष्ट महापुरुषों के प्राख्यान हैं, जिन्होंने तपः -पूर्ण साधना के द्वारा समाधि-मरण प्राप्त कर अनुत्तर विमानों में जन्म लिया । वहां से पुनः केवल एक ही बार मनुष्ययोनि में आना होता है, अर्थात् उसी मानव भव में मोक्ष हो जाता है । अनुत्तर और उपपात ( उद्भव, जन्म) के योग से यह शब्द बना है, जो न्वर्थक है । तीन वर्गों में यह श्रुतांग विभक्त है । प्रथम वर्ग में दश, दूसरे वर्ग में तेरह तथा तीसरे वर्ग में दश अध्ययन हैं । इनमें चरित्रों का वर्णन परिपूर्ण नहीं है । केवल सूचन मात्र कर अन्यत्र देखने का इंगित कर दिया गया है । प्रथम वर्ग में धारिणी- पुत्र जालि तथा तृतीय वर्ग में भद्रा पुत्र धन्य का चरित्र कुछ विस्तार के साथ प्रतिपादित किया गया है । धन्य अनगार की तपस्या, तज्जनित देह-क्षीणता आदि ऐसे Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस आगम ७१ प्रसंग हैं, जो महासोहनादसुत्त, कस्सपसोहनादसुत्त आदि पालि-ग्रन्थों में वर्णित बुद्ध की तपस्या-जनित दैहिक क्षीणता का स्मरण कराते हैं। वर्तमान रूप : अपरिपूर्ण, अयथावत् ऐसा अनुमान है कि इस ग्रन्थ का वर्तमान में जो स्वरूप प्राप्त है. वह परिपूर्ण और यथावत् नहीं है। स्थानांग में इसके भी दश अध्ययनों को चर्चा पाई है। प्रतीत होता है, प्रारम्भ में उपासकदशा तथा अन्तकृद्दशा की तरह इसके भी दश अध्ययन रहे हों, जो अब केवल तीन वर्गों के रूप में अवशिष्ट हैं । १०. पण्हवागरणाई (प्रश्नव्याकरण) नाम के प्रतिरूप श्र तांग के नाम में प्रश्न और व्याकरण : इन दो शब्दों का योग है, जिसका अर्थ है प्रश्नों का विश्लेषण, उत्तर या समाधान । पर, आज इसका जो स्वरूप प्राप्त है, उससे स्पष्ट है कि इसमें प्रश्नोत्तरों का सर्वथा अभाव है। वर्तमान रूप प्रश्नव्याकरण का जो संस्करण प्राप्त है, वह दो खण्डों में विभक्त है। पहले खण्ड में पांच प्रास्रव द्वार-हिंसा, मृषावाद १. अणुत्तरोववाइयदसारणं दस अज्झयरणा पण्णत्ता तं जहा इसिदासे य धण्णे य, सूनक्खत्त य कित्तिये । संठारने सालिभ ए, पारणंदे तेयली इय ।। दसन्नभद्दे अहमुत्ते एमे ते दस प्राहिया । -स्थानाँग सूत्र; स्थान १०, ६६ २. प्रश्नाश्च पृच्छा, व्याकरणानि च निर्वचनानि समाहारत्वात् प्रश्न व्याकरणम् । तत्प्रतिपादको ग्रन्थोपि प्रश्नव्याकरणम् । प्रश्नाअंगुष्टादिप्रश्न विद्यास्ता व्याक्रियन्ते अभिधीयन्ते यस्मिन्निति प्रश्नव्याकरणम् । प्रवचनपुरुषस्य दशमेऽङ्गे । अयं च व्युत्पत्त्यर्थोस्य पूर्वकालेऽभूत् । इदानीं त्वास्रवपंचकसंवरपंचकव्याकृतिरेवेहोपलभ्यते ...। -अभिधान राजेन्द्र ; पंचम भाग, पृ० ३६१ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनागम दिग्दर्शन (असत्य), अदत्त (चौर्य), ब्रह्मचर्य तथा, परिग्रह का स्वरूप बड़े विस्तार के साथ बतलाया गया है। द्वितीय खण्ड में पांच संवरद्वारअहिंसा, सत्य, दत्त (अचौर्य), ब्रह्मचर्य तथा निष्परिग्रह की विशद व्याख्या की गयी है। प्राचार्य अभयदेवसूरि की टीका के अतिरिक्त आचार्य ज्ञानविमल की भी इस पर टीका है । वर्तमान-स्वरूप : समीक्षा स्थानांग सूत्र में प्रश्न व्याकरण के उपमा, संख्या, ऋषिभाषित, प्राचार्य-भाषित, महावीर-भाषित, क्षोमक' प्रश्न, कोमल प्रश्न, प्रादर्श-प्रश्न,२ अगष्ठ प्रश्न तथा बाहु प्रश्न; इन दश अध्ययनों की चर्चा है। नन्दीसूत्र में एक सौ पाठ प्रश्न, एक सौ पाठ अप्रश्न, एक सौ पाठ प्रश्नाप्रश्न, अंगुष्ठ के प्रश्न, बाहु के प्रश्न, आदर्श (दर्पण) प्रश्न, अन्य अनेक दिव्य विद्याओं (मन्त्र-प्रयोग), नागकुमार तथा स्वर्णकुमार देवों को सिद्ध कर दिव्य संवाद प्राप्त करना आदि प्रश्नव्याकरण के विषय वणित हुये हैं।४ १. विद्या-विशेष, जिससे वस्त्र में देवता का आह्वान किया जाता है । -~पाइप्रसहमहण्णवो, पृ० २८१ २. विद्या-विशेष, जिससे दर्पण में देवता का आगमन होता है । –पाइप्रसहमहण्णवो, पृ० ५१ ३. पण्हावागरणदसारणं दस अज्झयरणा प०, तं० उवमा, संखा, इसिभा सियाइं, पायरियभासियाई, महावीरभासियाई, खोमगपसिरणाइं, कोमलपसिणाई, अदागपसिणाई, अंगुट्ठपसिणाई, बाहुपसिणाई। -स्थानांग; स्थान १०, ६८ ४. से कि तं पण्हावागरणाइं ? पण्हावागरणेसु रणं अठुत्तरं पसिणसयं, अठुत्तरं अपसिणसयं, अठुत्तरं पसिणापसिण सयं । तं जहाअंगुठ्ठपसिणाइं, बाहुपसिणाई, अद्दागपसिणाई, ण्णे विचित्ता दिव्वा विज्जाइं, सया नाग-सुवण्णेहिं सिहि दिवा संवाया प्राधविज्जंति, पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा संखिज्जा प्रणुप्रोगदारा, संखिज्जावेढ़ा, संखिज्जा सिलोगा.......। -नन्दी सूत्र; पृ० १८५-८६. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीसमागम ७३ स्थानांग और नन्दी में प्रश्न-व्याकरण के स्वरूप का जो विश्लेषण हुआ है, वैसा कुछ भी आज उसमें नहीं मिलता। इससे यह अनुमान करना अनुचित नहीं होगा, स्थानांग और नन्दी के अनुसार इसका जो मौलिक रूप था, वह रह नहीं पाया। सम्भवतः उसका विच्छेद हो गया हो। ११. विवागसुय (विपाकश्रत) अशुभ-पाप और शुभ-पुण्य कर्मों के दुःखात्मक तथा सुखात्मक विपाक (फल) का इस श्र तांग में प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण यह विपाक श्रु त या विपाक सूत्र कहा जाता है। दो श्रु तस्कन्धों में यह श्रु तांग विभक्त है। पहला श्रुत-स्कन्ध दुःख-विपाक विषयक है तथा दूसरा सुख-विपाक विषयक। प्रत्येक में दश दश अध्ययन हैं, जिनमें जीव द्वारा आचरित कर्मों के अनुरूप होने वाले दुःखात्मक और सुखात्मक फलों का विश्लेषण है। जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त का जो सूक्ष्म, तलस्पर्शी एवं विशद विवेचन हुअा है, विश्व के दर्शन-वाङ्मय में वह अनन्य व असाधारण है। उसके सोदाहरण विश्लेषण-विवेचन की दृष्टि से यह ग्रन्थ बहत उपयोगी है। इसमें जहाँ कहीं लट्ठी टेक कर चलता हुआ, भीख मांगता हुअा कोई अन्धा दिखाई देता है. वहाँ कहीं खास, कास, कफ, भगन्दर, खुजली, कुष्ट आदि भयावह रोगों से पीड़ित मनुष्य मिलते हैं । राजपुरुषों द्वारा निर्दयतापूर्वक ताड़ित, पीडित तथा उद्वेलित किये जाते लोग दिखाई देते हैं। गर्भवती स्त्रियों के दोहद, नर-बलि, वेश्याओं के प्रलोभन, नाना प्रकार के मांस-संस्कार व मिष्ठान्न आदि के विषय में भी प्रस्तुत ग्रन्थ में विवरण प्राप्त होते हैं। इससे पुरातनकालीन मान्यताओं, प्रवृत्तियों, प्रथाओं, अपराधों आदि का सहज ही परिचय प्राप्त होता है । सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से यह श्रु तांग बहुत महत्त्वपूर्ण है। स्थानांग में कम्मविवागदसानो के नाम से उल्लेख हुआ है। वहां उवासगदसामो, अंतगडदसायो, अणुत्तरोववाइयदसानो तथा Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैनागम दिग्दर्शन पण्हावागरणदसानो की तरह इसके दश अध्ययन बतलाये गये हैं, जो इस प्रकार हैं :-१. मृगापुत्र अध्ययन, २. गोत्रास अध्ययन, ३. अण्ड अध्ययन, ४. शकट अध्ययन, ५. ब्राह्मण अध्ययन, ६. नन्दिषेण अध्ययन, ७. सौकरिक अध्ययन, ८. उदुम्बर अध्ययन, ६. सहस्रदाह आमलक अध्ययन, १०. कुमारलक्ष्मी अध्ययन। वर्तमान में प्राप्त विपाक सूत्र के प्रथम श्रुत-स्कन्ध के दश अध्ययन २ इस प्रकार हैं:-१ मृगापुत्र अध्ययन, २. उज्झित अध्ययन, ३. अभग्ग (अभग्न) सेन अध्ययन, ४. शकट अध्ययन, ५. बृहस्पति अध्ययन, ६. नन्दि अध्ययन, ७. उम्बर अध्ययन, ८. शौर्यदत्त अध्ययन, ६. देवदत्ता अध्ययन, १०. अंजु अध्ययन । द्वितीय श्र त-स्कन्ध के अध्ययन इस प्रकार हैं : १. सुबाहु अध्ययन, २. भद्रनन्दी अध्ययन, ३. सुजात अध्ययन, ४. सुदासव अध्ययन, ५. जिनदास अध्ययन, ६. धनपति अध्ययन, ७. महाबल अध्ययन, ८. भद्रनन्दी अध्ययन, ६. महाचन्द्र अध्ययन तथा १०. वरदत्त अध्ययन । १. कम्मविवागदसाणं दस मज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-- मियापुत्ते य गुत्तासे अंडे सगडे इ यावरे । माहणे नंदिसेणे य, सूरिए य उदुबरे । सहसुद्दाहे प्रामलए, कुमारे लच्छई ति य । --स्थानांग; स्थान १०, ६३ २. समोणं प्राइगरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा--मियापुत्ते, उज्झियए, अभग्ग, सगडे, वहस्सइ, नंदी, ऊबर, सोरियदत्ते य देवदत्ता य, अंजु य । -विपाक सूत्र; प्रथम श्रुत-स्कन्ध, प्रथम प्र० ६ ३. समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता तं जहा सुबाहु, भद्दणंदी, सुजाये, सुवासवे, तहेव जिणदासे । घणपति य महब्बलो, भद्दणंदी, महच दे, वरदत्ते ।। --विपाक सूत्र; द्वितीय श्रुत-स्कन्ध, प्रथम प्र०, २ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस आगम द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में सुबाहुकुमार से सम्बद्ध प्रथम अध्ययन, विस्तृत है । अग्रिम नौ अध्ययन अत्यन्त संक्षिप्त हैं। उनमें पात्रों के चरित की सूचनाएं मात्र हैं । प्रायः सुबाहुकुमार की तरह परिज्ञात करने का संकेत कर कथानक का संक्षेप कर दिया गया है। इन्हें केवल नाम-मात्र के अध्ययन कहा जा सकता है। __स्थानांग सूत्र में वर्णित कम्मविवागदसाओ के तथा विपाक सत्र प्रथम श्रत-स्कन्ध के निम्नांकित अध्ययन प्रायः नाम-सादृश्य लिये हुए हैं : स्थानांग विपाक-सूत्र, प्रथम श्र त-स्कन्ध. १. मृगापुत्र अध्ययन १. मृगापुत्र अध्ययन ४. शकट अध्ययन ४. शकट अध्ययन ६. नन्दिषेण अध्ययन ६. नन्दि (नन्दिषेण) अध्ययन ७. उदुम्बर अध्ययन ७. उम्बर अध्ययन तुलनात्मक विवेचन से ऐसा अनुमान असम्भाव्य कोटि में नहीं जाता कि विपाक (सूत्र) का स्वरूप कुछ यथावत् रहा हो, कुछ परिवर्तित या शब्दान्तरित हुआ हो। अध्ययनों की क्रम-स्थापना में भी कुछ भिन्नता आई हो। १२. दिठिवाय (दृष्टिवाद) स्थानांग में दृष्टिवाद के पर्याय पूर्वो के विवेचन-प्रसंग में दृष्टिवाद के विषय में संकेत किया गया है। इसे विछिन्न माना जाता है। स्थानांग सूत्र में इसके दश पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख हुमा है : १. दृष्टिवाद, २. हेतुवाद, ३. भूतवाद, ४. तत्त्ववाद, ५. सम्यकवाद, ६. धर्मवाद. ७. भाषाविजय, ८. पूर्वगत, ६. अनुयोगगत, १०. सर्वप्राण भूतजीव सत्व सुखावह । १. दिट्ठिवायस्स रणं दस नामधिज्जा प० तं० दिट्ठिवाएइ वा हेतुवाएइ वा भूयवाएइ वा तच्चावाएइ वा सम्मावाएइ वा धम्मावाएइ वा भासाविजयेइ वा पूव्वगएइ वा अरणुप्रोगएइ वा सम्वपाणभूयजीवसत्तसुहावहेइ वा । -स्थानांग सत्र; स्थान १०, ७७. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जैनागम दिग्दर्शन दृष्टिवाद के मेद : उहापोह - समवायांग आदि में दृष्टिवाद के पांच भेदों का उल्लेख है :१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वगत, ४. अनुयोग, ५. चूलिका। स्थानांग सूत्र में दिये गये हष्टिवाद के पर्यायवाची शब्दों में आठवां 'पूर्वगत' है । यहां दृष्टिवाद के भेदों में तीसरा 'पूर्वगत' है। अर्थात् 'पूर्वगत' का प्रयोग दृष्टिवाद के पर्याय के रूप में भी हुआ है और उसके एक भेद के रूप में भी। दोनों स्थानों पर उसका प्रयोग. साधारणतया ऐसा प्रतीत होता है, भिन्नार्थकता लिये हुये होना चाहिये; क्योंकि दृष्टिवाद समष्ट्यात्मक संज्ञा है, इसलिए उसके पर्याय के रूप में प्रयुक्त 'पूर्वगत' का यही अर्थ होता है. जो दृष्टिवाद का है। दृष्टिवाद के एक भेद के रूप में आया हुअा 'पूर्वगत' शब्द सामान्यतः दृष्टिवाद के एक भाग या अंश का द्योतक होता है, जिसका आशय चतुर्दश पूर्वात्मक ज्ञान है। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से दृष्टिवाद और पूर्वगत-चतुर्दश पूर्व-ज्ञान एक नहीं कहा जा सकता। पर, सूक्ष्म दृष्टि से विचार करना होगा। वस्तुतः चतुर्दश पूर्वो के ज्ञान की व्यापकता इतनी अधिक है कि उसमें सब प्रकार का ज्ञान समाविष्ट हो जाता है। कुछ भी अवशेष नहीं रहता। यही कारण है कि चतुर्दश पूर्वघर की संज्ञा श्रत-केवली है। पूर्वगत को दृष्टिवाद का जो एक भेद कहा गया है, वहाँ सम्भवतः एक भिन्न दृष्टिकोण रहा है। पूर्वगत के अतिरिक्त अन्य भेदों द्वारा विभिन्न विधाओं को संकेतित करने का अभिप्राय उनके विशेष परिशीलन से प्रतीत होता है। कुछ प्रमुख विषय - ज्ञान के कतिपय विशिष्ट पक्ष. जिनकी जीवन में अपेक्षाकृत विशेष उपयोगिता होती है, विशेष रूप से परिशीलनीय होते हैं; अतः सामान्य-विशेष के दृष्टिकोण से यह निरूपण किया गया प्रतीत होता है । अर्थात् सामान्यतः तो पूर्वगत में समग्र ज्ञान-राशि समायी हुई है ही, पर, विशेष रूप से तद्व्यतिरिक्त भेदों की वहां अध्येतव्यता विवक्षित है। मेद-प्रभेदों के रूप में विस्तार दृष्टिवाद के जो पांच भेद बतलाये गये हैं, उनके भेद-प्रभंदों Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस आगम ७७ के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। उनसे अधिगत होता है कि परिकर्म के अन्तर्गत लिपि-विज्ञान और गणित का विवेचन था। सूत्र के अन्तर्गत छिन्नछेदनय, अछिन्नछेदनय तथा चतुर्नय आदि विमर्श-परिपाटियों का विश्लेषण था। छिन्नछेदनय व चतुर्नय की परिपाटियां निर्ग्रन्थों द्वारा तथा प्रच्छिन्नछेदनयात्मक परिपाटी आजीवकों द्वारा व्यहृत थी। आगे चल कर इन सब का समावेश जैन नयवाद में हो गया। अनुयोग का तात्पर्य दृष्टिवाद का चतुर्थ भेद अनुयोग है, उसे प्रथमानुयोग तथा गण्डिकानुयोग' के रूप में दो भागों में बांटा गया है। प्रथम में अर्हतों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान आदि से सम्बद्ध इतिवृत्त का समावेश है, जब कि दूसरे में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि महापुरुषों के चरित का। जिस प्रकार के विषयों के निरूपण की चर्चा है, उससे अनुयोग को प्राचीन जैन पुराण की संज्ञा दी जा सकती है। दिगम्बरपरम्परा में इसका सामान्य नाम प्रथमानुयोग ही प्राप्त होता है। दृष्टिवाद के पंचम भेद चूलिका के सम्बन्ध में कहा गया हैचूला (चूलिका) का अर्थ शिखर है। जिस प्रकार मेरु पर्वत की चूलाएं (चूलिकाए) या शिखर हैं, उसी प्रकार दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में उक्त और अनुक्त; दोनों प्रकार के अर्थों-विवेचनों की संग्राहिका, ग्रन्थ-पद्धतियां चूलिकायें हैं। चूर्णिकार ने बतलाया है कि दृष्टिवाद में परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में जो अभणित या अव्याख्यात है, उसे चूलिकाओं में व्याख्यात किया गया है। प्रारम्भ के चार पूर्वो की जो चूलिकायें हैं, उन्हीं का यहां अभिप्राय है । दिगम्बर-परम्परा में ऐसा नहीं माना १. इहैकवक्तव्यताधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते । तासामनुयोगोऽर्थकथनविधिगंण्डिकानुयोगाः। -अभिधानराजेन्द्र; तृतीय भाग, पृ० ७६१. २. (१) उत्पाद, (२) अग्रायणीय, (३) वीर्यप्रवाद, (४) अस्ति नास्ति-प्रवाद । ३. अथ काश्ताश्चूला: ? इह चूला शिखरमुच्यते । यथा मेरी चूलाः, तत्र Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन जाता। वहां चूलिका के पांच भेद बतलाये गये हैं : १. जलगत, २. स्थलगत, ३. मायागत, ४. रूपगत तथा ५. आकाशगत । ऐसा अनुमेय है कि इन चूलिका-भेदों के विषय में सम्भवतः इन्द्रजाल तथा मन्त्र तन्त्रात्मक आदि थे, जो जैन धर्म की तात्त्विक (दार्शनिक) तथा समीक्षा - प्रधान दृष्टि के आगे अधिक समय तक टिक नहीं सके; क्योंकि इनकी अध्यात्म - उत्कर्ष से संगति नहीं थी । द्वादश उपांग ७८ उपांग 1 प्राचीन परम्परा से श्रुत का विभाजन श्रंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में चला आ रहा है । नन्दी सूत्र में अंग बाह्य का कालिक और उत्कालिक सूत्रों के रूप में विवेचन हुआ है। जो सूत्र ग्रन्थ आज उपांगों में अन्तर्गभित हैं, उनका उनमें समावेश हो जाता है । -ग्रन्थों के समकक्ष उतनी ही (बारह) संख्या में उपांग ग्रन्थों का निर्धारण हुआ । उसके पीछे क्या स्थितियां रही, कुछ भी स्पष्ट नहीं है । प्रागम पुरुष की कल्पना की गई। जहां उसके प्रांग स्थानीय . शास्त्रों की परिकल्पना और अंग सूत्रों की तत्स्थानिक प्रतिष्ठापना हुई, वहां उपांग भी कल्पित किये गये । इससे अधिक सम्भवतः कोई तथ्य, जो ऐतिहासिकता की कोटि में आता हो, प्राप्त नहीं है । आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थ भाष्य में उपांग शब्द व्यवहृत हुआ है । अग : उपांग : असादृश्य ग गणधर रचित हैं । उनके अपने विषय हैं । उपांग स्थविररचित हैं । उनके अपने विषय हैं । विषय-वस्तु विवेचन आदि की [ पूर्व पृष्ठ का शेष ] चूला इव वूला दृष्टिवादे परिकर्म्मसूत्र पूर्वानुयोगोक्तानुक्तार्थसंग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयः । तथा चाह चूरिणकृत् - दिट्ठिवाए जं परिकम्मसुत्त पुव्वा गुजोगे चूलि न भरिणयं तं चूलासु भरिणयं ति । अत्र सूरिराह-चूला प्रादिमानां चतुर्णां पूर्वारणा, शेषारिण पूर्वाण्यचूलिकानि, ता एव चूला........... - श्रभिधान राजेन्द्र चतुर्थ भाग, पृ० २५१५ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पैतालीस प्रागम ७६ दृष्टि से वे परस्पर प्रायः असहश या भिन्न हैं। उदाहरणार्थ, पहला उपांग पहले अंग से विषय, विश्लेषण, प्रस्तुतीकरण आदि की दृष्टि से सम्बद्ध होना चाहिये, पर, वैसा नहीं है। यही लगभग सभी उपांगों के सम्बन्ध में कहा जा सकता है। यदि यथार्थ संगति जोड़ें तो. उपांग अंगो के पूरक होने चाहिये, जो नहीं हैं। फिर इस नाम की प्रतिष्ठापना कैसे हुई, कोई व्यक्त समाधान दृष्टिगत नहीं होता। . वेदों के अंग .. भारत के प्राचीन वाङ्मय में वेदों का महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों के अर्थ को समझने के लिये, वहां वेदांगों की कल्पना की गयी, जो शिक्षा (वैदिक संहिताओं के शुद्ध उच्चारण तथा स्वर-संचार के नियम-ग्रन्थ), व्याकरण, छन्दः शास्त्र, निरुक्त (व्युत्पत्ति-शास्त्र), ज्योतिष तथा कल्प (यज्ञादि-प्रयोगों के उपपादन-ग्रन्थ) के नाम से प्रसिद्ध हैं । इनके सम्यग् अध्ययन के बिना वेदों को यथावत् समझना तथा याज्ञिक रूप में उनका क्रियान्वयन सम्भव नहीं हो सकता; अतः उनका अध्ययन आवश्यक माना गया । वेदों के उपांग वेदार्थ की और अधिक स्पष्टता तथा जन-ग्राह्यता साधने के हेतु उपर्युक्त वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के चार उपांगों की कल्पना की गयी, जिनमें पुराण, न्याय,मीमांसा तथा धर्मशास्त्र का स्वीकार हुआ। १. छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥ शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् । तस्मात सांगमधीत्यैव, ब्रह्मलोके महीयते । -पाणिनीय शिक्षा; ४१-४२ २. (क) संस्कृत-हिन्दी कोश : आप्टे, पृ० २१४ (ख) Sanskrit-English Dictionary, by Sir Monier M. William, P. 213. (ग) पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रांगमिश्रिताः। __ वेदा : स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश । ___ याज्ञवल्क्य स्मृति: १-३. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन यह भी प्रावश्यकता के . अनुरूप हुआ और इससे अभीप्सित ध्येय सधा भी। फलतः वेदाध्ययन में सुगमता हुई। उपवेदों की परिकल्पना . वैदिक साहित्य में चारों वेदों के समकक्ष चार उपवेदों की भी कल्पना हुई, जो आयुर्वेद गान्धर्व वेद (संगीत-शास्त्र), धनुर्वेद और अर्थशास्त्र (राजनीति-विज्ञान) के रूप में प्रसिद्ध है। ..." ___वेदों के अंगों तथा उपांगों की प्रतिष्ठापना की तो सार्थकता सिद्ध हुई, पर, उपवेद वेदों के किस रूप में पूरक हुये; दार्शनिक दृष्टि से उतना स्पष्ट नहीं है, जितना होना चाहिये। उदाहरणार्थ, सामवेद को गान्धर्व वेद से जोड़ा जा सकता है, उसी तरह अन्य वेदों की भी वेदों के साथ संगति साधने के लिए विवक्षा हो सकती है। दूरान्विततया संगति जोड़ना या परस्पर तालमेल बिठाना कहीं भी दुःसम्भव नहीं होता । पर, वह केवल तर्क-कौशल और वाद-नैपुण्य की सीमा में पाता है। उसमें वस्तुतः सत्योपपादन का भाव नहीं होता। पर, 'उप' उपसर्ग के साथ निष्पन्न शब्दों में जो 'पूरकता' का विशेष गुण होना चाहिये, वह कहां तक फलित होता है, यही देखना है । जैसे, गान्धर्व उपवेद सामवेद से निःसत या विकसित शास्त्र हो सकता है, पर, वह सामवेद का पूरक हो, जिसके बिना सामवेद में कुछ अपूर्णता प्रतीत होती हो, ऐसा कैसे माना जा सकता है ? सामवेद और गान्धर्व उपवेद की तो किसी-न-किसी तरह संगति बैठ भी सकती है, पर, औरों के साथ ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी ऐसा किया गया, यह क्यों ? इस प्रश्न का इत्थंभूत समाधान सुलभ नहीं दीखता । हो सकता है, धनुर्वेद आदि लोकजनीन शास्त्रों को मूल वैदिक वाङ्मय का अंश या भाग सिद्ध करने की उत्कंठा का यह परिणाम हुआ हो। जैन श्रु तोपांग अंग-प्रविष्ट या अंग-श्रु त सर्वाधिक प्रामाणिक है; क्योंकि वह भगवत्प्ररूपित और गणधर-सर्जित है । तद्व्यतिरिक्त साहित्य (स्थविरकृत) का प्रामाण्य उसके अंगानुगत होने पर है। वर्तमान में जिसे उपांग-साहित्य कहा जा सकता है, वह सब अंग-बाह्य में सन्निविष्ट है । उसका प्रामाण्य अंगानुगतता पर है, स्वतन्त्र नहीं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस आगम फिर बारह ग्रन्थों को उपांगों के रूप में लिये जाने के पीछे कोई विशेष उपयोगितावादी, सार्थकतावादी दृष्टिकोण रहा हो, यह स्पष्ट भाषित नहीं होता । वेद के सहायक अंग तथा उपांग ग्रन्थों की तरह जैन मनीषियों का भी अपने कुछ महत्वपूर्ण अंग बाह्य ग्रन्थों को उपांग दे देने का विचार हुआ हो । क्रम-सज्जा, नाम - सौष्ठव आदि के अतिरिक्त इसके मूल में कुछ और भी रहा हो, यह गवेष्य है; क्योंकि हमारे समक्ष स्पष्ट नहीं है । उपांगों (जैन श्रुतोपांगों ) के विषय में ये विकीर्ण जैसे विचार हैं । जैन मनीषियों पर इनके सन्दर्भ में विशेष रूप से चिन्तन और गवेषणा का दायित्व है | १. उववाइय ( श्रोववाइय) (औपपातिक) झोपपातिक का अर्थ ८१ उपपात का अर्थ प्रादुर्भाव या जन्मान्तर-संक्रमण है । उपपात ऊर्ध्वगमन या सिद्धि-गमन (सिद्धत्व प्राप्ति) के लिये भी व्यवहृत हुआ है । इस अंग में नरक व स्वर्ग में उत्पन्न होने वालों तथा सिद्धि प्राप्त करने वालों का वर्णन है; इसलिए यह प्रोपपातिक है। यह पहला उपांग है । " नाना परिणामों, विचारों, भावनाओं तथा साधनाओं से भवान्तर प्राप्त करने वाले जीवों का पुनर्जन्म किस प्रकार होता है, अनेक उदाहरण प्रस्तुत करते हुये इस आगम में हृदयग्राही विवेचन किया गया है । इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि इसमें नगर, उद्यान, वृक्ष, पृथ्वीशिला, राजा, रानी, मनुष्य परिषद्, देव-परिषद्, भगवान् महावीर के गुण, साधुओं की उपमाएँ, तप के ३५४ भेद, केवलि समुद्धात, सिद्ध, सिद्ध-सुख आदि के विशद वर्णन प्राप्त होते हैं । अन्य (श्रुत) ग्रन्थों में इसी ग्रन्थ का उल्लेख कर यहां से परिज्ञात करने का संकेत कर १. उपपतनमुपपातो देवनारकजन्मसिद्धिगमनं चातस्तमधिकृत्य कृत मध्ययनमौपपातिकमिदं चोपांगं वर्तते । - प्रभिधान राजेन्द्र; तृतीय भाग, पृ० ६० Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जैनागम दिग्दर्शन उन्हें वर्णित नहीं किया गया है। श्रु त-वाङ्मय में वर्णनात्मक शैली की रचनाओं में यह महत्वपूर्ण स्थान रखता है। २. रायपसेरगीन (राज प्रश्नीय) देव-अधिकार, देव-विमान-अधिकार, देव-ऋद्धि-अधिकार, 'परदेसी राजा अधिकार तथा दृढ़प्रतिज्ञकुमार अधिकार नामक पांच अधिकारों में यह पागम विभक्त है । प्रथम तीन अधिकारों में सूर्याभ देव का, चतुर्थ अधिकार में परदेशी राजा का तथा पंचम में दृढ़प्रतिज्ञ कुमार का वर्णन है। गणधर गौतम द्वारा महा समृद्धि, विपुल वैभव, अनुपम दीप्ति, कान्ति और शोभा सम्पन्न सूर्याभदेव का पूर्व-भव पूछे जाने पर भगवान् महावीर उन्हें उसका पूर्व-भव बतलाते हुए कहते हैं कि, यह 'पूर्व-भव में राजा परदेशी था। यहीं से राजा परदेशी का वृत्तान्त प्रारम्भ हो जाता है, जो इस सूत्र का सब से अधिक महत्वपूर्ण भाग है । राजा परदेशी अनात्मवादी या जड़वादी था। उसका भगवान् पार्श्व के प्रमुख शिष्य केशीकुमार के सम्पर्क में आने का प्रसंग बनता है। अनात्मवाद और आत्मवाद के सन्दर्भ में विस्तृत वार्तालाप होता है। राजा परदेशी अनात्मवादी, अपुनर्जन्मवादी तथा जड़वादी दृष्टिकोण को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित करता है, तर्क प्रस्तुत करता है। श्रमण केशीकुमार युक्ति और न्यायपूर्वक विस्तार से उसका समाधान करते हैं। राजा परदेशी सत्य को स्वीकार कर लेता है और श्रमणोपासक बन जाता है। धर्माराधना पूर्वक जीवन-यापन करने लगता है। रानी द्वारा विष-प्रयोग, राजा द्वारा किसी भी तरह से विद्विष्ट और विक्षुब्ध भाव के बिना आमरण अनशन पूर्वक प्राण त्याग के साथ यह अधिकार समाप्त हो जाता है। आत्मवाद तथा जड़वाद की प्राचीन परम्पराओं और विमर्शपद्धतियों के अध्ययन की दृष्टि से इस सूत्र का यह भाग अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गणधर गौतम के पूछे जाने पर भगवान् महावीर ने आगे बताया कि सूर्याभदेव अपने अग्रिम जन्म में दृढप्रतिज्ञकुमार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस आगम ८३ होगा। इस प्रकार अन्तिम अधिकार में भविष्यमाण जीवन-वृत्त का उल्लेख है। - सूर्याभदेव के विशाल, सुन्दर, समृद्ध और सर्वविध सुविधापूर्ण सुसज्ज विमान की रचना आदि के प्रसंग में जो वर्णन पाया है, वहां तोरण, शालभंजिका, स्तम्भ, वेदिका सुप्रतिष्ठक, फलक, करण्डक, सूचिका, प्रेक्षागह, वाद्य, अभिनय आदि शब्द भी प्राप्त होते हैं। वास्तव में प्राचीन स्थापत्य, संगीत आदि के परिशीलन की दृष्टि से यह प्रसंग महत्वपूर्ण है । भगवान् महावीर के समक्ष देवकुमारों तथा देवकुमारियों द्वारा बतीस प्रकार के नाटक प्रदर्शित किये जाने का प्रसंग प्राचीन नृत्त, नृत्य और नाट्य आदि के सन्दर्भ में एक विश्लेषणीय और विवेचनीय विषय है। नन्दी-सूत्र में रायपसेणिय शब्द पाया है। प्राचार्य मलयगिरि ने इस नाम को रायपसेणी माना है। डा० जगदीशचन्द्र जैन ने इसके लिये रायपसेणइय का प्रयोग किया है। इस सूत्र के प्रधान पात्र या कथा-नायक के सम्बन्ध में एकमत्य नहीं है। उस मतदूध का आधार यह नाम भी बना है । परम्परा से राजा परदेशी इस सूत्र के कथानक का मुख्य पात्र है। पर, डा० विण्टरनित्ज के मतानुसार मूलतः इस आगम में कोशल के इतिहास-प्रसिद्ध राजा प्रसेनजित् की कथा थी। बाद में उसे राजा परदेशी से जोड़ने का प्रयत्न हुआ। रायपसेणीय तथा रायपसेणइय शब्दों का सम्बन्ध तो राजा प्रसेनजित् से जुड़ता है, पर, वर्तमान में प्राप्त कथानक का सम्बन्ध ऐतिहासिक दृष्टि से राजा प्रसेनजित् से जोड़ना सम्भव प्रतीत नहीं होता। यह सारा कथा-क्रम कैसे परिवर्तित हुआ, क्या-क्या स्थितियाँ उत्पन्न हुई, कुछ कहा जाना शक्य नहीं है। इसलिए जब तक परिपुष्ट १. नृत्तं ताललयाश्रयम् । ताल से मात्रा और लय से द्र त, मध्य तथा मन्द । जैसे लोक-नृत्य, भीलों का गरबा । २. भावाश्रयं नृत्यम् । नृत्य में गात्र-विक्षेप से भाव-व्यंजना । जैसे, भरतनाट्यम्, कत्थक-नृत्य, उदयशंकर के नृत्य । विशेष-नृत्त और नृत्य के दो-दो भेद हैं-लास्य-मधुर, ताण्डव-उद्धत । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ .. जैनागम दिग्दर्शन प्रमाण न मिले, तब तक केवल नाम-साँगत्य कोई ठोस आधार नहीं माना जा सकता। इस आगम की उल्लेखनीय विशेषता है, राजा प्रदेशी के अनघड़ प्रश्न और केशीकुमार श्रमण के मंजे-मजाये उत्तर। राजा प्रदेशी कहता है-"भदन्त ! मैंने एक बार आत्म-स्वरूप को समझने, साक्षात् देखने के लिए प्रयोग किया। एक जीवित चोर के दो टुकड़े किये, पर, आत्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ी। दो के चार, चार के आठ, इस तरह मैं उसके शरीर का खण्ड-खण्ड करते ही गया, पर आत्मा कहीं नहीं मिली। आत्मा यदि शरीर से भिन्न तत्त्व हो, तो अवश्य वह पकड़ में आती।" केशीकुमार श्रमण-"राजन् ! तू कठियारे की तरह मूर्ख है। चार कठियारों ने वन में जाकर एक को रसोई का काम सौंपा। तीन लकड़ियां काटने में लगे। अग्नि के लिए उसे 'अरणी' की लकड़ी दे गये। रसोई के लिए स्थित कठियारे को यह मालूम नहीं था कि अरणी का घर्षण कर के कैसे अग्नि उत्पन्न की जाती है। उसने भी अग्नि प्रकट करने के लिए 'अरणी' पर कुठार मारा। दो, चार, छह टुकड़े करता ही गया। चूर्ण कर दिया। पर अग्नि कहां? हताश बैठा रहा। रसोई न बना सका। तीनों कठियारे वापिस आये। वस्तु स्थिति से अवगत होकर बोले - बड़ा मुर्ख है तू, ऐसे भी कभी अग्नि प्रकट होती है ? देख, एक चतुर कठियारे ने तत्काल यथाविधि घर्षण कर उसे अग्नि प्रकट कर दिखाई । राजन् ! तू भी क्या कठियारे जैसा मूर्ख नहीं हैं ?" प्रदेशी-"भन्ते ! मैं तो मुर्ख कठियारे जैसा हूं, पर आप तो चतुर कठियारे जैसे हैं। उसने जैसे अग्नि प्रकट कर बताई, आप भी आत्मा को प्रकट कर बतायें।" ___ केशीकुमार श्रमण-"राजन् ! इसी उद्यान में हिलते हुए वृक्षों को देख रहे हो ?" प्रदेशी-"हाँ, भन्ते !" केशीकुमार श्रमण-"यह भी बताओ, इन्हें कौन हिला रहा है ?" Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस मागम प्रदेशी--"भन्ते ! पवन ।" केशीकुमार श्रमण-"राजन् ! तुम क्या देख रहे हो कि पवन कैसा है. उसका वर्ण, प्राकार कैसा है ?" प्रदेशी-"भन्ते ! पवन देखने का विषय नहीं, वह तो अनुभूति का विषय है।" केशीकुमार श्रमण-"राजन् ! आत्मा भी देखने का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। वह चेतना, अनुभूति, ज्ञान आदि अपने गुणों से अनुभूत होती है।" प्रदेशी-"भन्ते ! आपकी प्रज्ञा प्रबल है। आपने मुझे निरुत्तर किया है, पर, इस विषय में मेरे अन्य प्रश्न हैं।" प्रदेशी व केशीकुमार श्रमण के प्रश्नोत्तरों का इस प्रकार एक प्रलम्ब क्रम इस आगम में है। अन्त में प्रदेशी राजा प्रतिबद्ध होता है, पर पार्हत्-धर्म को स्वीकार करना नहीं चाहता। तब उसे लोह वणिक् के उदाहरण से समझाया जाता है । केशीकुमार श्रमण कहते हैं-"राजन् ! तुम तो वैसे ही मूर्ख निकले, जैसे लोह वणिक् था।" प्रदेशी-"भन्ते ! उसने क्या मूर्खता की ?" केशीकुमार श्रमण-"चार वणिक् देशान्तर के लिए निकले। अरण्य में जाते हुए क्रमशः लोहा, चांदी, सोना व रत्नों की खाने पाई। तीन वणिकों ने लोह के बदले चांदी, चांदी के बदले सोना, सोने के बदले रत्न उठा लिये। एक वणिक लोहा ही उठाये चलता रहा। कहा, तो भी न माना । अपनी नगरी में लौटने के पश्चात् तीनों वणिक् श्रीमन्त हो गये। वह लोहा बेचकर चने बेचने की फेरी लगाने लगा। कालान्तर से जब उसने अपने तीन साथियों का वैभव देखा, अपनी भूल पर रो-रोकर पछताने लगा। राजन् ! अर्हत्-धर्म रूप रत्नों को स्वीकार नहीं कर के कालान्तर से लोह वणिक् की तरह तुम भी पछताओगे। प्रस्तुत पागम में आस्तिकता-नास्तिकता जैसे दुर्गम प्रश्न को सरस व सुगम रूप से सुलझाया गया है। प्रदेशी राजा अर्हद्-धर्म Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन स्वीकार कर उसकी कठिन अाराधना करता है। इस पागम का यही कथानक बौद्ध-परम्परा में लगभग इसी रूप में चचित है। ३. जीवाजीवाभिगम उपांग के नाम से ही स्पष्ट है, इसमें जीव, अजीव, उनके भेद, प्रभेद आदि का विस्तृत वर्णन है। संक्षेप में इसे जीवाभिगम भी कहा जाता है। परम्परा से ऐसा माना जाता है कि कभी इसमें बीस विभाग थे, परन्तु, वर्तमान में जो संस्करण प्राप्त है, उसमें केवल नौ प्रतिपत्तियाँ' (प्रकरण) मिलती हैं, जो २७२ सूत्रों में विभक्त हैं । हो सकता है, वे बीस विभाग या उनका महत्वपूर्ण भाग या लुप्त हो जाने से बचा हुप्रा भाग इन नौ प्रतिपत्तियों में विभक्त कर संकलन की दृष्टि से नये रूप में प्रस्तुत कर दिया गया हो। ये सब अनुमान हैं, जिनसे अधिक वितर्कणा करने के साधन आज उपलब्ध नहीं हैं। गणधर गौतम के प्रश्न और भगवान् महावीर के उत्तर की शृखला में इस ग्रन्थ में रूपी, अरूपी, सिद्ध, संसारी, स्त्री, पुरुष व नपुंसक वेद, सातों नरकों में प्रतर, तिर्यंच, भुवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क देव, जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, उत्तर कुरु, नीलवन्तादि द्रह, धातकी खण्ड, कालोदधि, मानुषोत्तर पर्वत, मनुष्य लोक, अन्यान्य द्वीप-समुद्र आदि का वर्णन है। कहीं-कहीं वर्णनों का विस्तार हया है। प्रसंगोपात्ततया इसमें लोकोत्सव, यान, अलंकार, उद्यान, वापिका, सरोवर, भवन, सिंहासन, मिष्ठान्न, मदिरा, धातु आदि की भी चर्चा पाई है। प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के अध्ययन की दृष्टि से इसका महत्व है। वर्शन - पक्ष . जीवाजीवाभिगम आगम का दर्शन पक्ष इतना भर है कि वहाँ जीव और अजीव तत्त्व को नाना भेद-प्रभेदों से परिलक्षित किया गया है। प्रथम प्रतिपत्ति में कहा गया है, संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं—त्रस और स्थावर । स्थावर जीव तीन प्रकार के होते हैं—पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय । बादर वनस्पतिकाय बारह होते १. ज्ञान, निश्चिति, अवाप्ति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पैंतालीस श्रागम हैं-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग ( ईख प्रादि), तृण, वलय ( कदली आदि जिनकी त्वचा गोलाकार हो), हरित् (हरियाली), औषधि, जलरुह ( पानी में पैदा होने वाली वनस्पति), कुहण ( पृथ्वी को भेद कर पैदा होने वाला वृक्ष ) । साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव अनेक प्रकार के होते हैं । त्रस जीव तीन प्रकार के होते हैं- तेजस्काय, वायुकाय और औदारिक त्रस । प्रौदारिक त्रस चार प्रकार के होते हैं-दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पांच इन्द्रिय वाले | पंचेन्द्रिय चार प्रकार के होते हैं-नारक, तियंच, मनुष्य और देव । नरक सात होते हैं - रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, महातमः प्रभा । तिर्यंच तीन प्रकार के होते हैं— जलचर, थलचर और नभचर । जलचर पांच प्रकार के होते हैं - मत्स्य, कच्छप, मकर, ग्राह और शिशुमार । थलचर जीव चार प्रकार के होते हैं एक खुर, दो खुर, गण्डीय और सण्णय (सनखपद ) । नभचर जीव चार प्रकार के होते हैंचम्पक्खी, लोमपक्खी, समुग्गपक्खी और विततपक्खी । मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - संमुच्छिम और गर्भोत्पन्न | देव चार प्रकार के होते हैं- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । प्रस्तुत आगम में दर्शन पक्ष की अपेक्षा व्यवहार पक्ष का दिग्दर्शन ही अधिक व्यवस्थित मिलता है । नाना वस्तुत्रों के प्रकार जिस सुयोजित ढंग से बताये गये हैं, सचमुच ही उस काल का सजीव - व्यौरा देने वाले हैं - तीसरी प्रतिपत्ति में वे सम्मुलेख इस प्रकार हैं—रत्न -- रत्न, वज्र, वैडूर्य, लोहित, मसारगल्ल, हंस, गर्भ, पुलक, सौगन्धिक, ज्योतिरस, अंजन, अंजनपुलक, रजत, जातरूप, अंक, स्फटिक, अरिष्ट । ८७ - अस्त्र-शस्त्र – मुद्गर, मुसु ंढ़ि, करपत्र ( करवत), असि, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, नाराच, कुरंत, तोमर, शूल, लकुट, भिडिपाल । धातु — लोहा, तांबा, त्रपुस, सीसा, रूप्य, सुवर्ण, हिरण्य, कुम्भकार की अग्नि, ईंट पकाने की अग्नि, कवेलू पकाने की अग्नि, यन्त्र'पाटक, चुल्ली, (जहां गन्ने का रस पकाया जाता है ) । मद्य - चन्द्रप्रभा (चन्द्र के समान जिसका रंग हो), मणिशलाका, वरसीधु, वरवारुणी, फलनिर्याससार, (फलों के रस से तैयार Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन की हुई मदिरा), पत्र निर्याससार, पुष्पनिर्याससार. चोयनिर्याससार, बहुत द्रव्यों को मिलाकर तैयार की हुई, सन्ध्या के समय तैयार हो जाने वाली, मधु, मेरक, रिष्ट नामक रत्न के समान वर्णवाली (इसे जंबूफलकालिका भी कहा गया है ), दुग्ध जाति (पीने में दूध के समान स्वादिष्ट), प्रसन्ना, नेल्लक (अथवा तल्लक), शतायु (सौ बार शुद्ध करने पर भी जैसी की तैसी रहने वाली), खजूरसार, मृद्वीकासार (द्राक्षासव), कापिशायन, सुपक्व, क्षोदरस (ईख के रस को पकाकर बनाई हुई )। पात्र-बारक (मंगल घट), घट, करक, कलश, कक्करी, पादकांचनिका (जिससे पैर धोये जाते हों), उदंक (जिससे जल का छिड़काव किया जावे), वद्धणी (वार्धनी-गलंतिका-छोटी कलसी जिसमें से पानी रह-रह कर टपकता हो), सुपविट्ठर (पुष्प रखने का पात्र), पारी (दूध दोहने का पात्र), चषक (सुरा पीने का पात्र), भृगार, (झारी), करोडी (करोटिका), सरग (मदिरापात्र), धरग, पात्रीस्थाल, णत्थग, (नल्लक), चवलिय (चपलित), अवपदय। आभूषण-हार (जिसमें अठारह लड़ियां हों), अर्धहार (जिसमें नौ लड़ियां हों), बट्टणग (वेस्टनक, कानों का आभूषण), मुकुट. कुण्डल, वामुत्तग (व्यामुक्तक, लटकने वाला गहना), हेमजाल (छेद वाला सोने का प्राभूषण), मणिजाल, कनकजाल, सूत्रक (वैकक्षक कृतं), सुवर्ण सूत्र (यज्ञोपवीत की तरह पहना जाने वाला आभूषण), उचियकडग (उचितकटिकानि-योग्यवलयानि), खुड्डग (एक प्रकार की अंगूठी), एकावली, कण्ठसूत्र, मगरिय (मकर के आकार का आभूषण), उरत्थ (वक्षस्थल पर पहनने का आभूषण), अवेयक, (ग्रीवा का आभूषण), श्रोणिसूत्र (कटिसूत्र), चूडामणि, कनकतिलक, फुल्ल, (फूल), सिद्धार्थक (सोने की कण्ठी), कण्णवाली (कानों की बालि), शशि, सूर्य, वृषभ, चक्र, (चक), तलभंग (हाथ का आभूषण), तुडउ (बाहु का आभूषण), हत्थमालग (हस्तमालक), वलक्ष (गले का आभूषण), दीनारमालिका, चन्द्रसूर्यमालिका, हर्षक, केयूर, वलय, प्रालम्ब, (झूमका), अंगुलीयक (अगुठी), कांची, मेखला, पयरस Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालील प्रागम (प्रतर), पादजाल (पैरों का प्राभूषण), घंटिका, किंक्रिणी, रयणोरुजाल (रत्नोरुजाल), नुपूर. चरणमालिका, कनकनिकरमालिका । .. भवन-प्राकार, अट्टालग (अटारी), चरिय (गृह और प्राकार के बीच का मार्ग), द्वार, गोपुर, प्रासाद, आकाशतल, मण्डप, एकशाला (एक घरवाला मकान), द्विशाला, त्रिशाला, चतुःशाला, गर्भगृह, मोहनगृह, वलभीगृह, चित्रशाला, मालक (मजले वाला घर), गोलधर, त्रिकोण घर. चौकोण घर, नंदावर्त, पंडुरतलहर्म्य, मुडमालहर्म्य (जिसमें शिखर न हो), धवलगृह, अर्धमागध विभ्रम, शैलसंस्थित (पर्वत के आकार का), शैलार्धसंस्थित, कूटागार, सुविधिकोष्ठक, शरण (झोंपड़ी आदि), लयन (गुफा आदि), विडंक (कपोतपाली, प्रासाद के अग्रभाग में कबूतरों के रहने का स्थान, कबूतरों का दरबा) जालवृन्द (गवाक्षसमूह), नि, ह (खूटी अथवा द्वार), अपवरक (भीतर का कमरा), दोबाली, चन्द्रशालिका। वस्त्र-आजिनक (चमड़े का वस्त्र), क्षौम, कम्बल, दुकूल, कौशेय, कालमृग के चर्म से बना वस्त्र, पट्ट, चीनांशुक, आभरणचित्र (आभूषणों से चित्रित), सहिणगकल्लाणग (सूक्ष्म और सुन्दर वस्त्र) तथा सिन्धु, द्रविड, वंग, कलिंग आदि देशों में बने वस्त्र । मिष्टान्न-गुड़, खाँड, शक्कर, मत्स्यण्डी (मिसरी), बिसकंद, पर्पटमोदक, पुष्पोत्तर, पद्मोत्तर, गोक्षीर । ___ ग्राम-ग्राम, नगर, निगम (जहां बहुत से वणिक् रहते हों), खेट (जिसके चारों ओर मिट्टी का परकोटा बना हो), कर्बट (जो चारों ओर से पर्वत से घिरा हो), मडंब (जिसके चारों ओर पांच कोस तक कोई ग्राम न हो), पट्टण (जहां विविध देशों से माल आता हो), द्रोणमुख (जहां अधिकतर जलमार्ग से आते-जाते हों), पाकर (जहाँ लोहे आदि की खाने हों), आश्रम, संबाध (जहां यात्रा के लिए बहुत से लोग आते हों ), राजधानी, सन्निवेश (जहां सार्थ पाकर उतरते हों)। - राजा-राजा, युवराज, ईश्वर (अणिमा आदि पाठ ऐश्वर्यों से सम्पन्न), तलवर (नगर रक्षक, कोतवाल), माडम्बिय (मडम्ब के Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन मायक), कौटुम्बिक (अनेक कुटुम्बों के आश्रयदाता, राजसेवक), इभ्य (प्रचुर धन के स्वामी), श्रेष्ठी (जिनके मस्तक पर देवता की मूर्ति सहित सुवर्ण पट्ट बंधा हो), सेनापति, सार्थवाह (सार्थ का नेता)। दास-दास (अामरण दास ), प्रेष्य (जो किसी काम के लिए भेजे जा सके), शिष्य, भृतक (जो वेतन लेकर काम करते हों), भाइल्लग (भागीदार), कर्मकर। त्यौहार-आवाह (विवाह के पूर्व ताम्बूल इत्यादि देना), विवाह, यज्ञ (प्रतिदिन इष्ट देवता की पूजा ), श्राद्ध, थालीपाक (गृहस्थ का धार्मिक कृत्य), चेलोपनयन, (मुण्डन), सीमंतोन्नयन (गर्भ स्थापना), मृतपिंडनिवेदन । उत्सव-इन्द्रमह, स्कन्दमह, रुद्रमह, शिवमह, वैश्रमणमह, मुकुन्दमह, नागमह, यक्षमह, भूतमह, कूपमह, तडागमह, नदीमह, ह्रदमह, पर्वतमह, वृक्षारोपणमह, चैत्यमह, स्तुपमह । नट-नट (बाजीगर), नर्तक, मल्ल (पहलवान), मौष्टिक (मुष्टि युद्ध करने वाले), विडम्बक ( विदूषक ), कहग ( कथाकार ), प्लवग (कूदने-फांदने वाले), आख्यायक, लाक्षक (रास गाने वाले), लंख (बांस के उपर चढ़कर खेल करने वाले), मंख (चित्र दिखाकर भिक्षा मांगने वाले), तण बजाने बाले, वीणा बजाने वाले, कावण (बहंगी ले जाने वाले), मागध, जल्ल (रस्सी पर खेल करने वाले) । यान-शकट, रथ, यान (गाड़ी), जुग्ग (गोल्ल देश में प्रसिद्ध दो हाथ प्रमाण चौकोर वेदी से युक्त पालकी, जिसे दो यादमी ढोकर ले जाते हों), गिल्ली (हाथी के उपर की अम्बारी, जिसमें बैठने से आदमी दिखाई नहीं देता), थिल्ली (लाट देश में घोड़े के जीन को थिल्ली कहते हैं, कहीं दो खच्चरों की गाड़ी को थिल्ली कहा जाता है), शिविका (शिखर के आकार की ढकी हुई पालकी), स्यन्दमानी (पुरुष प्रमाण लम्बी पालकी)। व्याख्या साहित्य आचार्य मलयगिरि ने इस पर टीका की रचना की। उन्होंने इस उपाँग के अनेक स्थानों पर वाचना-भेद होने का उल्लेख किया Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ पैतालीस प्रागमः है । साथ-साथ यह भी सूचित किया है कि इसके सूत्र विछिन्न हो गये । प्राचार्य हरिभद्र तथा देवसूरि द्वारा लघु-वृत्तियों की रचना की गई। एक अप्रकाशित चूर्णि भी बतलाई जाती है। ४. पनवरा ( प्रज्ञापना) नाम : श्रर्थ प्रज्ञापना का अर्थ बतलाना, सिखलाना या ज्ञापित करना है। इस उपाँग का नाम वस्तुतः अन्वर्थक है । यह जैन तत्त्व ज्ञान का उत्कृष्ट उद्बोधक ग्रन्थ है । यह प्रज्ञापना, स्थान, बहु-वक्तव्य, क्षेत्र, स्थिति, पर्याय, श्वासोच्छ्वास, संज्ञा, योनि, भाषा, शरीर, परिणाम, कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्या, काय स्थिति, दृष्टि, क्रिया, कर्म-बन्ध, कर्म- स्थिति, कर्म - वेदना, कर्म-प्रकृति, आहार, उपयोग, संज्ञी, अवधि, परिचारणा, वेदना - परिणाम, समुद्घात प्रभृति छत्तीस पदों में विभक्त है । पदों के नाम से स्पष्ट है कि इसमें जैन सिद्धान्त के अनेक महत्वपूर्ण पक्षों पर विवेचन हुआ है, जो तस्वज्ञान के परिशीलन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है । उपांगों में यह सर्वाधिक विशाल हैं। गों में जो स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति का है, उपांगों में वैसा ही स्थान इस आगम का है । व्याख्या प्रज्ञप्ति की तरह इसे भी जैन तत्त्वज्ञान का वृहत् कोश कहा जा सकता है । रचना ऐसा माना जाता है कि वाचकवंशीय आर्य श्याम ने इसकी रचना की। वे अंशतः पूर्वधर माने जाते थे । अज्ञातकर्तृक दो गाथायें प्राप्त होती हैं, जिनसे ये तथ्य पुष्ट होते हैं । उनका आशय १. वायगवरवंसाओ तेवीसइमेण धीरपुरिसेण । दुद्धरधरेण मुणिरणा, पुग्वसुयसमिद्धबुद्धीगं । सुयसागरविएऊरण, जेसा सुरयणमुत्तमं दिव्ां । सीसगरणस्स भगवनो, तस्स गमो प्रज्जसामस्स ॥ - अमोलक ऋषि द्वारा अनूदित प्रज्ञापना सूत्र; प्रथम भाग, पृ. २, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनामम दिग्दर्शन इस प्रकार है : “वाचकवंशीय, आर्य सुधर्मा की तेवीसवीं पीढ़ी में स्थित, धैर्यशील, पूर्वश्रुतः में समुद्ध, बुद्धि-सम्पन्न प्राय श्याम को वन्दन करते हैं जिन्होंने श्रुत-ज्ञान रूपी सागर में से अपने शिष्यों को यह (प्रज्ञापना) श्रुत-रत्न प्रदान किया।" . आर्य श्याम के प्रार्य सुधर्मा से तेवीसवीं पीढ़ी में होने का जो उल्लेख किया है, वह किस स्थविरावली या पट्टावली के आधार पर किया गया है, ज्ञात नहीं होता। नन्दी-सत्र में वर्णित स्थविरावली में श्याम नामक आचार्य का उल्लेख तो है, पर वे सुधर्मा से प्रारम्भ होने वाली पट्टावली में बारहवें होते है।' तेवीसवें स्थान पर वहां ब्रह्मदीपकसिंह नामक आचार्य का उल्लेख है। उन्हें कालिक श्रृंत तथा चारों अनुयोगों का धारक व उत्तम वाचक-पदप्राप्त कहा है। कल्पसूत्र की स्थविरावली से आर्य श्याम की ऋमिक संख्या मेल नहीं खाती। रचना का प्राधार : एक कल्पना .. प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में लेखक की ओर से स्तवनात्मक दो - गाथायें हैं, जो महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं : "सूत्र-रत्नों के निधान, भव्यजदों के लिए निर्वत्तिकारक भगवान् महावीर ने सब जीवों के भावों की प्रज्ञापना उपदिष्ट की। भगवान् ने दुष्टिवाद से निर्भरित, १. सुहम्मं अग्गिवेसारणं, जंबूनामं च कासवं । पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छं सिज्जभवं तहा ॥ जसमद्दतुगीयं वंदे संभूयं चेव माढरं। . भद्दबाहुं च पाइन्न', थूलभद्दच गोयमं ॥ एलावच्चसगोत्तं, वंदामि महागिरि सुहत्थि च । ततो कोसियगोत्त, बहुलस्स बलिस्सहं वंदे ॥ हारियगोत्तं सायं च, वंदे मोहागोरियं च सामज्जं । -नन्दीसूत्र स्थविरावली; गाथा २५-२८ २. अयलपुरम्मि खेत्ते, कालियसुय अणुगए धीरे । बंभद्दीवगसीहे वायगपयमुत्तमं पत्ते॥ -नन्दीसूत्र, स्थविरावली : गाथा ३६ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम विविध अध्ययनयुक्त इस श्रुत-रत्न का जिस प्रकार विवेचन किया है, मैं भी उसी प्रकार करूंगा। इन गाथाओं में प्रयुक्त 'दिट्ठिवायणीसंद' पद पर विशेष गौर करना होगा। दृष्टिवाद व्युछिन्न माना जाता है। श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् उसके सम्पूर्ण वेत्ताओं की परम्परा मिट गई । पर, अंशतः वह रहा । श्यामार्य के सम्बन्ध में जिन दो वन्दनमूलक गाथाओं की चर्चा की गई है, वहां उन्हें पूर्व-ज्ञान से युक्त भी कहा गया है । सम्भवतः आर्य श्याम प्रांशिक दृष्ट्या पूर्वज्ञ रहे हों। हो सकता है, इसी अभिप्रायः से उन्होंने यहां दृष्टिवाद-निस्यन्द शब्द जोड़ा हो, जिसका प्राशय रहा हो कि दृष्टिवाद के मुख्यतम भाग पूर्व-ज्ञान से इसे गृहीत किया गया है। प्रस्तुत आगम में वर्णित वनस्पति आदि के भेद-प्रभेद बहुत ही विस्तृत व विज्ञेय हैं । भेद-प्रभेदों के इसी क्रम में म्लेच्छों व आर्यों का भी उल्लेखनीय चित्रण है। म्लेच्छ शक, यवन, चिलात (किरात), शबर, बर्बर, मरुड, उड्ड (ोड़),भडग, निण्णग, पक्कणिय, कुलक्ख, गोंड, सिंहल, पारस, गोध, कोंच, अंध. दमिल (द्रविड़), चिल्लल, पुलिंद, हरोस, डोंब, बोक्कण, गंधहारग, वहलीक, उज्झल (जल्ल), रोमपास, बकुश, मलय, बंधुय, सूयलि, कोंकणग, मेय, पह्लव, मालव, मग्गर, आभासिय, आणक्ख, चीण, लासिक, खस, खासिय, नेहुर, मोंढ, डोंबिलग, लोस, पनोस, केकय, अक्खाग, हूण, रोमक, रुरु, मरुय आदि। पार्य आर्य दो प्रकार के होते हैं-ऋद्धि-प्राप्त और अनृद्धि-प्राप्त । ऋद्धि प्राप्त-अरहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण और विद्या१. सूयरयणनिहाणं, जिरणवरेण भवियणनिव्वुइकरेणं । . उवदंसियाः भगवया, पण्णवरणा सव्वभावारणं ॥... अज्झयणमिणं चित्त, सुयरयरणं दिठिवायरणीसंदं । जहवणियं भगवया, अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥ -प्रज्ञापना: मंगलाचरण. २. ३ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन घर । अनृद्धि प्राप्त नौ प्रकार के होते हैं-क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, कार्य, शिल्पार्य, भाषार्य, ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य । क्षेत्रार्य-साढ़े पच्चीस (२५३) देश में माने जाते हैं : जनपद राजधानी १. मगध राजगृह २. अंग चम्पा ३. बंग ताम्रलिप्ति ४. कलिंग कांचनपुर ५. काशी वाराणसो ६. कोशल साकेत ७. कुरु गजपुर ८. कशावर्त शौरिपुर ६. पांचाल कांपिल्यपुर १०. जांगल अहिच्छत्रा ११. सौराष्ट्र द्वारवती १२. विदेह मिथिला १३. वत्स कौशाम्बी १४. शाण्डिल्य नन्दिपुर १५. मलय १६. मत्स्य वैराट १७. वरणा अच्छा १८. दशार्ण मृत्तिकावती १६ चेदि शुक्ति २०. सिन्धुसौवीर वीतिभय २१. शरसेन मथुरा २२. भंगि पापा २३. वट्टा (?) मासपुरी (?) २४. कुणाल श्रावस्ती २५. लाढ़ कोटिवर्ष २५३. केकयीअर्ध श्वेतिका प भद्रिलपुर Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पैतालीस प्रागम जात्यार्य-अंबष्ठ, कलिंद, विदेह, वेदग, हरित, चुचुण (या तुतुण)। कुलार्य-उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञात, कौरव । कार्य-दौष्यिक ( कपड़े बेचने वाले ), सौत्रिक ( सूत बेचने वाले), कार्पासिक (कपास बेचने वाले), सूत्रवैकालिक, भांडवैकालिक, कोलालिय (कुम्हार), नरवाहनिक (पालकी आदि उठाने वाले)। शिल्पार्य-तुन्नाग (रफू करने वाले), तन्तुवाय (बुनने वाले), ‘पटकार (पटवा), देयड़ा (हतिकार, मशक बनाने वाले), काष्ठपादुकाकार (लकड़ी की पादुका बनाने वाले), मंजुपादुकाकार, छत्रकार, वज्झार (वाहन करने वाले), पोत्थकार (पूछ के बालों से झाङ आदि बेचने वाले, अथवा मिट्टी के पुतले बनाने वाले), लेप्यकार, चित्रकार, शंखकार, दंतकार, भांडकार, जिज्झगार, सेल्लगार (भाला बनाने वाले), कोडिगार (कोड़ियों की माला बनाने वाले)। भाषार्य-अर्धमागधी भाषा बोलने वाले। ब्राह्मी लिपी लिखने के प्रकार-ब्राह्मी, यवनानी, दोसापुरिया, खरोष्ट्री, पुक्खरसारिया, भोगवती, पहराइया, अतक्खरिया, (अंताक्षरी), अक्खरपुट्ठिया, कैनयिकी, निह्नविकी, अंकलिपि, गणितलिपि, अादर्श लिपि, माहेश्वरी, दोमिलिपि (द्राविड़ी), पौलिन्दी। ज्ञानार्य पांच प्रकार के हैं—आभिनिबोधिक, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । दर्शनार्य–सरागदर्शन, वीतराग दर्शन । सराग दर्शननिसर्ग रुचि, उपदेश रुचि, प्राज्ञा रुचि, सूत्र रुचि, बीज रुचि, अभिगम रुचि, विस्तार रुचि, क्रिया रुचि, संक्षेप रुचि, धर्म रुचि । वीतराग दर्शन-उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय । . चारित्रार्य-सराग चारित्र, वीतराग चारित्र । सराग चारित्रसूक्ष्मसम्पराय, बादर सम्पराय । वीतराग चारित्र-उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय । अथवा चारित्रार्य पांच होते हैं--सामायिक, छेदोपस्थान, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय, यथाख्यात चारित्र । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ व्याख्या साहित्य प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने प्रदेशाख्या लघुवृत्ति की रचना की है। आचार्य मलयगिरि ने उसी के आधार पर टीका की रचना की । कुलमण्डन ने प्रवचूरि लिखी । जैनागम दिग्दर्शन व्याख्याकारों ने इस आगम में समागत पाठ भेदों का भी उल्लेख किया है । अनेक स्थलों पर कतिपय शब्दों को अव्याख्येय मानते हुए टीकाकार ने उन्हें सम्प्रदायगम्य कहकर छोड़ दिया है । सम्भव है, वे शब्द स्पष्टार्थ द्योतक नहीं प्रतीत हुए हों; अतः आम्नाय या परम्परा से समझ लेने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता था ? प्रज्ञापना का ग्यारहवां पद भाषा-पद है । उपाध्याय यशोविजयजी ने इसका विवेचन किया है । ५. सूरियपन्नत्ति (सूर्य प्रज्ञप्ति) द्विसूर्य सिद्धान्त, सूर्य के उदय, ग्रस्त, आकार, प्रोज, गति प्रादि विस्तार से वर्णन है, जिससे इसके नाम की अन्वर्थकता प्रकट होती है । साथ ही साथ चन्द्र, अन्यान्य नक्षत्र आदि के आकार, गति, अवस्थिति आदि का भी विशद विवेचन है । बीस प्राभृतों में विभक्त यह ग्रन्थ एक सौ आठ सूत्रों में सन्निविष्ट है । प्राभृत प्राकृत के 'पाहुड' शब्द का संस्कृत-रूपान्तर है । प्राभृत का अर्थ अनेक ग्रन्थों के अध्याय या प्रकरण के अर्थ में प्राभृत शब्द प्रयुक्त पाया जाता है । इसका शाब्दिक तात्पर्य उपहार भेंट या समर्पण है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसकी व्याख्या इस प्रकार है : "अपने अभीष्ट - प्रिय जन को जो परिणाम - सरस, देश - कालोचित दुर्लभ वस्तु दी जाती है और जिससे प्रिय जन की चित्त प्रसन्नता प्रासादित की जाती है, लोक में उसे प्राभृत कहा जाता है ।" " १. उच्चते - इह प्राभृतं नाम लोके प्रसिद्ध यदभीष्टाय पुरुषाय देश-कालोचित्त दुर्लभं वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते ततः प्राम्रियते प्राप्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तेः । - श्रभिधान राजेन्द्र पंचम भाग; पृ. ६१४ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस श्रागम ग्रन्थ के प्रकरण के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या इस प्रकार है : "अपने प्रिय तथा विनय प्रादि गुण-युक्त शिष्यों को देश और काल की उचितता के साथ जो ग्रन्थ-सरणियां दी जाती हैं, उन्हें भी प्राभृत कहा जाता है ।"" शब्द चयन में जैन विद्वानों के मस्तिष्क की उर्वरता इससे स्पष्ट है । प्रकरण के अर्थ में प्राभृत शब्द वास्तव में साहित्यिक सुषमा लिये हुए है । व्याख्या - साहित्य श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति की रचना की, ऐसा प्रसिद्ध है । पर, वह प्राप्त नहीं है, काल-कवलित हो गईं है । आचार्य मलयगिरि की इस पर टीका है । वास्तव में यह ग्रन्थ इतना दुर्ज्ञेय है कि टीका की सहायता के बिना समझ पाना सरल नहीं है । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि से सम्बद्ध अपने विशेष प्रकार के विश्लेषण के कारण यह ग्रन्थ विद्वज्जगत् में आकर्षण का केन्द्र रहा है । प्रो० वेबर ने जर्मन भाषा में इस पर एक निबन्ध लिखा, जो सन् १८६० में प्रकाशित हुआ । सुना जाता है, डा० आर० शाम शास्त्री ने इसका A Brief Translation of Mahavira's Suryaprajnapti के नाम से अ ंग्रेजी में संक्षिप्त अनुवा दकिया था ! पर, वह भी अप्राप्य है । डा० थीबो ने सूयप्रज्ञप्ति पर लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने जैनों के द्विसू और द्विचन्द्रवाद की भी चर्चा की थी । उनके अनुसार यूनान के लोगों में उनके भारत आने के पूर्व यह सिद्धान्त सर्व स्वीकृत था | Journal of The Asiatic Society of Bengal, Vol. no 49, P. 107 में वह लेख प्रकाशित हुआ था । ६७ ६. जम्बूद्दीवपन्नत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति) जम्बूद्वीप से सम्बद्ध इस उपांग में अनेकविध वर्णन हैं । इस ग्रन्थ के दो भाग हैं- पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । पूर्वार्द्ध चार वक्षस्कारों तथा उत्तरार्द्ध तीन वक्षस्कारों में विभक्त हैं । समग्र उपांग में १७६ सूत्र हैं । १. विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभा परिणामसुन्दराश्चाभीष्टेभ्यो विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येनोपनीयन्ते । - श्रभिधान राजेन्द्र पञ्चम भाग, पृ. ६१४. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ जैनागम दिग्दर्शन वक्षस्कार का तात्पर्य वक्षस्कार का अर्थ यहां प्रकरण को बोधित कराता है। पर, वास्तव में जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जिनका जैन भगोल में कई अपेक्षाओं से बड़ा गहत्व है । जम्बूद्वीप से सम्बद्ध विवेचन के सन्दर्भ में ग्रन्थकार, प्रकरण का अवबोध कराने के हेतु वक्षस्कार का जो प्रयोग करते हैं; वह सर्वथा संगत है। जम्बूद्वीपस्थ भरत क्षेत्र आदि का इस उपाँग में विस्तृत वर्णन है। उनके सन्दर्भ में अनेक दुर्गम स्थल, पहाड़, नदो, गुफा, जंगल आदि की चर्चा है। - जैन काल-चक्र-अवसर्पिणी-सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषम-सुषमा, दुःषमा, दुःषम-दुःषमा, तथा उत्सर्पिणीदुःषम-दुषमा, दुषमा, दुःषम-सुषमा, सुषम-दुःषमा, सुषमा. सुषमसषमा का सविस्तार वर्णन है। उस सन्दर्भ में चौदह कुलकर आदि, तीर्थ कर ऋषभ, बहत्तर कलायें, स्त्रियों के लिये विशेषतः चौसठ कलायें तथा अनेक शिल्प आदि की चर्चा है । इस कोटि का और भी महत्वपूर्ण वर्णन है । जैन भूगोल तथा प्रागितिहास-कालीन भारत के अध्ययन को दृष्टि से जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का विशेष महत्व है। ७. चन्दपन्नत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति) स्थानांग में उल्लेख स्थानांग सूत्र' में सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के साथ चन्द्रप्रज्ञप्ति का भी अंग बाह्य के रूप में उल्लेख हुमा है। इससे स्पष्ट है कि सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति दोनों प्राचीन हैं। दोनों कभी पृथक्-पृथक् थे, दोनों के अपने-अपने विषय थे। वर्तमान में चन्द्रप्रज्ञप्ति का जो संस्करण प्राप्त है, वह सूर्यप्रज्ञप्ति से सर्वथा-अक्षरशः मिलता है । भेद है तो केवल मंगलाचरण तथा ग्रन्थ में विवक्षित बीस प्राभृतों का संक्षेप में वर्णन करने वाली अठारह गाथाओं का । चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में ये गाथायें हैं। १. चत्तारि पण्णत्तीपो अंगबाहिरियानो पण्णतामो, तं जहा-चंदपण्णत्ती, सूरपण्णती, जंबूद्दीवपण्णती, दीवसागरपण्णती। -स्थानांग सूत्र; स्थान ४,१,४७ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रामम ६४ तत्पश्चात् क्रम-निर्दिष्ट विषय प्रारम्भ होता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में ये गाथायें नहीं हैं अर्थात् मंगलाचरण तथा विवक्षित विषय-सूचन के बिना ही ग्रन्थ प्रारम्भ होता है, जो आद्योपान्त चन्द्रप्रज्ञप्ति जैसा है। वास्तव में यदि ये दो ग्रन्थ हैं, तो ऐसा क्यों ? यह एक प्रश्न है, जिसका अनेक प्रकार से समाधान किया जाता है। रहस्यमय : एक समाधान अतिपरम्परावादो धार्मिक, जिन्हें स्वीकृत मान्यता की परिधि से बाहर निकल कर जरा भी सोचने का अवकाश नहीं है, सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति के परिपूर्ण पाठ-साम्य को देखते हुए भी आज भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि ये दो ग्रन्थ नहीं हैं । उनका विचार है कि सूर्य, चन्द्र, कतिपय नक्षत्र आदि की गति, क्रम आदि से सम्बद्ध कई ऐसे विषय हैं, जो प्रवृत्तितः एक समान हैं; अतः उनमें तो भेद की कोई बात ही नहीं है । एक जैसे दोनों वर्णन दोनों स्थानों पर लागू होते हैं। अनेक विषय ऐसे हैं, जो दोनों में भिन्न-भिन्न हैं, यद्यपि उनकी शब्दावली एक है। एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । सामान्यतः प्रचलित अर्थ को ही लोग अधिकांशत: जानते हैं। अप्रचलित अर्थ प्रायः अज्ञात रहता है। बहुत कम व्यक्ति उसे समझते हैं । यहां कुछ ऐसा ही हुआ प्रतीत होता है। वास्तव में दोनों उपांगों में प्रयुक्त एक जैसे शब्द भिन्नार्थक हैं। ऐसा किये जाने के पीछे भी एक चिन्तन रहा होगा । बहुत से विषय ऐसे हैं, जिनका उदघाटन सही अधिकारी या उपयुक्त पात्र के समक्ष ही किया जाता है, अनधिकारी या अपात्र के समक्ष नहीं; अतः उन्हें रहस्यमय या गुप्त बनाये रखना आवश्यक होता है। अधिकारी को उन्हीं शब्दों द्वारा वह ज्ञान दे दिया जाता है, जिनका अर्थ सामान्यतः व्यक्त नहीं है । ऐसी ही कुछ स्थिति यहां रही हो, तो आश्चर्य नहीं । कभी परम्परा से इन रहस्यों को जानने वाले विद्वान् रहे होंगे, जो अधिकारी पात्रों के समक्ष उन रहस्यों को प्रकाशित करते रहे हों। पर, वह परम्परा सम्भवतः मिट गई। रहस्य रहस्य ही रह गये। यही कारण है इन दोनों उपांगों के सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रश्न उपस्थित होते हैं। वास्तव में वर्तमान में ज्ञान के अल्पत्व के कारण Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनागम दिग्दर्शन ऐसा है। तथ्य यही है, दोनों उपांग, जो वर्तमान में उपलब्ध हैं, यथावत् हैं, अपरिवर्तित हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न हो माना जाना चाहिये । कहने को स्वीकृत परम्परा के संरक्षण के हेतु जो कुछ कहा जा सकता है, पर, विवेक के साथ उसको यथार्थता का अंकन करने का प्रबुद्ध मानव को अधिकार है। इसलिये यह कहना परम्परा का खण्डन नहीं माना जाना चाहिए कि रहस्यमयता और शब्दों को अनेकार्थकता का सहारा पर्याप्त नहीं है, जो इन दोनों उपाँगों के अनैक्य या असादृश्य को सिद्ध कर सके। अधिक युक्तियां उपस्थित करने को आवश्यकता नहीं है। विज्ञजन उन्मुक्त भाव से चिन्तन करेंगे, तो ऐसा सम्भव प्रतीत होगा कि उनमें से अधिकांश को किसी रहस्यमयता तथा शब्दों के बह्वर्थकता-मूलक समाधान से तुष्टि नहीं होगी। यह मानने में कोई अन्यथाभाव प्रतीत नहीं होना चाहिए कि वर्तमान में उपलब्ध ये दोनों उपांग स्वरूपतः शाब्दिक दृष्टि से एक हैं और तात्पर्यतः भी दो नहीं प्रतीत होते। एक सम्भावना • हो सकता है, कभी प्राचीन काल में कहीं किसो ग्रन्थ-भण्डार में सूर्यप्रज्ञप्ति की दो हस्तलिखित प्रतियां पड़ी हों। उनमें से एक प्रति ऊपर के पृष्ठ व उस पर लिखित 'सूर्यप्रज्ञप्ति' नाम सहित रही हो तथा दूसरी का ऊपर का पत्र-नाम का पत्र नहीं रहा हो, नष्ट हो गया हो, खो गया हो। नामवालो प्रति में भी प्रारम्भ का पत्र, जिसमें मांगलिक व विषयसूचक गाथानों का उल्लेख था, खोया हुअा हो। अर्थात् अब दोनों प्रतियों का स्वरूप इस प्रकार समझा जाना चाहिए। उन दोनों प्रतियों में एक प्रति ऐसी थी, जिसका ऊपर का पृष्ठ था, उस पर ग्रन्थ का नाम था, पर, उसमें गाथायें नहीं थों। ग्रन्थ का विषय सोधा प्रारम्भ होता था। गाथानों का पत्र लुप्त था। दूसरी प्रति इस प्रकार की थी, जिसमें ऊपर का पृष्ठ, ग्रन्थ का नाम नहीं था । ग्रन्थ का प्रारम्भ गाथाओं से होता था। दोनों में केवल भेद इतना-सा था, एक गाथाओं से युक्त थो, दूसरी में गाथाएं नहीं थीं, पर, आपाततः देखने पर दोनों का प्रारम्भ भिन्न लगता था, इससे इस विषय को नहीं समझने वाले व्यक्ति के लिए असमंजसता हो Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस मागम १०१ सकती थी। किसी व्यक्ति ने भण्डार में ग्रन्थों को व्यवस्थित करने हेतु या सूची बनाने के हेतु ग्रन्थों की छान-बीन की हो। जैन अगों, उपांगों आदि के पर्यवेक्षण के सन्दर्भ में ये दोनों प्रतियां उसके सामने आयी हों। नाम सहित प्रति के सम्बन्ध में तो उसे कोई कठिनाई नहीं हुई; क्योंकि वह नाम भी स्पष्ट था और ग्रन्थारम्भ भी। ऊपर के पत्र से रहित, बिना नाम की प्रति के सम्बन्ध में उसे कुछ सन्देह हमा हो, उसने ऊहापोह किया हो । सम्भवतः वह व्यक्ति विद्वान् न रहा हो । भण्डार की व्यवस्था या देख-रेख करने वाला मात्र हो, या ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने वाला साधारण पठित व्यक्ति रहा हो। ऐसा सम्भव है कि प्रथम प्रति को जिसमें ग्रन्थ-नाम था, गाथाएं नहीं थीं, प्रकरण प्रारम्भ से चालू होता था, उसने यथावत् रहने दिया। दूसरी प्रति, जिस पर नाम नहीं था, गाथाओं के कारण जो भिन्न ग्रन्थ प्रतीत होता था, के लिए उसने कल्पना की हो कि वह सम्भवतः चन्द्रप्रज्ञप्ति हो और अपनी कल्पनानुसार वैसा नाम लगा दिया हो। वह ग्रन्थ को भीतर से देखता, गवेषणा करता, पाठ मिलाता, यह सब तो तब होता, जब वह एक अनुसन्धित्सु विद्वान् होता। चन्द्रप्रज्ञप्ति का यथार्थ रूप तब तक सम्भवतः नष्ट हो गया होगा; अतः अन्यत्र कहीं उसकी सही प्रतिमिल नहीं सकी हो और उसी प्रति के आधार पर, जिस पर नाम बतलाया गया था, एक ही पाठ के ग्रन्थ दो नामों से चल पड़े हों, चलते रहे हों। शताब्दियां बीतती गयीं और एक ही पाठ के दो ग्रन्थ पृथक्-पृथक् माने जाते रहे। धर्म श्रद्धा भी देता है और विवेक भी। विवेक-शून्य श्रद्धा अचक्षुष्मती कही जाती है। पर, धर्म के क्षेत्र में वैसा भी होता है, जो पालोच्य है, प्रादेय नहीं। अति श्रद्धा-पूर्ण मानस के बाहुल्य के कारण प्रागमवेत्ताओं में इस तथ्य को जानते हुए भी व्यक्त करने का उत्साह क्यों होता ? जब लोगों के समक्ष यह स्थिति आई, तो अपनी मान्यता और परम्परा के परिरक्षण के निमित्त ऐसे तर्कों का, जिस ओर इगित किया गया है, जिन्हें तर्क नहीं, तर्काभास कहा जा सकता है, सहारा लिया जाने लगा। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनागम दिग्दर्शन बर्तमान में दो कहे जाने वाले उपांगों का जो कलेवर है, उसे देखते हुए यह मानने में धर्म की जरा भी विराधना या सम्यक्त्व का हनन नहीं लगता कि एक ही पाठ को दो ग्रन्थों के रूप में स्वीकार करने की बात कुछ और गवेषणा, चिन्तन तथा परिशीलन की मांग करती है, ताकि यथार्थ की उपलब्धि हो सके । संख्या-क्रम में भिन्नता उपांगों के संख्या-क्रम में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्राप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति की स्थानापन्नता में कुछ भेद है। बत्तीस आगम-ग्रन्थों के प्रथम हिन्दी अनुवादकर्ता श्री अमोलक ऋषि ने जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति को पाँचवां, चन्द्र-प्रज्ञप्ति को छठा तथा सूर्य-प्रज्ञप्ति को सातवां उपांग माना है। विप्टरनित्ज का इस सम्बन्ध में अभिमत है कि मूलतः चन्द्र-प्रज्ञप्ति की गणना सूर्यप्रज्ञप्ति से पहिले की जाती रही है । विण्टरनित्ज यह भी मानते हैं कि चन्द्रप्रज्ञप्ति का आज जो रूप है, पहले वैसा नहीं था। उसमें इनसे भिन्न विषय थे। संख्या-क्रम में मैंने पांचवें स्थान पर सूर्यप्रज्ञप्ति; छठे स्थान पर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा सातवें स्थान पर चन्द्रप्रज्ञप्ति को लिया है। कारण यह है, जहां तक पता चलता है, सूर्य प्रज्ञप्ति अपने यथावत् रूप में विद्यमान है । अपने नाम के अनुरूप उस में सर्य-सम्बन्धी वर्णन अपेक्षाकृत अधिक है। चन्द्र का भी वर्णन है, पर, विस्तार और विविधता में उससे कम । चन्द्रप्रज्ञप्ति का वर्तमान सस्करण स्पष्ट ही मौलिकता की दृष्टि से आलोच्य है; अतः इसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के पश्चात् लिया गया है। प्राचार्य मलय.. गिरि की इस पर टीका है। पांच निरयावलिया निरयावलिया (निरयावलिका) में पांच उपांगों का समावेश है, जो इस प्रकार है : - १. निरयावलिया या कप्पिया (कल्पिका) २. कप्पवडंसिया (कल्पावतंसिका) ३. पुप्फिया (पुष्पिका) ४. पुप्फचूलिया (पुष्पचूलिका) १५. वहि दशा (वृष्णि दशा) ___ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पैंतालीस पागम पहले कभी सम्भवतः ये पांचों एक ही निरयावलिका सूत्र के रूप में रहे हों। पर, जब अंगों के समकक्ष उपांग भी बारह की संख्या में प्रतिष्ठित किये जाने अपेक्षित माने गये, तो उन्हे पांच उपांगों के रूप में पृथक-पृथक् मानने की परम्परा चल पड़ी।। ८. निरयावलिया (निरयावलिका) या कप्पिया (कल्पिका) प्रस्तुत उपांग दश अध्ययनों में विभक्त है, जिनके नाम इस प्रकार हैं : १, कालकुमार अध्ययन, २. सुकालकुमार अध्ययन, ३. महाकालकुमार अध्ययन, ४. कृष्णकुमार अध्ययन, ५. सकृष्णकमार अध्ययन, ६. महाकृष्णकुमार अध्ययन, ७. वीरकृष्णकुमार अध्ययन, ८. रामकृष्णकुमार अध्ययन, ६. प्रियसेन कृष्णकुमार अध्ययन तथा १०. महासेन कृष्णकुमार अध्ययन । जिन कुमारों के नाम से ये अध्ययन हैं, वे मगधराज श्रेणिक के पुत्र तथा कूणिक (अजातशत्रु) के भाई थे, जो वैशाली गणराज्य के अधिनायक चेटक और कूणिक के बीच हुए संग्राम में चेटक के एक-एक बाण से क्रमशः मारे गये। विषय-वस्तु प्रथम अध्ययन कृष्णकुमार के प्रसंग से प्रारम्भ होता है। उसकी माता कालीदेवी कूणिक के साथ युद्ध में गये हुये अपने पुत्र के विषय में भगवान महावीर से प्रश्न पूछती है। भगवान् से यह जानकर कि वह युद्ध में चेटक के कारण से मारा गया है, वह बहुत दुःखित और शोकान्वित हो जाती है । कुछ यथावस्थ होने पर वापिस लौट जाती है। गणधर गौतम तब भगवान महावीर से कालकमार के अग्रिम भव और विगत भव के सम्बन्ध में प्रश्न करते हैं। उसका भगवान् महावीर जो उत्तर देते हैं, उस सन्दर्भ में कूणिक-अजातशत्रु के जीवन का इतिवृत्त विस्तत रूप में उपस्थित हो जाता है। श्रेणिक की गर्भवती रानी चेल्लणा का पति के कलेजे के मांस के तले हुए शोलों तथा मदिरा का प्रसन्नतापूर्वक प्रास्वाद लेने का निघृण १. मूल पाठ में 'सोलेहि' शब्द पाया है, जिसका संस्कृत रूप 'शोलेः' होगा । शूल या काँटे से तले जाने के कारण उस प्रकार के मांस के टुकड़ों को शील कहा जाता होगा। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनागम दिग्दर्शन दोहद, अभयकुमार द्वारा बुद्धिमत्तापूर्वक उसकी पूर्ति, कूणिक का जन्म माता द्वारा उसे उत्कुरडी (घूरे) पर फिकवाया जाना, श्रेणिक द्वारा उसे वापिस लाया जाना, स्नेह पूर्वक पाला जाना, बड़े होने पर कूणिक द्वारा पिता श्रेणिक को बन्दीगृह में डाल राज-सिंहासन हथियाया जाना, श्रेणिक द्वारा दुःखातिरेक से आत्म-हत्या किया जाना, अपने छोटे भाई वेहल्लकुमार के कारण सेचनक हस्ती आदि न लौटाये जाने से वैशाली गणराज्य के अधिपति चेटक पर कूणिक द्वारा चढ़ाई किया जाना आदि का इस सन्दर्भ में वर्णन आता है । रथमूसल तथा महाशिलाकंटक संग्राम का वहां उल्लेख मात्र है। उस सम्बन्ध में व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का संकेत कर दिया गया है। दूसरे अध्ययन को सामग्री केवल इतनी-सी है- “उस समय चम्पा नगरी थी। पूर्णभद्र चैत्य था। कूणिक राजा था और पद्मावती उसकी रानी थी। वहाँ चम्पा नगरी में पहले राजा श्रेणिक की भार्या, कूणिक की कनिष्ठा माता सुकुमारांगी सुकाली रानी थी। सुकाली देवी के सुकुमारांग सुकालकुमार हुा । तीन सहस्र हाथियों को लिए युद्ध में गया हुअा कालकुमार जिस प्रकार मारा गया, उसी तरह का समग्र वृत्तान्त सुकालकुमार का भी है। अन्ततः सुकालकुमार भी महाविदेह क्षेत्र में संसार का अन्त करेगा-सिद्ध होगा ।"१ दूसरे अध्ययन का वृत्तान्त यहीं समाप्त हो जाता है ।। १. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णामं रणयरी होत्या । पुण्णभद्दे चेइए, कूरिणय राया, पउमावई देवी । तत्थणं चंपानयरीए सेणियस्स रण्णो अज्ज कोणियस्स रण्णो चुल्लमाउया सुकाली नाम देवी होत्था सुकुमाला । . तीसेणं सुकालीए देवीए पुत्ते सुकाले नामे कुमारे Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस प्रागम १०५ तीसरे से दशों तक के अध्ययनों का वर्णन भी केवल इतनी-सी पंक्तियों में है : " शेष आठों अध्ययनों को प्रथम अध्ययन के सदृश समझना चाहिए । पुत्रों और माताओं के नाम एक जैसे हैं । निरयावलिका सूत्र समाप्त होता है ।" " ६. कप्पवडंसिया (कल्पावतंसिका) कल्पावतंस का अर्थ विमानवासी देव होता है । कल्पावतंसिका शब्द उसी से निष्पन्न हुआ है । इस उपांग में दश अध्ययन हैं, जिनमें राजा कोणिक के दश पौत्रों के संक्षिप्त कथानक हैं, जो स्वर्गगामी हुए । दश अध्ययनों के नाम चरित नायक कुमारों के नामों के अनुरूप हैं, जैसे, १. पद्मकुमार-अध्ययन, २. महापद्मकुमार अध्ययन, ३ भद्रकुमार- अध्ययन, ४. सुभद्रकुमार अध्ययन, ५. पद्मभद्रकुमार · अध्ययन ६. पद्मसेनकुमार-अध्ययन, ७ पद्मगुल्मकुमार अध्ययन, ८. नलिनीगुल्मकुमार - अध्ययन, E, आनन्दकुमार अध्ययन तथा १० नन्दकुमार-अध्ययन | दशों कुमार निरयावलिका (कल्पिका) में वर्णित राजा श्रेणिक के कालकुमार आदि दशों पुत्रों के क्रमशः पुत्र थे । प्रथम अध्ययन में कालकुमार के पुत्र पद्मकुमार के जन्म, दीक्षा ग्रहण, स्वर्ग-गमन तथा अन्ततः महाविदेह क्षेत्र में जन्म ले कर सिद्धत्व प्राप्त करने तक का संक्षेप में लगभग चार-पांच पृष्ठों में वर्णन है । दूसरे अध्ययन में सुकालकुमार के पुत्र महापद्म का संक्षिप्ततम विवरण है । केवल उसके जन्म के वृत्तान्त का पांच-सात पंक्तियों में सूचन कर ग्रागे प्रथम अध्ययन की तरह समझ लेने का संकेत किया गया है । तीसरे अध्ययन से | पूर्व पृष्ठ का शेष ] होत्था सुकुमाले । ततेगं से सुकाले कुमारे प्रन्नयाकयाइ तिहि दंतिसहस्सेहि जहा काले कुमारे निरविसेसं तहेव महादिदेवा से अंते करेहिंति । - निरयावलिया; द्वितीय अध्ययन, पृ० ६३-६४ १. एवं सेसा वि भट्ठ प्रज्भयरणा, नायव्वा पढमं सरिसा, गवरं माताश्रो सरिसा णामा । गिरयावलीयाओ सम्मत्ताम्रो । — निरयावलिया; समाप्ति-प्रसंग | Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनागम दिग्दर्शन दशवें अध्ययन तक की सूचना केवल प्राघी पंक्ति में यह कहते हुए कि उन्हें प्रथम अध्ययन की तरह समझ लेना चाहिए, दे दी गयी है । साथ-साथ यह भी सूचित किया गया है कि उनको माताएं उनके सदृश नामों की धारक थीं । अन्त में दशों कुमारों के दीक्षा पर्याय को भिन्न-भिन्न समयावधि तथा भिन्न-भिन्न देवलोक प्राप्त करने का उल्लेख करते हुए उपांग का परिसमापन कर दिया गया है । यह उपांग बहुत संक्षिप्त है । मगध भगवान् महावीर तथा बुद्ध के समय में पूर्व भारत का एक प्रसिद्ध एकतन्त्रीय ( एक राजा द्वारा शासित राज्य था । कल्पिका तथा कल्पावतंसिका प्रागितिहासकालीन समाज को स्थिति जानने की दृष्टि से उपयोगी हैं । १०. पुष्किया ( पुष्पिका ) प्रस्तुत उपांग में दश अध्ययन हैं, जिनमें ऐसे स्त्री-पुरुषों के कथानक हैं, जो धर्माराधना और तपःसाधना द्वारा स्वर्ग गये । अपने विमानों द्वारा वैभव, समृद्धि एवं सज्जापूर्वक भगवान् महावीर को वन्दन करने आये । तापस-वर्णन तीसरे अध्ययन में सोमिल ब्राह्मण के कथानक के सन्दर्भ में चालीस प्रकार के तापसों का वर्णन है । उनमें कुछ इस प्रकार हैं: (क) केवल एक कमण्डलु धारण करने वाले । (ख) केवल फलों पर निर्वाह करने वाले । (ग) एक बार जल में डुबकी लगा कर तत्काल बाहर निकलने वाले | (घ) बार-बार जल में डुबकी लगाने वाले । (ङ) जल में ही गले तक डूबे रहने वाले । (च) सभी वस्त्रों, पात्रों और देह को प्रक्षालित रखने वाले । (छ) शंख ध्वनि कर भोजन करने वाले । (ज) सदा खड़े रहने वाले । (झ) मृग- मांस के भक्षण करने वाले । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस मागम (ट) हाथी का मांस खाकर रहने वाले। (ठ) सदा ऊंचा दण्ड किये रहने वाले । (ड) वल्कल-वस्त्र धारण करने वाले । (ढ) सदा पानी में रहने वाले। (ण) सदा वृक्ष के नीचे रहने वाले । (त) केवल जल पर निर्वाह करने वाले। (थ) जल के ऊपर आने वाली शैवाल खा कर जीवन चलाने वाले। (द) वायु-भक्षण करने वाले। (घ) वृक्ष-मूल का आहार करने वाले। (न) वृक्ष के कन्द का आहार करने वाले। (प) वृक्ष के पत्तों का आहार करने वाले। (फ) वृक्ष की छाल का आहार करने वाले। (ब) पुष्पों का आहार करने वाले । (भ) बीजों का आहार करने वाले । (म) स्वतः टूट कर गिरे हुए पत्रों, पुष्पों, तथा फलों का आहार करने वाले । (य) दूसरे द्वारा फैंके हुए पदार्थों का आहार करने वाले। (र) सूर्य की आतापना लेने वाले। (ल) कष्ट सह कर शरीर को पत्थर जैसा कठोर बनाने वाले। (व) पंचाग्नि तापने वाले। (श) गर्म बर्तन पर शरीर को परितप्त करने वाले। तापसों के वे विभिन्न रूप उस समय की साधना-प्रणालियों की विविधता के द्योतक हैं । साधारणतः इनमें से कुछ का झुकाव हठयोग या काय-वलेश मुलक तप की ओर अधिक प्रतीत होता है। इन साधनाओं का सांगोपांग रूप क्या था, इनका किन दार्शनिक परम्पराओं या धर्म-सम्प्रदायों से सम्बन्ध था, उन दिनों भारत में उस प्रकार के उनसे भिन्न और भी साधना-क्रम थे क्या, उनके पीछे तत्त्व-चिन्तन की क्या पृष्ठभूमि थी, इत्यादि विषयों के अध्ययन की दृष्टि से ये सूचनाएँ उपयोगी हैं। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन ११. पुप्फचूला (पुष्पचूला) १. श्रीदेवी-अध्ययन, २. ह्रीदेवी-अध्ययन, ३.वृतिदेवी-अध्ययन, ४. कीर्तिदेवी-अध्ययन, ५. बुद्धिदेवी-अध्ययन, ६. लक्ष्मीदेवी-अध्ययन, ७ इलादेवी, अध्ययन, ८. सुरादेवी-अध्ययन, ६. रसदेवी-अध्ययन, १०. गन्धदेवो-अध्ययन, ये दश अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन में श्रीदेवी का वर्णन है। वह देवी दैवी-वैभव, समृद्धि तथा सज्जा के साथ अपने विमान द्वारा भगवान् के दर्शन के लिये पाती है। गणधर गौतम भगवान् महावीर से उसका पूर्व भव पूछते हैं । भगवान् उसे बतलाते हैं। इस प्रकार श्रीदेवी के पूर्व जन्म का कथानक उपस्थित किया जाता है। दूसरे से दशवें तक के अध्ययन केवल संकेत मात्र हैं, जो इस प्रकार हैं:-जिस प्रकार प्रथम अध्ययन में श्रीदेवी का वृत्तान्त वणित हना है, उसी प्रकार अवशिष्ट नौ देवीयों का समझ लें। उन देवियों के विमानों के नाम उनके अपने-अपने नामों के अनुसार हैं। सभी सौधर्म-कल्प में निवास करने वाली हैं । पूर्व भव के नगर, चैत्य, मातापिता, उनके अपने नाम संग्रहणी गाथा' के अनुसार हैं। अपने पूर्व भव में वे सभी भगवान् पार्श्व के सम्पर्क में आई। पुष्पचूला आर्या की शिष्याएँ हुई । सभी शरीर प्रादि का विशेष प्रक्षालन करती थीं, शौच-प्रधान थीं। सभी देवलोक से च्यवन कर महाविदेह क्षेत्र में सिद्धि प्राप्त करेंगी । इस प्रकार पुष्पचूला का समापन हुआ।" १. संग्रहणी गाथा, जिसमें पूर्व-भव के नगर, नाम, माता-पिता मादि का उल्लेख रहता है, विच्छिन्न प्रतीत होती है। २. एवं सेसाण वि गवण्हं भरिणयव्वं, सरिसणामा विमारणा, सोहम्मे कप्पे । पुन्वभवे नगरे चेइय पियमाईणं अप्पणो या नामइ जहा सगहणीए । सव्वा पासस्स अंतियं निक्खताओ, पुप्फचूलाणं सिसिणीयानो सरीरपाउसिणीयानो सच्चामो अणतर चइचइत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिं ति। एवं खलु निक्खेवमो । पुप्फचूलामो सम्मत्तायो। -पुप्फबूला; अन्तिम अंश Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालील प्रागम १०६ १२. वहिदशा (वृष्णिदशा) नाम नन्दी-चूणि के अनुसार इस उपांग का पूरा नाम अन्धकवृष्णि दशा था। अन्धक शब्द काल-क्रम से लुप्त हो गया, केवल वृष्णिदशा बचा रहा । अब यह उपांग इसी नाम से प्रसिद्ध है। इसमें बारह अध्ययन हैं, जिनमें वृष्णिवंशीय बारह राजकुमारों का वर्णन है। उन्हीं राजकुमारों के नाम से वे अध्ययन हैं : १. निषधकुमार-अध्ययन, २. अनीककुमार-अध्ययन, ३. प्रह्वकुमार-अध्ययन, ४. वेधकुमारअध्ययन, ५. प्रगतिकुमार-अध्ययन, ६. मुक्तिकमार-अध्ययन, ७. दशरथकुमार-अध्ययन, ८. ढ़रथकुमार-अध्ययन. ६. महाधनुष्कुमारअध्ययन,१०. सप्रधनुष्कुमार-अध्ययन,११. दशधनुष्कुमार-अध्ययन तथा १२. शतधनुष्कुमार-अध्ययन। प्रथम अध्ययन में बलदेव और रेवती के पुत्र निषधकुमार के उत्पन्न होने, बड़े होने, श्रमणोपासक बनने तथा भगवान् अरिष्टनेमि से श्रमण-प्रव्रज्या ग्रहण करने आदि का वर्णन है । उसके विगत तथा भविष्यमाण दो भवों व अन्ततः (दूसरे भव के अन्त में) महाविदेह क्षेत्र में सिद्धत्व प्राप्त करने का वर्णन है। यद्यपि इस अध्ययन में वासुदेव कृष्ण का दर्शन प्रसंगोपात है, पर, वह महत्त्वपूर्ण है। वासुदेव कृष्ण के प्रभुत्व, वैभव, सैन्य, समृद्धि, गरिमा, सज्जा आदि का विस्तार से उल्लेख किया गया है। वष्णिवंश या यादव कुल के राज्य, यादववंश का वैपुल्य, आज के सौराष्ट्र के प्रागितिहासकालीन विवरण आदि अध्ययन की दृष्टि से इस उपांग का यह भाग उपयोगी है । अन्य ग्यारह अध्ययन केवल सूचना मात्र हैं। जैसे, इसी प्रकार (प्रथम की तरह) अवशिष्ट ग्यारह अध्ययन समझने चाहिए। पूर्व भव के नाम आदि संग्रहणी गाथा से ज्ञातव्य हैं। इन ग्यारह कुमारों का वर्णन निषधकुमार के वर्णन से न न्यून है और न अधिक । इस प्रकार वृष्णिदशा का समापन हुअा।" १. एवं सेसा वि एकारस अज्झयणा नेयव्वा । सगहणी पणुसारेण अहीणमहरित एक्कारससु वि । इति वहिदशा सम्मतं । -वृष्णिदशा सूत्र; अन्तिम अंश । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनागम दिग्दर्शन वृष्णि दशा के समाप्त होने का कथन करने के अनन्तर.अंत में इन शब्दों द्वारा एक और सूचन किया गया है : "निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध समाप्त हुअा। उपांग समाप्त हुए । निरयावलिका उपाँग का एक ही श्रुत-स्कन्ध है। उसके पाँच वर्ग हैं। वे पांच दिनों में उपदिष्ट किये जाते हैं । पहले से चौथे तक के वर्गों में दश-दश अध्ययन हैं और पांचवें वर्ग में बारह अध्ययन हैं। निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध समाप्त हुआ।" इस उल्लेख से बहत स्पष्ट है, वर्तमान में पृथक-पृथक पांच गिने जाने वाले निरयावलिका (कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका पुष्पचूला तथा वृष्णिदशा); ये उपांग कभी एक ही ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित थे। छेव सूत्र बौद्ध वाङमय में विनय-पिटक की जो स्थिति है, जैन वाङमय में छेद-सूत्रों की लगभग उसी प्रकार की स्थिति है । इनमें जैन श्रमणों तथा श्रमणियों के जीवन से सम्बद्ध आचार-विषयक नियमों का विश्लेषण है, जो भगवान महावीर द्वारा निरूपित किये गये थे तथा आगे भी समय-समय पर उनकी उत्तरवर्ती परम्परा में निर्धारित होते गये थे। नियम-भंग हो जाने पर साधु-साध्वियों द्वारा अनुसरणीय अनेक प्रायश्चित्त-विधियों का इनमें विशेषतः विश्लेषण है। श्रमण-जीवन की पवित्रता को बनाये रखने की दृष्टि से छेदसूत्रों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि इन्हें उत्तम कहा गया है। भिक्षु-जीवन के सम्यक संचालन के हेतु छेद-सूत्रों का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक समझा गया है। प्राचार्य, उपाध्याय जैसे महत्त्वपूर्ण पदों के अधिकारी छेद-सूत्रों के मर्म-वेत्ता हों, ऐसा अपेक्षित माना जाता रहा है। कहा गया है, कोई भी प्राचार्य १. निरयावलिया सुयकखंघो सम्मत्तो। सम्मत्तारिण य उबंगारिए । निरयावलि उद्गेणं एगो सुयक्खंघो, पंचवग्गा पंचसु दिवसेसु उद्दिसति । तत्थ चउसु दस दस उद्देसगा । पंचमगे बारस उद्दे सगा । निरयावलिया सुयक्खंघो सम्मतो। -निरयावलिया; (वहिदशा), अन्तिम भाग Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस आगम १११ छेद-सूत्रों के गम्भीर अध्ययन के बिना अपने श्रमण-समुदाय को ले कर ग्रामानुग्राम विहार नहीं कर सकता। निशीथ भाष्य में बतलाया गया है कि छेद-सूत्र अर्हत्-प्रवचन का रहस्य उद्बोधित करने वाले हैं, गुह्य-गोप्य हैं। वे अल्प सामर्थ्यवान् साधक को नहीं दिये जा सकते । पूर्ण पात्र ही उनके अधिकारी होते हैं । भाष्यकार का कहना है कि, जिस प्रकार अपरिपक्व घट में रखा गया जल घट को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार छेद-सूत्रों में सन्निहित सिद्धान्तों का रहस्य अनधिकारी साधक के नाश का कारण होता है। विनय-पिटक के सम्बन्ध में इसी प्रकार की गह्यता (गोपनीयता) की चर्चा प्राप्त होती है । मिलिन्द-प्रश्न में उल्लेख है कि विनयपिटक को छिपा कर रखा जाना चाहिए, जिससे अपयश न हो। कहने का आशय यह है कि प्रायश्चित्त प्रकरण में भिक्षुत्रों और भिक्षुणियों द्वारा प्रमाद या भोगाकांक्षा के उभर जाने के कारण सेवित उन चारित्रिक दोषों का भी वर्णन है, जिनकी विशुद्धि के लिये अमुक-अमुक प्रायश्चित्त करने होते हैं । जन-साधारण तक उस स्थिति का पहंचना लाभकर नहीं होता। जो वस्तुस्थिति के परिपूर्ण ज्ञाता नहीं होते, उनमें इससे श्रमण-श्रमणियों के प्रति अनेक प्रकार की विचिकित्सा तथा अश्रद्धा का उत्पन्न होना आशंकित है। सम्भवतः इसी कारण गोप्यता का संकेत किया गया प्रतीत होता है। १. निसीह (निशीथ), २. महानिसीह (महानिशीथ), ३. ववहार (व्यवहार), ४. दसासुयक्खंघ (दशाथ तस्कन्ध), ५. कप्प(कल्प), ६. पंच-कप्प अथवा जीयकप्प (पंच कल्प अथवा जीतकल्प) प्रभृति छेद-सूत्र माने जाते हैं। १. निसीह (निशीथ) शब्द का अर्थः निशीथ शब्द का अर्थ अन्धकार, अप्रकाश या रात्रि है। निशीथ भाष्य में इसका विश्लेषण करते हुए कहा गया है : "अप्रकाश या प्रन्धकार. लोक में 'निशीथ' शब्द से अभिहित होता है। जो अप्रकाशधर्म-रहस्यभूत या गोपनीय होता है, उसे भी निशीथ कहा गया Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनागम दिग्दर्शन है।" इस व्याख्या का तात्पर्य यह है कि, जिस प्रकार रहस्यमय विद्या मन्त्र, तन्त्र, योग आदि अनधिकारी या अपरिपक्व बुद्धिवाले व्यक्तियों को नहीं बताये जा सकते अर्थात् उनसे उन्हें छिपा कर या गोप्य रखा जाता है, उसी प्रकार निशीथ सूत्र भी गोप्य है, हर किसी के समक्ष उद्घाट्य नहीं है। निशीथ आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध से सम्बद्ध माना जाता है । इसे प्राचारांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध की पंचम चूला के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसे निशीथ-चला-अध्ययन कहा जाता है। निशीथ को आचार-प्रकल्प के नाम से भी अभिहित किया गया है। निशीथ सूत्र में साधुनों के और साध्वियों के प्राचार से सम्बद्ध उत्सर्ग-विधि तथा अपवाद-विधि का विवेचन है एवं उनमें स्खलना होने पर प्राचरणीय प्रायश्चित्तों का विवेचन है। इस सन्दर्भ में वहाँ बहुत सूक्ष्म विश्लेषण हुआ है, जो अपने संयम-जीवितव्य का सम्यक् निर्वाह करने की भावना वाले प्रत्येक निर्ग्रन्थ तथा निर्ग्रन्थिनी के लिये पठनीय है । ऐसी मान्यता है कि यदि कोई साधु निशीथ सूत्र विस्मृत कर दे, तो वह यावज्जीवन आचार्य-पद का अधिकारी नहीं हो सकता। रचना : रचनाकार निशीथ सूत्र की रचना कब हुई, किसके द्वारा हुई, यह निविवाद नहीं है । बहुत पहले से इस सम्बन्ध में मत-भेद चले आ रहे हैं । निशीथ भाष्यकार का अभिमत है कि पूर्वधारी श्रमणों द्वारा इसकी रचना की गयी । अर्थात् यह पूर्व-ज्ञान के आधार पर निबद्ध है। इसका और अधिक स्पष्ट रूप इस प्रकार माना जाता है कि नवम प्रत्याख्यान पूर्व के आचार-संज्ञक तृतीय अधिकार के बीसवें प्राभूत के आधार पर यह (निशीथ-सूत्र) रचा गया। __ चूर्णिकार जिनदास महत्तर का मन्तव्य है कि. विसाहगणि (विशाख गणी) महत्तर ने इसकी रचना की, जिसका उद्देश्य अपने १. जं होति अप्पगासं, तं तु निसीहं ति लोगसिद्ध। जं अपगासधम्म अण्णं पि तयं निसीघंति ।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस प्रागम ११३ शिष्य-प्रशिष्यों का हित-साधन था। पंचकल्प चूर्णि में बताया गया है कि, प्राचार्य भद्रबाहु निशीथ सूत्र के रचयिता थे। निशीथ सूत्र में बीस उद्देशक हैं। प्रत्येक उद्देशक भिन्न-भिन्न संख्यक सूत्रों से विभक्त हैं। व्याख्या साहित्य __ निशीथ के सूत्रों पर नियुक्ति की रचना हुई । परम्परा से प्राचार्य भद्रबाहु नियुक्तिकार के रुप में प्रसिद्ध हैं। सूत्र एवं नियुक्ति के विश्लेषण हेतु संघदास गणी ने भाष्य की रचना की। सूत्र, नियुक्ति और भाष्य पर जिनदास महत्तर ने विशेष चूणि की रचना की, जो अत्यन्त सार-गभित है। प्रद्य म्न सूरि के शिष्य द्वारा इस पर प्रवचूरि की भी रचना की गई । इस पर बृहद् भाष्य भी रचा गया, पर, वह अाज प्राप्त नहीं है । सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा द्वारा निशीथ सूत्र का भाष्य एवं चूर्णि के साथ चार भागों में प्रकाशन हुया है, जिसका सम्पादन सुप्रसिद्ध विद्वान् उपाध्याय अमर मुनि जी तथा मुनि श्री कन्हैयालाल जी 'कमल' द्वारा किया गया है। २. महानिसीह (महानिशीथ) महानिशीथ को समग्र आर्हत्-प्रवचन का सार बताया गया है। पर, वस्तुतः जो मूल रूप में महानिशीथ था, वह यथावत् नहीं रह सका। कहा जाता है कि, इसके ग्रन्थ नष्ट-भ्रष्ट हो गये, उन्हें दीमक खागये। तत्पश्चात् प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने उसका पुनः परिष्कार या संशोधन किया और उसे एक स्वरूप प्रदान किया। ऐसा माना जाता है कि वृद्धवादी, सिद्धसेन, यक्षसेन, देवगुप्त, यशोवर्धन, रविगुप्त, नेमिचन्द्र तथा जिनदास गणी प्रभृति प्राचार्यों ने उसे समाहृत किया। वह प्रवर्तित हुआ । साधारणतया निशीथ को लघु निशीथ और इसे महानिशीथ कहा जाता है। पर, वास्तव में ऐसा घटित नहीं होता; क्योंकि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि महानिशीथ का वास्तविक रूप विद्यमान नहीं है। ____महानिशीथ छः अध्ययनों तथा दो चूलाओं में विभक्त है । प्रथम अध्ययन का नाम शल्योद्धरण है। इसमें पाप रूप शल्य की Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनागम दिग्दर्शन निन्दा और पालोचना के सन्दर्भ में अठारह पाप-स्थानकों की चर्चा है। द्वितीय अध्ययन में कर्मों के विपाक तथा पाप-कर्मों को पालोचना की विधेयता का वर्णन है। तृतीय और चतुर्थ अध्ययन में कुत्सित शोल या पाचरण वाले साधुनों का संसर्ग न किये जाने के सम्बन्ध में उपदेश है । प्रसंगोपात्त यहां उल्लेख है कि, नवकार मन्त्र का उद्धार किया और इसे मल सूत्र में स्थान दिया ।' नवनोतसार संज्ञक पंचम अध्ययन में गुरु-शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन है। उस प्रसंग में गच्छ का भी वर्णन किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि गच्छाचार नामक प्रकोर्णक की रचना इसी के आधार पर हुई। षष्ठ अध्ययन में पालोचना तथा प्रायश्चित्त के क्रमशः दस और चार भेदों का वर्णन है। पति की मृत्यु पर स्त्री के सती होने तथा यदि कोई राजा निष्पत्र मर जाए, तो उसकी विधवा कन्या को राज्य-सिंहासनासीन किये जाने का भी यहां उल्लेख है । ऐतिहासिकता इस सूत्र की भाषा तथा विषय के स्वरूप को देखते हए इसको गणना प्राचीन आगमों में किया जाना समीचोन नहीं लगता। इसमें तन्त्र सम्बन्धी वर्णन भी प्राप्त होते हैं। जैन आगमों के अतिरिक्त इतर ग्रन्थों का भी इसमें उल्लेख है । अन्य भी ऐसे अनेक पहलू हैं, जिनसे यह सम्भावना पुष्ट होतो है कि यह सूत्र अर्वाचीन है। ३. ववहार (व्यवहार) : श्रत-वाङमय में व्यवहार-सूत्र का बहुत बड़ा महत्व है। यहां तक कि इसे द्वादशांग का नवनीत कहा गया है। यद्यपि संख्या में छेद-सूत्र छः हैं, पर, वस्तुतः उनमें विषय, सामग्री, रचना आदि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण तीन ही हैं, जिनमें व्यवहार सूत्र मुख्य हैं । अवशिष्ट दो निशीथ और बृहत्कल्प हैं। १. यहां यह ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-मान्यता में नवकार मन्त्र के विषय में भिन्न मान्यता है। षट्खण्डागम के धवला टीकाकार वीरसेन का अभिमत है कि प्राचार्य पुष्पदन्त नवकार मन्त्र के स्रष्टा हैं । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम ११५ दश उद्देशक हैं, जो लगभग तीन सौ सूत्रों में विभक्त हैं। कलेवर में यह श्रु त-ग्रन्थ निशीथ से छोटा और वृहत्कल्प से बड़ा है। भिक्षुषों, भिक्षुणियों द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में प्राचरित दोषों या स्खलनामों की शुद्धि या प्रतिकार के लिए प्रायश्चित्त, आलोचना आदि का यहां बहुत मार्मिक वर्णन है। उदाहरणार्थ, प्रथम उद्देशक में एक प्रसंग है । यदि एक साधु अपने गण से पृथक हो कर एकाकी विहार करने लगे और फिर यदि अपने गण में पुनः समाविष्ट होना चाहे, तो उसके लिए आवश्यक है कि, वह उस गण के प्राचार्य, उपाध्याय आदि के समक्ष अपनी गर्दा, निन्दा, आलोचनापूर्वक प्रायश्चित्त अंगीकार कर प्रात्म-मार्जन करे। यदि प्राचार्य.या उपाध्याय न मिले, तो साम्भोगिक, विद्यागमी साधुओं के समक्ष वैसा करे । यदि वह भी न मिले, तो सत्रकार ने अन्य साम्भोगिक इतर सम्प्रदाय के विद्यागमी साधु के समक्ष वैसा करने का विधान किया है। उसके भी न मिलने पर सूत्रकार ने अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के विकल्प उपस्थित किए हैं, जिनकी साक्षी से आलोचना, निन्दा, गरे द्वारा अन्तः-परिष्कार कर प्रायश्चित्त किया जाये। यदि वैसा कोई भी न मिल पाए, तो सूत्रकार का निर्देश है कि ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेड़, कर्पट, मडम्ब, पट्टण, द्रोणमुख आदि के पूर्व या उत्तर दिशा में स्थित हो, अपने मस्तक पर दोनों हाथों की अंजलि रख कर इस प्रकार कहते हुए आत्मपर्यालोचन करे कि मैंने अपराध किए हैं, साधुत्व में अपराधी दोषी बना हूं। मैं अर्हतों और सिद्धों की साक्षी से आलोचना करता हूं। आत्म-प्रतिक्रान्त होता हूं, प्रात्म-निन्दा तथा गर्दा करता हूं, प्रायश्चित्त स्वीकार करता हूं। आत्म-परिष्कृति या अन्तःशोधन की यह महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो श्रामण्य के विशुद्ध-निर्वहन में निःसंदेह उद्बोधक तथा उत्प्रेरक है । व्यवहार-सूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रसंग हैं, जिनका श्रमणजीवन एवं श्रमण-संघ के व्यवस्था-क्रम, समीचीनतया संचालन तथा पवित्रता की दृष्टि से बड़ा महत्त्व है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ कतिपय महत्वपूर्ण प्रसंग प्रायश्चित्तों के विश्लेषण की दृष्टि से दूसरा उद्देशक भी विशेष महत्वपूर्ण है । अनवस्थाप्य, पारांचिक आदि प्रायश्चित्तों के सन्दर्भ में इस में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का विवेचन हुआ है । एक स्थान पर वर्णन है- "जो साधु रोगाक्रान्त है, वायु आदि के प्रकोप से जिसका चित्त विक्षिप्त है, कारण विशेष ( कन्दर्पोद्भव आदि) से जिसके चित्त में वैकल्य है, यक्ष आदि के आवेश के कारण जो ग्लान है, शैत्य आदि से प्रत्याक्रान्त है, जो उन्माद प्राप्त है, जो देवकृत उपसर्ग से ग्रस्त होने के कारण अस्त-व्यस्त है, क्रोध आदि कषाय के तीव्र प्रवेश के कारण जिसका चित्त खिन्न है, उसको — उन सबको जब तक वे स्वस्थ न हो जायें, तब तक उन्हें गण से बहिष्कृत करना प्रकल्प्य है ।" इस प्रकार के और भी अनेक प्रसंग हैं । गण - धारकता के लिए अपेक्षित विधि - निषेध, पदासीनता, भिक्षा-चर्या, विधि क्रम, स्वाध्याय के सम्बन्ध में सूचन आदि अनेक विवरण हैं जो श्रमण जीवन के सर्वांगीण अध्ययन एवं अनुशीलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । जैनागम दिग्दर्शन स्थितियां विहार चर्या के सम्भोग - विसम्भोग का सातवां उद्देदेशक साधुनों और साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार की दृष्टि से अध्येतव्य है । वहां उल्लेख है कि, तीन वर्ष के दीक्षा पर्यायवाला अर्थात् जिसे प्रव्रजित हुए केवल तीन वर्ष हुए हैं, वैसा साधु उस साध्वी को, जिसे दीक्षा ग्रहण किये तीस वर्ष हो गये हैं, उपाध्याय के रूप में प्रदेश - उपदेश दे सकता है । इसी प्रकार केवल पांच वर्ष का दीक्षित साधु साठ वर्ष की दीक्षिता साध्वी को प्राचार्यरूप में उपदेश दे सकता है । ये विधान विनयपिटक के उस प्रसंग से तुलनीय हैं, जहां सौ वर्ष की उपसम्पदा प्राप्त भिक्षुणी को भी उसी दिन उपसम्पन्न भिक्षु के प्रति अभिवादन, प्रत्युत्थान, अंजलि प्रति आदि करने का विधान है । साधुओं एवं साध्वियों के आचार-व्यवहार-सम्बन्धी तारतम्य और भेद-रेखा की दृष्टि से ये प्रसंग विशेष रूप से मननीय एवं समीक्षणीय हैं । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ पैताली आमग नवम उद्दे शक में साधु की प्रतिमाओं तथा अभिग्रह का और दशम अध्ययन में यवमध्य - चन्द्र प्रतिमा, वज्र - मध्य - चन्द्र प्रतिमा आदि का वर्णन है । दशम अध्ययन में शास्त्राध्ययन की का विवेचन है, जो प्रत्येक साधु-साध्वी के अनुसार निम्नांकित दीक्षा - पर्याय - सम्पन्न साधु • शास्त्राध्ययन का अधिकारी है : दीक्षा - पर्याय तीन वर्ष चार वर्ष पांच वर्ष आठ वर्ष दश वर्ष ग्यारह वर्ष बारह वर्ष तेरह वर्ष चौदह वर्ष पन्द्रह वर्ष सोलह वर्ष सतरह वर्ष अठारह वर्ष उन्नीस वर्ष बीस वर्ष मर्यादा एवं नियमानुक्रम लिए ज्ञातव्य है । उसके निम्नांकित रूप में शास्त्र प्रचार-कल्प सूत्रकृतांग दशाश्रु तस्कन्ध, कल्प और व्यवहार स्थानांग, समवायांग व्याख्या प्रज्ञप्ति क्षुल्लिका -विमान- प्रविभक्ति, महती - विमान - प्रविभक्ति, अंगचूलिका, वंग (वर्ग) - चूलिका एवं व्याख्या - चूलिका अरुणोपपात, गरुडोपपात, वरुणोपपात, वैश्रमणोपपात, वेलंधरोपपात । उत्थान - श्रुत, समुत्थान-श्रुत, देवेन्द्रोपपात, नागपरियापनिका स्वप्न अध्ययन चारण-भावना अध्ययन वेद- निसर्ग आशीविष- भावना - अध्ययन दृष्टि - विष - भावना - अंग दृष्टिवाद अंग सभी शास्त्र Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैनागम दिग्दर्शन __इस उद्देशक में प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, नव दीक्षित शैक्ष (शिष्य), वार्धक्य आदि के कारण ग्लान (श्रमण), कुल, गण, संघ तथा सार्मिक; इन दश के वैयावृत्य-दैहिक सेवा आदि का भी उल्लेख है। रचयिता और व्याख्याकार । ___ व्यवहार सूत्र के रचनाकार प्राचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। उन्हीं के नाम से इस पर नियुक्ति है । पर, सूत्रकार तथा नियुक्तिकार भद्रबाहु एक ही थे, यह विवादास्पद है। बहुत सम्भव है, सूत्र तथा नियुक्ति भिन्नकर्तृक हों; इस नाम से दो भिन्न प्राचार्यों की रचनाए हों। व्यवहार सूत्र पर भाष्य भी उपलब्ध है पर, नियुक्ति तथा भाष्य परस्पर मिश्रित से हो गये हैं। प्राचार्य मलयगिरि द्वारा भाष्य पर विवरण की रचना की गयी है। व्यवहार सूत्र पर चूणि और अवचरि की भी रचना हई। ऐसा अभिमत है कि इस पर बृहद् भाष्य भी था, पर, वह आज उपलब्ध नहीं है। ४. वसासुयक्खंघ (क्शा तस्कन्ध) यह छेद-सूत्रों में चौथा है। इसे दशा, प्राचार-दशा या दशाश्रत भी कहा जाता है। यह दश भागों में विभक्त है, जिन्हें दशा नाम से अभिहित किया गया है । पाठवां भाग अध्ययन नाम से संकेतित है। प्रथम दशा में असमाधि के बीस स्थानों का वर्णन है। द्वितीय दशा में शबल के इक्कीस स्थानों का विवेचन है। शबल का अर्थ धब्बों वाला, चितकबरा या सदोष है। यहां शबल का प्रयोग दूषित पाचरण रूप धब्बों के अर्थ में है । तृतीय दशा में आशातना के तैंतीस प्रकार आदि का उल्लेख है। गरिण-सम्पदा __ चतुर्थ दशा में गणी या प्राचार्य की पाठ सम्पदाओं का वर्णन है। वे पाठ सम्पदाएं इस प्रकार हैं : १. आचार-सम्पदा, २. श्रतसम्पदा, ३.. शरीर-सम्पदा, ४. वचन-सम्पदा, ५. वाचना-सम्पदा, ६. मति-सम्पदा, ७. प्रयोग-सम्पदा, ८. संग्रह-सम्पदा । प्रत्येक Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -पैंतालीस प्रागम सम्पदा के भेदों का जो वर्णन किया गया है, वह श्रमण-संस्कृति से प्राप्यायित विराट व्यक्तित्व के स्वरूप को जानने की दृष्टि से बहुत उपयोगी है ; अतः उन भेदों का यहां उल्लेख किया जा रहा है : आचार-सम्पदा के चार भेदः १. संयम में ध्र व योगयुक्त होना, २. अहंकाररहित होना, ३. अनियतवृत्ति होना, ४. वृद्धस्वभावी (अचञ्चल स्वभावी) होना। श्रुत-सम्पदा के चार भेदः १. बहुश्रु तता, २. परिचितश्र तता, ३. विचित्रश्रु तता, ४. घोषविशुद्धिकारकता। __ शरीर-सम्पदा के चार भेद : १. प्रादेय-वचन, (ग्रहण करने योग्य वाणी), २. मधुर वचन, ३. अनिश्चित (प्रतिबन्ध रहित) वचन, ४. असन्दिग्ध वचन । वाचना-सम्पदा के चार भेद : १. विचारपूर्वक वाच्य विषय का उद्देश-निर्देश करना, २. विचारपूर्वक वाचना करना, ३. उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, ४. अर्थ का । सुनिश्चित निरूपण करना। मति-सम्पदा के चार भेद : १. अवग्रह-मति-सम्पदा, २. ईहामति-सम्पदा, ३. अवाय-मति-सम्पदा, ४. धारणा-मति-सम्पदा । __ प्रयोग-सम्पदा के चार भेद : १. आत्म-ज्ञान पूर्वक वाद-प्रयोग, २. परिषद्-ज्ञान पूर्वक वाद-प्रयोग, ३. क्षेत्र-ज्ञान पूर्वक वाद-प्रयोग, ४. वस्तु-ज्ञान पूर्वक वाद-प्रयोग। संग्रह-सम्पदा के चार भेद : १. वर्षाऋतु में सब मुनियों के निवास के लिए योग्य स्थान की परीक्षा करना, २. सब मनियों के लिये प्रातिहारिक पीठ-फलक-शय्या संस्तारक की व्यवस्था करना, ३. नियत समय पर प्रत्येक कार्य करना, ४. अपने से बड़ों की पूजाप्रतिष्ठा करना। पंचम दशा में चित्त-समाधि-स्थान तथा उसके दश भेदों का वर्णन है । षष्ठ दशा में उपासक या श्रावक की दश प्रतिमाओं का 'निरूपण है । उस सन्दर्भ में सूत्रकार ने मिथ्यात्व-प्रसूत अक्रियावाद Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनागम दिग्दर्शन और प्रारम्भ-समारम्भ-मूलक क्रियावाद का विस्तार से विश्लेषण करते हुए द्रोह, राग, मोह, आसक्ति, वैमनस्य तथा भोगैषणा, लौकिक सुख, लोकैषणा-लोक-प्रशस्ति आदि से उद्भूत अनेकानेक पाप-कृत्यों का विश्लेषण करते हुए उनके नारकीय फलों का रोमांचक वर्णन किया है। सप्तम दशा में द्वादशविध भिक्षु-प्रतिमा का वर्णन है । जैसे, प्रथम एक मासिक भिक्षु-प्रतिमा में पालनीय प्राचार-नियमों के सन्दर्भ में विहार-प्रवास को उद्दिष्ट कर बतलाया गया है कि एक मासिक भिक्षु-प्रतिमा-उपपन्न भिक्षु,जिस क्षेत्र में उसे पहचानने वाले हों, वहां केवल एक रात, अधिक हो तो, दो रात प्रवास कर विहार कर जाए। ऐसा न करने पर वह भिक्षु-दीक्षाछेद अथवा परिहारिक तप के प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रत्येक प्रतिमा के सम्बन्ध में विशद विवचन किया गया है, जो प्रत्येक संयम एवं तप-रत भिक्षु के लिये परि. शीलनीय है। अष्टम अध्ययन में भगवान् महावीर के च्यवन, गर्भसंहरण, जन्म, दीक्षा, केवल-ज्ञान, मोक्ष का वर्णन है। इसे पज्जोसण-कप्प या कल्प-सूत्र के नाम से भी अभिहित किया जाता है। इस पर अनेक प्राचार्यों की टीकाएँ है, जिनमें जिनप्रभ, धर्मसागर, विनयविजय, समयसुन्दर, रत्नसागर,संघविजय, लक्ष्मीवल्लभ आदि मुख्य हैं । पयुषण के दिनों में साधु. प्रवचन में इसको पढ़ते हैं । छेद-सूत्रों का परिषद् में पठन न किये जाने की परम्परा रही है। क्योंकि उनमें अधिकांशतः साधु-साध्वियों द्वारा जान-अनजान में हुई भूलों, दोषों आदि के सम्मार्जन के विधि-क्रम हैं, जिन्हें विशेषतः उन्हें ही समझना चाहिए. जिनसे उनका सम्बन्ध हो । पर्युषण-कल्प छेद सूत्र का अंग होते हुए भी एक अपनी भिन्न स्थिति लिए हुए है; अतः उसका पठन अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीर के इतिहास का अवबोध कराने के हेतु उपयोगी है। किंवदन्ती है कि विक्रमाब्द ५२३ में आनन्दपुर के राजा ध्र वसेन के पुत्र का मरण हो गया। उसे तथा उसके पारिवरिक जनों को शान्ति देने की दृष्टि से तब से इसका व्याख्यान में पठन-क्रम प्रारम्भ हुग्रा । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस मागम १२१ रचनाकारः व्याख्या-साहित्य दशाश्रुतस्कन्ध के रचयिता प्राचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। उन्हीं के नाम से इस पर नियुक्ति है । पर, जैसा कि व्यवहार-सूत्र के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख हुअा है, सूत्र और नियुक्ति की एक-कर्तृकता संदिग्ध है। इस पर चूणि की भी रचना हुई । ब्रह्मर्षि पार्श्वचन्द्रीय प्रणीत वृत्ति भी है। ५. कप्प (कल्प अथवा वृहत्कल्प) दशाश्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में पर्युषणा-कल्प की चर्चा की गयी है, उससे यह भिन्न है। इसे कल्पाध्ययन भी कहा जाता है। कल्प या कल्प्य का अर्थ योग या विहित है। साधु-साध्वियों के संयम जीवन के निमित्त जो साधक आचरण हैं, वे कल्प या कल्प्य हैं और उसमें बाधा या विध्न उपस्थित करने वाले जो आचरण हैं. वे अकल्प या प्रकल्प्य हैं । प्रस्तुत सूत्र में साधु-साध्वियों के संयत चर्या के सन्दर्भ में वस्त्र, पात्र, स्थान आदि के विषय में विशद विवेचन है। इसे जैन श्रमण-जीवन से सम्बद्ध प्राचीनतम आचार-शास्त्र का महान् ग्रन्थ माना जाता हैं। निशीथ और व्यवहार की तरह इसका भी भाषा, विषय आदि की दृष्टि से बड़ा महत्व है। इसकी भाषा विशेष प्राचीनता लिये हुए है। पर, टीकाकारों द्वारा यत्र-तत्र परिवर्तन, परिवर्धन आदि किया जाता रहा है, जैसा कि अन्यान्य प्रागमों में भी हुमा है। कलेवर : विषय-वस्तु छः उद्देशकों में यह सूत्र विभक्त है। श्रमणों के खान-पान, रहन-सहन, विहार-चर्या आदि के गहन विवेचन की दृष्टि इस में परिलक्षित होती है । प्रसंगोपात्त इसके प्रथम उद्देशक में साधु-साध्वियों के विहार-क्षेत्र के सम्बन्ध में कहा गया है कि उन्हें पूर्व में अंग और मगध तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में थानेश्वर-प्रदेश तक तथा उत्तर-पूर्व में कुणाल-प्रदेश तक विहार करना कल्प्य है । इतना आर्य क्षेत्र है । इससे बाहर विहार कल्प्य नहीं है। इसके अनन्तर कहा गया ह कि यदि साधुओं को अपने ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र्य का विघात न प्रतीत होता हो, लोगों में ज्ञान, दर्शन व चारित्र्य की वृद्धि होने की Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैनागम दिग्दर्शन सम्भावना हो, तो उक्त सीमाओं से भी बाहर विहार करना कल्प्य है। तीसरे उद्देशक में साधुओं और साध्वियों के एक-दूसरे के ठहरने के स्थान में आवागमन की मर्यादा, बैठने, सोने, आहार करने, स्वाध्याय करने, ध्यान करने आदि के निषेध प्रभृति का वर्णन है । श्रमण-प्रव्रज्या स्वीकार करने के समय उपकरण-ग्रहण का विधान, वर्षा-काल के चार तथा अवशिष्ट आठ मास में वस्त्र-व्यवहार आदि और भी अनेक ऐसे विषय इस उद्देशक में व्याख्यात हुए हैं, जो सतत जागरूक तथा संयम-रत जीवन के सम्यक् निर्वाह की प्रेरणा देते हैं। चतुर्थ उद्देशक में आचार-विधि तथा प्रायश्चित्तों का विश्लेषण है। उस संदर्भ में अनुद्धातिक, पारांचिक तथा अनवस्थाप्य आदि की चर्चा है। कतिपय महत्वपूर्ण उल्लेख प्रासंगिक रूप में चतुर्थ उद्देशक में उल्लेख हुअा है कि गंगा, यमुना, सरयू, कोसी और मही नामक जो बड़ी नदियां हैं, उनमें से किसी भी नदी को एक मास में एक बार से अधिक पार करना साधु-साध्वी के लिए कल्प्य नहीं है। साथ ही-साथ वहां ऐसा भी कहा गया है : “जैसे, कुणाला में एरावती नदी है, वह कम जल वाली है; अतः एक पैर को पानी के भीतर और दूसरे को पानी के ऊपर करते हुए पानी देख कर (नितार-नितार कर) उसे पार किया जा सकता है। उसे एक मास में दो बार, तीन बार पार करना भी कल्प्य है। पर जहाँ जल की अधिकता के कारण वैसा करना शक्य नहीं है, वहां एक बार से अधिक पार करना अकल्प्य है। छठे उद्देशक में एक प्रसंग में कहा गया है कि, किसी साधु के पाँव में कीला, कांटा, काच का तीखा टुकड़ा गड़ जाये, उसे स्वयं निकालने में सक्षम न हो, निकालने वाला अन्य साधु पास में न हो, यदि साध्वी उसे शुद्ध भावपूर्वक निकाले, तो वह तीर्थ कर की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती। इसी प्रकार साधु की प्रांख में कोई जीवभुनगा, बीज, रज-कण आदि पड़ जाये, उसे बह साधु स्वयं न निकाल Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस आगम १२३ सके और न वैसा कर सकने वाला कोई दूसरा साधु पास में हो, तो साध्वी शुद्ध भाव से वैसा करती हुई तीर्थंकर की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती। ___ साध्वी की भी यदि वैसी ही स्थिति हो, जैसी साधु की बतलाई गई है, तो साधु शुद्ध भाव से साध्वी के पैर से कीला, कांटा, काच का टुकड़ा आदि निकाल सकता है। प्रांख में से कीटाणु, बीज, रज-कण आदि हटा सकता है। वैसा करता हुआ वह तीर्थंकर की प्राज्ञा की विराधना नहीं करता। एक और प्रसंग है, जिसमें बतलाया गया है कि, यदि कोई साध्वी दुर्गम स्थान, विषम स्थान, पर्वत से स्खलित हो रही हो, गिर रही हो; उसे बचा सके, वैसी कोई दूसरी साध्वी उसके पास न हो, तो साधु उसे पकड़ कर सहारा देकर बचाए, तो वह तीर्थंकर की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता । इसी प्रकार यदि कोई साधू नदी, जलाशय या कीचड़ में फंसी साध्वी को पकड़ कर निकाल दे, तो वह तीर्थंकर की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता। इसी प्रकार नौका में चढते-उतरते समय साध्वी के लड़खड़ा जाने, पड़ने लगने, वात आदि दोष से विक्षिप्त हो जाने के कारण अपने को न सम्भाल पाए, हर्षातिरेक या शोकातिरेक से ग्रस्त-चित्त हो कर प्रात्म-घात आदि के लिए उद्यत होने, यक्ष, भूत, प्रेत आदि से आवेशित हो जाने के कारण अस्त-व्यस्त दशा में हो जाने जैसे अनेक प्रसंग उपस्थित करते हुए सूत्रकार ने निर्दिष्ट किया है कि उक्त स्थिति में साधु साध्वी को पकड़ कर बचा सकता है । वैसा करने में उसे कोई दोष नहीं आता। स्पष्ट है कि सूत्रकार ने इन प्रसंगों से श्रमण-जीवन के विविध पहलुओं को सूक्ष्मता से परखते हुए एक व्यवस्था निर्देशित की है, जो श्रामण्य के शुद्धिपूर्वक निर्वहण-हेतु अपेक्षित एवं उपयुक्त सुविधानों की पूरक है। रचना एवं व्याख्या-साहित्य कल्प या वृहत्कल्प के रचनाकार प्राचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि प्रत्याख्यान संज्ञक नवम पूर्व Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जैनागम दिग्दर्शक की प्राचार नामक तृतीय वस्तु के बीसवें प्राभूत के प्रायश्चित्तसम्बन्धी विवेचन के आधार पर इसकी रचना की गयी। पूर्व-ज्ञान की परम्परा उस समय अस्तोन्मुख थी; अतः प्रायश्चित्त-विधान जिन्हें प्रत्येक श्रमण-श्रमणी को भलीभांति जानना चाहिए, कहीं उच्छिन्न या लुप्त न हो जाए, एतदर्थ प्राचार्य भद्रबाहु ने व्यवहार सूत्र और कल्पसूत्र रचे । . कल्प पर भद्रवाहु कृत नियुक्ति भी है, जिसकी कर्तृकता असन्दिग्ध नहीं है। श्री संघदास गणी ने लघु भाष्य की रचना की। मलयगिरि ने उल्लेख किया है कि प्राचार्य भद्रबाह को नियुक्ति तथा श्री संघदास गणी का भाष्य; दोनों इस प्रकार परस्पर विमिश्रित जैसे हो गये हैं कि उन दोनों को पृथक्-पृथक् स्थापित करना असम्भव जैसा है। भाष्य पर प्राचार्य मलयगिरि ने विवरण की रचना की। पर, वह रचना पूर्ण नहीं थी। लगभग दो शताब्दियों के पश्चात् श्री क्षेमकीर्ति सूरि ने उसे पूरा किया। वृहत्कल्प पर वृहद् भाष्य भी है, पर, वह पूर्ण नहीं है, केवल तृतीय उद्देशक तक ही प्राप्य है। इस पर विशेष चूर्णि की भी रचना हुई। ६. पंचकप्प (पंच-कल्प) पंचकल्प सूत्र और पंचकल्प भाष्य; ये दो नाम प्रचलित हैं, जिनसे सामान्यतः ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः ये दो ग्रन्थ हों, पर, वास्तव में ऐसा नहीं है। नाम दो है, ग्रन्थ एक। श्री मलयगिरि और श्री क्षेमकीर्ति के अनुसार पंचकल्प-भाष्य वस्तुतः वृहत्कल्पभाष्य का ही एक अश है। इसकी वैसों ही स्थिति है, जैसी पिण्डनियुक्ति और अोघ-नियुक्ति की हैं। पिण्ड-नियुक्ति कोई मूलतः पृथक् ग्रन्थ नहीं है, वह दशवैकालिक-नियुक्ति का हो भाग है । उसी प्रकार अोघ-नियुक्ति भी स्वतन्त्र ग्रन्थ न हो कर आवश्यक-नियुक्ति का ही भाग है। विषय-विशेष से सम्बद्ध होने के कारण पाठकों की सुविधा की दृष्टि से उन्हें पृथक्-पृथक् कर दिया गया है । वृहत्कल्प-भाष्य का अंश होने के नाते पंचकल्प सूत्र या पंचकल्प-भाष्य श्री संघदास गणी द्वारा रचित ही माना जाना चाहिये। इस पर चूणि की भी रचना हुई। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम १२५ जीयकप्पसुत्त (जीतकल्प सूत्र) जी, जीय या जीत का अर्थ परम्परा से प्रागत प्राचार, मर्यादा, व्यवस्था या प्रायश्चित्त से सम्बन्ध रखने वाला एक प्रकार का रिवाज आदि है। इस सूत्र में जैन श्रमणों के प्राचार के सम्बन्ध में प्रायश्चित्तों का विधान है। एक सौ तीन गाथाए हैं। इसमें प्रायश्चित्त का महत्त्व, प्रात्म-शुद्धि या अन्तः-परिष्कार में उसकी उपादेयता आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है। प्रायश्चित्त के दश भेदों का वहां विवेचन है: १. पालोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र-पालोचना-प्रतिक्रमण, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाप्य, १०. पारांचिक। ऐसी मान्यता है कि आचार्य भद्रबाहु के अनन्तर अन्तिम दो अनवस्थाप्य और पारांचिक नामक प्रायश्चित्त व्युछिन्न हो गये। रचना : व्याख्या-साहित्य सुप्रसिद्ध जैन लेखक, विशेषावश्यक-भाष्य जैसे महान् ग्रन्थ के प्रणेता श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (सप्तम वि. शती) इस सूत्र के रचयिता माने जाते हैं । क्षमाश्रमण इसके भाष्यकार भी कहे जाते हैं, पर, वह भाष्य वस्तुत: कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न हो कर वृहत्कल्पभाष्य, व्यवहार-भाष्य, पंचकल्प-भाष्य तथा पिण्ड-नियुक्ति प्रभृति ग्रन्थों की विषयानुरूप भिन्न-भिन्न गाथाओं का संकलन मात्र है। प्राचार्य सिद्धसेन ने इस ग्रन्थ पर चर्णी की रचना की। श्रीचन्द्र सरि ने (१२२८ बिक्रमाब्द में) उस (चूणि) पर 'विषम-पद-व्याख्या' नामक टीका की रचना की। श्री तिलकाचार्य प्रणीत वत्ति भी है। यतिजीतकल्प और श्राद्ध-जीतकल्प नामक ग्रन्थ भी जीतकल्प सत्र से ही सम्बद्ध या तद् विषयान्तर्गत माने जाते हैं। यति-जीतकल्प में यतियों या साधुओं के प्राचार का वर्णन है और श्राद्ध-जीतकल्प में श्राद्धश्रमणोपासक या श्रावक के प्राचार का विवेचन है। यति-जीतकल्प की रचना श्री सोमप्रभ सरि ने की। श्री साधुरत्न ने उस पर वृत्ति लिखी। श्राद्ध-जीतकल्प की रचना श्री धर्मघाष द्वारा की गयी। श्री सोमतिलक ने उस पर वृत्ति की रचना की। १. पाइप्रसिद्द महण्णवो; पृ० ३५८ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ मूल--सूत्र उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, प्रावश्यक, पिण्ड - नियुक्ति तथा - नियुक्ति को सामान्यतः मूल सूत्रों के नाम से अभिहित किया जाता है । यह सर्वसम्मत तथ्य नहीं है । कुछ विद्वान् उत्तराध्ययन, दशवैकालिक तथा आवश्यक; इन तीन को ही मूल सूत्रों में गिनते हैं । वे पिण्ड - नियुक्ति तथा प्रोघ-निर्युक्ति को मूल सूत्रों में समाविष्ट नहीं करते । जैसा कि पहले इंगित किया गया है, पिण्डनियुक्ति दशर्वकालिक नियुक्ति का तथा प्रोघ नियुक्ति आवश्यकनियुक्ति का अंश है । कतिपय विद्वान् उक्त तीन मूल सूत्रों में पिण्डनियुक्ति को सम्मिलित कर उनकी संख्या चार मानते हैं । कुछ के अनुसार, जैसा कि प्रारम्भ में सूचित किया गया है, प्रोघ-निर्युक्ति सहित वे पांच हैं । कतिपय विद्वान् उपर्युक्त तीन में से आवश्यक को हटा कर तथा अनुयोगद्वार व नन्दी को उनमें सम्मिलित कर; चार की संख्या पूरी करते हैं । कुछ विद्वान् पक्खिय सुत्त (पाक्षिक सूत्र ) का भी इनके साथ नाम संयोजित करते हैं । जैनगाम दिग्दर्शन मूल सूत्रों में वस्तुतः उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का जैन वाङ्मय में बहुत बड़ा महत्व है । विद्वान् इन्हे जैन ग्रागम वाङ् मय के प्राचीनतम सूत्रों में गिनते हैं । भाषा की दृष्टि से भी इनकी प्राचीनता अक्षुण्ण है । विषय-विवेचन की अपेक्षा से ये बहुत समृद्ध हैं । सुत्तनिपात व धम्मपद जैसे सुप्रसिद्ध बौद्ध-ग्रन्थों से ये तुलनीय है । जैन दर्शन, आचार-विज्ञान तथा तत्सम्मत जीवन के विश्लेषण की दृष्टि से अध्येताओं और अन्वेष्टाओं के लिए ये ग्रन्थ विशेष रूप से परिशीलनीय हैं । मूल : नांमकररग क्यों ? 'मूल-सूत्र' नाम क्यों और कब प्रचलित हुआ, कुछ कहा नहीं जा सकता । प्राचीन ग्रागम ग्रन्थो में 'मूल' या 'मूल सूत्रों' के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं है । पश्चाद्वर्ती साहित्य में भी सम्भवतः इस नाम का पहला प्रयोग श्री भावदेवसूरि-रचित 'जैनधर्मं वरस्तोत्र' के तीसवें श्लोक की टीका में है। वहां "अथ उत्तराध्ययन-श्रावश्यक - पिण्ड- Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस श्रागम १२७ नियुक्ति-प्रोघ नियुक्ति - दशवेकालिक इति चत्वारि मूलसूत्राणि " इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है । पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विमर्ष गहन अध्ययन, तलस्पर्शी अनुसन्धान और गवेषणा की दृष्टि से योरोपीय देशों के कतिपय विद्वानों ने भारतीय वाङ् मय पर जिस रुचि और अपरित्रान्त अध्यवसाय व लगन के साथ जो कार्य किया है, निःसन्देह, वह स्तुत्य है । कार्य किस सीमा तक हो सका, कितना हो सका, उसके निष्कर्ष कितने उपादेय हैं; इत्यादि पहलू तो स्वतन्त्र रूप में चिन्तन और आलोचना के विषय हैं, पर उनका श्रम, उत्साह और सतत प्रयत्नशीलता भारतीय विद्वानों के लिये भी अनुकरणीय है । जैन वाङ् मय तथा प्राकृत भाषा के क्षेत्र में जर्मनी आदि पश्चिमी देशों के विद्वानों ने अधिक कार्य किया है । जैन आगम - साहित्य पर अनुसन्धान-कर्ता विद्वानों के प्रस्तुत विषय पर जो भिन्न-भिन्न विचार हैं, उन्हें यहां प्रस्तुत किया जाता है । प्रो० शर्पेण्टियर का मत जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राच्य- -विद्या-अध्येता प्रो० शर्पेण्टियर (Prof. -Charpentier) ने उत्तराध्ययन सूत्र की प्रस्तावना में इस मूल सूत्र नामकरण के सम्बन्ध में जो लिखा है, उसके अनुसार इनमें भगवान् महावीर के कुछ शब्दों (Mahavira's own words ) का संगृहीत होना है । इसका आशय यह है कि इनमें जो शब्द संकलित हुए हैं, वे स्वयं भगवान् महावीर के मुख से निःसृत हैं । डा० वाल्टर शुचिंग का श्रभिमत जैन वाङ् मय के विख्यात अध्येता जर्मनी के विद्वान् डा०वाल्टर ब्रिंग (Dr. Walter Schubring ) ने Lax Religion Dyaina' नामक ( जर्मन भाषा में लिखित) पुस्तक में इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है कि मूल सूत्र नाम इसलिए दिया गया प्रतीत होता है कि साधुओं और साध्वियों के साधनामय जीवन के मूल में - प्रारम्भ में उनके उपयोग के लिए इनका सर्जन हुआ । १. पृष्ठ ७६ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैनागम दिग्दर्शन प्रो० गेरोनो की कल्पना जैन शास्त्रों के गहन अनुशीलक इटली के प्रफेसर गेरीनो (Prof. Guerinot) ने इस सम्बन्ध में एक दूसरी कल्पना की है। वैसा करते समय उनके मस्तिष्क में ग्रन्थ के दो 'मल' और 'टीका' का ध्यान रहा है; अतः उन्होंने मूलका आशय Traiteo Original से लिया। अर्थात् प्रो० गेरीनो ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में मूल सूत्र का प्रयोग माना; क्योंकि इन ग्रन्थों पर नियुक्ति, चर्णि, टीका, वृत्ति प्रभृति अनेक प्रकार का विपुल व्याख्यात्मक साहित्य रचा गया है। टीका या व्याख्या-ग्रन्थों में उस ग्रन्थ को सर्वत्र 'मूल' कहा जाता है, जिसकी वे टीकाएँ या व्याख्याएँ होती हैं । जैन आगम वाङ्मय-सम्बन्धी ग्रन्थों में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक पर अत्यधिक टीका-व्याख्यात्मक साहित्य रचा गया है, जिनमें प्रो० गेरीनो के अनुसार टीकाकारों ने मूल ग्रन्थ के अर्थ में 'मूल सूत्र' का प्रयोग किया हो । उसी परिपाटी का सम्भवतः यह परिणाम रहा हो कि इन्हें मूल सूत्र कहने की परम्परा प्रारम्भ हो गई हो। समीक्षा पाश्चात्य विद्वानों ने जो कल्पनाएँ की हैं, उनके पीछे किसी अपेक्षा का आधार है, पर, समीक्षा की कसौटी पर कसने पर वे सर्वाशतः खरी नहीं उतरतीं। प्रो० शर्पण्टियर ने भगवान् महावीर के मूल शब्दों के साथ इन्हें जोड़ते हुए जो समाधान उपस्थित किया, उसे उत्तराध्ययन के लिए तो एक अपेक्षा से संगत माना जा सकता है, पर, दशवैकालिक आदि के साथ उसकी बिलकुल संगति नहीं है। भगवान् महावीर के मूल या साक्षात् वचनों के आधार पर यदि मूल सूत्र नाम पड़ता, तो यह प्राचारांग, सत्रकृतांग जैसे महत्वपूर्ण अंग ग्रन्थों के साथ भी जुड़ता, जिनका भगवान् महावीर की देशना के साथ (गणधरों के माध्यम से) सीधा सम्बन्ध माना जाता है। पर वहाँ ऐसा नही है; अतः इस कल्पना में विहित मूल शब्द का वह प्राशय यथावत् रूप में घटित नहीं होता। डा. वाल्टर शुबिंग ने श्रमण-जीवन के प्रारम्भ में-मूल में पालनीय प्राचार-सम्बन्धी नियमों. परम्पराओं एवं विधि-विधानों के Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम १२६ के शिक्षण की दृष्टि से मूल-सूत्र नाम दिये जाने का समाधान प्रस्तुत किया है, वह भी मूल-सूत्रों के अन्तर्गत माने जाने वाले सब ग्रन्थों पर कहां घटता है ? दशवैकालिक की तो लगभग वैसी स्थिति है, पर, अन्यत्र बहुलांशतया वैसा नहीं है। उत्तराध्ययन में, जो मूल-सूत्रों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, श्रमण-चर्या से सम्बद्ध नियमोपनियमों तथा विधि-विधानों के अतिरिक्त उसमें जैन-धर्म और दर्शन-सम्बन्धी अनेक विषय व्याख्यात किये गये हैं । अनेक दृष्टान्त, कथानक तथा ऐतिहासिक घटना-क्रम भी उपस्थित किये गये हैं, जो श्रमण-संस्कृति और जैन तत्त्व-धारा के विविध पहलुओं से जुड़े हुए हैं; इसलिए डा. वाल्टर शुब्रिग के समाधान को भी एकांगी चिन्तन से अधिक नहीं कहा जा सकता। मूल-सूत्रों में जो सन्निहित है, शुबिंग की व्याख्या में वह सम्पूर्णतया अन्तर्भूत नहीं होता । ___ इटालियन विद्वान् प्रो. गेरीनो ने मूल और टीका के आधार पर मूल-सूत्र नाम पड़ने की कल्पना की है, वह बहुत स्थूल तथा बहिर्गामी चिन्तन पर आधृत है। उसमें सूक्ष्म गवेषणा या गहन विमर्ष की दृष्टि प्रतीत नहीं होती। मूल-सूत्रों के अतिरिक्त अन्य सूत्रों पर भी अनेक टीकाएँ हैं । परिणाम की न्यूनता-अधिकता हो सकती है। उससे कोई विशेष फलित निष्पन्न नहीं होता; अतः इस विश्लेषण की अनुपादेयता स्पष्ट है। उपर्युक्त ऊहापोह के सन्दर्भ में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि जैन दर्शन, धर्म, प्राचार एवं जीवन के मूलभूत आदर्शों, सिद्धान्तों या तथ्यों का विश्लेषण अपने आप में सहेजे रखने के कारण सम्भवतः ये मल-सूत्र कहे जाने लगे हों। मुख्यतः उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक की विषय-वस्तु पर यदि दृष्टिपात किया जाए, तो यह स्पष्ट प्रतिभासित होगा। १. उत्तरज्झयण (उत्तराध्ययन) नाम : विश्लेषण उत्तराध्ययन शाब्दिक दृष्टि से उत्तर और अध्ययन; इन दो शब्दों की समन्विति से बना है। उत्तर शब्द का एक अर्थ पश्चात् या Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जैनागम दिग्दर्शन पश्चाद्वर्ती है । दूसरा अर्थ उत्कृष्ट या श्रेष्ठ है । इसका अर्थ प्रश्न का समाधान या उत्तर तो है ही। पश्चाद्वर्ती अर्थ के आधार पर उत्तराध्ययन की व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि इसका अध्ययन प्राचारांग के उत्तर-काल में होता था। श्रतकेवली प्राचार्य शय्यम्भव के अनन्तर इसके अध्ययन की कालिक परम्परा में अन्तर आया । यह दशवकालिक के उत्तर-काल में पढ़ा जाने लगा। पर, 'उत्तराध्ययन' संज्ञा में कोई परिवर्तन करना अपेक्षित नहीं हुमा; क्योंकि दोनों ही स्थानों पर पश्चादवर्तिता का अभिप्राय सदृश ही है । उत्तर शब्द का उत्कृष्ट या श्रेष्ठ अर्थ करने के आधार पर कुछ विद्वानों ने इस शब्द की यह व्याख्या को कि जैन श्रुत का असाधारण रूप में उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ विवेचन है; अतः इसका उत्तराध्ययन अभिधान अन्वर्थक है। प्रो० ल्युमैन (Prof. Leuman) ने उत्तर और अध्ययन शब्दों का सीधा अर्थ पकड़ते हुए अध्ययन का प्राशय Later Readings अर्थात् पश्चात् या पीछे रचे हुए अध्ययन किया। प्रो. ल्युमैन के अनुसार इन अध्ययनों की या इस पागम को रचना अंग-ग्रन्थों के पश्चात् या उत्तर काल में हुई; अतएव यह उत्तराध्ययन के नाम से अभिहित किया जाने लगा। कल्पसूत्र तथा टीका-ग्रन्थों में उल्लेख है कि भगवान् महावीर ने अपने अन्तिम समय में अपृष्ट-अनपूछे छत्तीस प्रश्नों के संदर्भ में विश्लेषण-विवेचन किया। इस आधार पर उन अध्ययनों का संकलन 'अपृष्ट-व्याकरण' नाम से अभिहित हुआ । उसो का नाम अपृष्ट प्रश्नों का उत्तर-रूप होने के कारण उत्तराध्ययन हो गया। 'अपृष्ट-व्याकरण'की चर्चा प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित महाकाव्य' में भी की है। १. षट्त्रिंशत्तमाप्रश्नव्याकरणान्यभिधाय च । प्रधानं नामाध्ययनं जगद्गुरुरभाषयत् ॥ --पर्व १०, सर्ग १३, श्लो० २२४ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस मागम विमर्ष . कल्पसूत्रकार तथा टीकाकारों द्वारा दिया गया समाधान तथा प्रो. ल्युमैन द्वारा किया गया विवेचन; दोनों परस्पर भिन्न हैं। भगवान महावीर ने बिना पूछे छत्तीस प्रश्नों के उत्तर दिये, उनका संकलन हुअा -उत्तराध्ययन के अस्तित्व में आने के सम्बन्ध में यह कल्पना परम्परा-पुष्ट होते हुए भी उतनी हृद्-ग्राह्य प्रतीत नहीं होती। भगवान् महावीर ने अपृष्ट प्रश्नों के उत्तर दिये, इसके स्थान पर यह भाषा क्या अधिक संगत नहीं प्रतीत होती कि उन्होंने अन्तिम समय में कुछ धार्मिक उपदेश, विचार या सन्देश दिये। फिर वहां उत्तर शब्द भी न आ कर 'व्याकरण' शब्द आया है, जिसका अर्थ-विश्लेषण है। यदि अन्तिम के अर्थ में उत्तर शब्द का प्रयोग मानो जाता, तो फिर कुछ संगति होती। पर, जवाब के अर्थ में उत्तर शब्द का यहां ग्रहण उत्तराध्ययन सूत्र के स्वरूप के साथ सम्भवतः उतना मेल नहीं खाता जितना होना चाहिए। उत्तराध्ययन में दृष्टान्त हैं, कथानक हैं, घटनाक्रम हैं-यह सब उत्तर शब्द के अभिप्राय में अन्तर्भूत हो जाएँ, कम संगत प्रतीत होता है । साहित्यिक दृष्टि से भी उत्तर शब्द वस्तुतः प्रश्न-सापेक्ष है। प्रश्न के बिना जो कुछ भी कहा जाए, वह व्याख्यान, विवेचन, विश्लेषण, निरूपण आदि सब हो सकता है, पर, उसे उत्तर कैसे कहा जाए? नियुक्तिकार ने उत्तराध्ययन की रचना के सम्बन्ध में जो लिखा है, उससे यही तथ्य बाधित है। प्रो० ल्युमैन ने जो कहा है उसकी तार्किक असंगति नहीं है । भाषाशास्त्रियों ने जो परिशीलन किया है, उसके अनुसार उत्तराध्ययन की भाषा प्राचीन है, पर, उससे प्रो० ल्युमैन का कथन खण्डित नहीं होता। उन्होंने इसकी विशेष अर्वाचीनता तो स्थापित की नहीं है, इसे अंगग्रन्थों से पश्चाद्वी बताया है। वैसा करने में कोई असम्भावना प्रतीत नहीं होती। एक प्रश्न और उठता है, अंग-ग्रन्थों के पश्चाद्वर्ती तो अनेक ग्रन्थ हैं, पश्चाद्वर्तिता या उत्तरवर्तिता के कारण केवल इसे ही उत्तरा. ध्ययन क्यों कहा गया ? इस सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि यह अंग ग्रन्थों के समकक्ष महत्व लिये हुए है। रचना, विषय-वस्तु, विश्लेषण Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जनागम दिग्दर्शन आदि की दृष्टि से उन्हीं की कोटि का है; अतः इसे ही विशेष रूप से इस अभिधा से संशित किया गया है , यह भी एक अनुमान है। उससे अधिक कोई ठोस तथ्य इससे प्रकट नहीं होता। संक्षेप में विशाल जैन तत्त्व-ज्ञान तथा प्राचार-शास्त्र को व्यक्त करने में आगम-वाङमय में इसका असाधारण स्थान है। भगवद्गीता जिस प्रकार समग्र वैदिक धर्म का निष्कर्ष या नवनीत है, जैन धर्म के सन्दर्भ में उत्तराध्ययन की भी वही स्थिति है। काव्यात्मक हृदयस्पर्शी शैलो, ललित एवं पेशल संवाद, साथ ही साथ स्वभावतः सालंकार भाषा प्रभृति इसको अनेक विशेषताएँ है, जिसने समीक्षक तथा अनुसन्धित्सु विद्वानों को बहुत आकृष्ट किया है। डा० विण्टरनित्ज ने इसे श्रमणकाव्य के रूप में निरूपित किया है तथा महाभारत, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि के साथ इसकी तुलना की है। उत्तराध्ययन का महत्व केवल इन शताब्दियों में ही नहीं उभरा है, प्रत्युत बहुत पहले से स्वीकार किया जाता रहा है। नियुक्तिकार ने तीन गाथाएँ उल्लिखित करते हुए इसके महत्व का उपपादन किया है: “जो जीव भवसिद्धिक हैं-भव्य हैं, परित्तसंसारी हैं, वे उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन पढ़ते हैं। जो जीव अभवसिद्धिक हैं-अभव्य हैं, ग्रन्थिक सत्व हैं-जिनका ग्रन्थि-भेद नहीं हुआ है, जो अनन्त संसारी हैं, संक्लिष्टकर्मा हैं, वे उत्तराध्ययन पढ़ने के अयोग्य हैं। इसलिए (साधक को) जिनप्रज्ञप्त, शब्द और अर्थ के अनन्त पर्यायों से संयुक्त इस सूत्र को यथाविधि (उपधान आदि तप द्वारा) गुरुजनों के अनुग्रह से अध्ययन करना चाहिये।" १. जे किर भवसिद्धिया, परित्तसंसारिमा य भविमा य । ते किर पंढ़ति धीरा, छत्तीसं उत्तरज्झयणे ॥ १ जे हुंति प्रभवसिद्धिया, गंथिमसत्ता प्रणंतसंसारा। ते संकिलिट्ठकम्मा, प्रभविया उत्तरज्झाए ॥२ तम्हा जिणपण्णत्ते, प्रपंतगमपज्जवेहि संजुत्ते। प्रज्झाए जहाजोगं, गुरुपसाया प्रसिज्झिज्जा ॥ ३ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३ पैंतालीस प्रागम उत्तराध्ययन सूत्र छत्तीस अध्ययनों में विभक्त है । समवायांग सूत्र के छत्तीसवें समवाय में उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों के शीर्षकों का उल्लेख है, जो उत्तराध्ययन में प्राप्त अध्ययनों के नामों से मिलते हैं । उत्तराध्ययन के जीवाजीवविभक्ति संज्ञक छत्तीसवें अध्ययन के अन्त में अग्रांकित शब्दों में इस ओर संकेत है: "भवसिद्धिक जीवों के लिये सम्मत उत्तराध्ययन क े छत्तीस अध्ययन प्रादुर्भूत कर ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ भगवान् महावीर परिनिवृत मुक्त हो गये । " " उत्तराध्ययन के नाम सम्बन्धी विश्लेषण के प्रसंग में यह चर्चित हुआ ही है कि भगवान् महावीर ने अपने अन्त समय में इन छत्तीस अध्ययनों का व्याख्यान किया । नियुक्तिकार का श्रभिमत नियुक्तिकार प्राचार्य भद्रबाहु का अभिमत उपर्युक्त पारम्परिक मान्यता के प्रतिकूल है । उन्होंने इस सम्बन्ध में नियुक्ति में लिखा है: "उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन अंग-प्रभव हैं, कुछ जिनभाषित हैं, कुछ प्रत्येकबुद्धों द्वारा निर्देशित हैं, कुछ संवाद- प्रसूत हैं । इस प्रकार बन्धन से छूटने का मार्ग बताने के हेतु उसके छत्तीस अध्ययन निर्मित हुए ।" " चूर्णिकार श्री जिनदास महत्तर और बृहद्वृत्तिकार वादिवैताल श्री शान्तिसूरि ने नियुक्तिकार के मत को स्वीकार किया है । उनके अनुसार उत्तराध्ययन के दूसरे परिषहाध्ययन की रचना द्वादशांगी के बारहवें अंग दृष्टिवाद के कर्मप्रवादसंज्ञक पूर्व के ७० वें प्राभृत के आधार पर हुई है । अष्टम कापिलीय अध्ययन कपिल नामक प्रत्येक १. इह पाउकरे बुद्ध गायये परिणिव्वए । छत्तीसं उत्तरज्झाए, भवसिद्धिय सम्मए ॥ २. जैन - परम्परा में ऐसा माना जाता है कि दीपावली की अन्तिम रात्रि में भगवान् महावीर ने इन छत्तीस अध्ययनों का निरूपण किया । ३. गप्पभवा जिरणभासिया य पत्ते यबुद्धसंवाया । वंधे मुक्या कया, छत्तीसं उत्तरज्भयरणा । । - नियुक्ति, गाथा ४ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जैनागम दिग्दर्शन बुद्ध द्वारा प्रतिपादित है । दशवां द्र मपुष्पिका अध्ययन स्वयं अर्हत् महावीर द्वारा भाषित है । तेईसवाँ केशि - गौतमीय अध्ययन संवादरूप में आकलित है । 'भद्रबाहुना प्रोक्तानि' का अभिप्राय - इस " भद्रबाहुना प्रोक्तानि भाद्रबाह्वानि उत्तराध्ययनानि प्रकार का भी उल्लेख प्राप्त होता है, जिससे कुछ विद्वान् सोचते हैं कि उत्तराध्ययन के रचयिता प्राचार्य भद्रबाहु हैं । सबसे पहले विचारणीय यह है कि उत्तराध्ययन की नियुक्ति के लेखक भद्रबाहु हैं । जैसा कि पूर्व सूचित किया गया है, वे उत्तराध्ययन की रचना में अंगप्रभवता जिन भाषितता, प्रत्येकबुद्ध प्रतिपादितता, संवाद- निष्पन्नता आदि कई प्रकार के उपपादक हेतुत्रों का प्राख्यान करते हैं । उपर्युक्त कथन से 'भद्रबाहुना' के साथ 'प्रोक्तानि' क्रिया- पद प्रयुक्त हुआ है। प्रोक्तानि का अर्थ 'रचितानि' नहीं होता । प्रकर्षेण उक्तानि - प्रोक्तानि के अनुसार उसका अर्थ विशेष रूप से व्याख्यात, विवेचित या अध्यापित होता है । शाकटायन' और सिद्ध हैमशब्दानुशासन आदि व्याकरणों में यही आशय स्पष्ट किया गया है। इस विवेचन के अनुसार प्राचार्य भद्रबाहु उत्तराध्ययन के प्रकृष्ट व्याख्याता, प्रवक्ता या प्राध्यापयिता हो सकते हैं, रचयिता नहीं । कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं, उत्तराध्ययन के पूर्वार्द्ध के अठारह अध्ययन प्राचीन हैं तथा उत्तरार्द्ध के अठारह अध्ययन अर्वाचीन । इसके लिए भी कोई प्रमाण-भूत या इत्थंभूत भेद - रेखा - मूलक तथ्य या ठोस आधार नहीं मिलते | विमर्ष : समीक्षा समीक्षात्मक दृष्टि से चिन्तन करें, तो यह समग्र आगम भगवान् महावीर द्वारा ही भाषित हुआ हो या किसी एक व्यक्ति ने इसकी १. टः प्रोक्ते ३ / १ / ६६ २. तेन प्रोक्ते ६ / ३ / १८ " शाकटायन - सिद्ध है मशब्दानुशासनम् Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प तालीस पागम १३५ रचना की हो, ऐसा कम सम्भव प्रतीत होता है । कारण स्पष्ट है, यहां सर्वत्र एक जैसी भाषा का प्रयोग नहीं हुअा है। अर्द्धमागधी प्राकृत का जहां अत्यन्त प्राचीन रूप इसमें सुरक्षित है, वहां यत्र-तत्र भाषा के अर्वाचीन रूपात्मक प्रयोग भी दृष्टिगोचर होते हैं । इससे यह अनुमान करना सहज हो जाता है कि इस पागम की रचना एक ही समय में नहीं हई । ऐसा प्रतीत होता है कि समय-समय पर इसमें कुछ जुड़ता रहा है। इस प्रकार संकलित होता हुआ यह एक परिपूर्ण अागम के रूप में अस्तित्व में आता है । पर, ऐसा कब-कब हुग्रा, किन-किन के द्वारा हया, इस विषय में अभी कोई भी अकाट्य प्रमाण उपस्थित नहीं किया जा सकता । सार रूप में इस प्रकार कहना युक्तियुक्त लगता है कि इसकी रचना में अनेक तत्त्व-ज्ञानियों और महापुरुषों का योगदान है, जो सम्भवतः किसी एक ही काल के नहीं थे। विषय-वस्तु जीवन की आवश्यकता, दुष्ट कर्मों के दूषित परिणाम, अज्ञानी का ध्येय-शून्य जीवन, भोगासक्ति का कलुषित विपाक, भोगीकी बकरे के साथ तुलना, अधम गति में जाने वाले जीव के विशिष्ट लक्षण, मानव-जीवन की दुर्लभता, धर्म-श्रुति,श्रद्धा, संयमोन्मुखता का महत्व, गही साधक की योग्यता, संयम का स्वरूप, सदाचार-सम्पन्न व्यक्ति की गति, देव-गति के सुख, ज्ञानी एवं अज्ञानी के लक्षण, ज्ञान का सुन्दर परिणाम, जातिवाद की हेयता, जातिवाद का दुष्परिणाम, आदर्श भिक्षु, ब्रह्मचर्य समाधि के स्थान, पापी श्रमण, श्रमण-जीवन को दूषित करने वाले सूक्ष्म दोष, पाठ प्रकार की प्रवचन-माताएँ, सच्चा यज्ञ, याजक, यज्ञाग्नि आदि का स्वरूप, साधना-निरत भिक्षु की दिनचर्या, सम्यक्त्व-पराक्रम का स्वरूप, आत्म-विकास का पथ, तपश्चर्या के भिन्नभिन्न प्रयोग, चरण-विधि-ग्राह्य, परिहेय, उपेक्ष्य प्रादि का विवेक, प्रमाद-स्थान-तृष्णा, मोह, क्रोध, राग, द्वेष, आदि का मूल, कर्मविस्तार, लेश्या, अनासक्तता, लोक पदार्थ, निष्फल मृत्यु, सफल मृत्यु प्रभृति अनेक विषयों का विभिन्न अध्ययनों में बड़ा मार्मिक एवं तलस्पर्शी व्याख्यान-विश्लेषण हुआ है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैनागम दिग्दर्शन दष्टान्त : कथानक दूसरा महत्वपूर्ण अंग है, इसका रूपक, दृष्टान्त व कथानकभाग । इनके माध्यम से तत्त्व-ज्ञान और प्राचार-धर्म का विशद विवेचन हुअा है, जिसका अनेक दृष्टियों से बड़ा महत्व है। पच्चीसवां अध्ययन इसका उदाहरण है, जहां अध्यात्म-यज्ञ, उसके अंगोंपांगों एवं उपकरणों का हृदयस्पर्शी विवेचन है। इस प्रकार के अनेक प्रकरण हैं, जहां उपमाओं तथा रूपकों का ऐसा सुन्दर और सहज सन्निवेश है कि विवेच्य विषय साक्षात् उपस्थित हो जाता है । नवम अध्ययन में इन्द्र और राजर्षि नमि का प्रकरण अनासक्त तितिक्षु एवं मुमुक्षु जीवन का एक सजीव तथा असाधारण चित्र प्रस्तुत करता है। बारहवां हरिकेशीय अध्ययन उत्तराध्ययन का एक क्रान्तिकारी अध्याय है, जहां चाण्डाल-कुलोत्पन्न मुनि हरिकेशबल के तपः-प्रभाव और साधनानिरत जीवन की गरिमा इतनी उत्कृष्टतया उपस्थित है कि, जाति, कूल प्रादि का मद, दम्भ और अहंकार स्वयमेव निस्तेज तथा निस्तथ्य हो जाते हैं। बाईसवां रथनेमीय अध्ययन प्रात्म-पराक्रम, ब्रह्म-प्रोज जागृत करने की पूरकता के साथ-साथ अनेक दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि की जीवन झांकी, उनके द्वारा लौकिक एषणा और कामना का परित्याग, श्रमण रथनेमि का अन्तदौंबल्य, वासना का उभार, राजीमती द्वारा उद्बोधन प्रभृति ऐसे रोमांचक प्रसंग हैं, जिनकी भावना और प्रज्ञा; दोनों के प्रकर्ष की दृष्टि से कम गरिमा नहीं है। तेईसवां केशि-गौतमीय अध्ययन है, जो भगवान् पार्श्व की परम्परा के श्रमण महामुनि केशी तथा भगवान् महावीर के अनन्य अन्तेवासी गणधर गौतम के परस्पर मिलन, प्रश्नोत्तर--संवाद आदि बहुमूल्य सामग्री लिये हुए है। तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्व की परम्परा चौवीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर की परम्परा में किस प्रकार समन्वित रूप में विलीन होती जा रही थी, प्रस्तुत अध्ययन इसका ज्वलन्त साक्ष्य है। चातुर्याम धर्म अोर पंच महाव्रतों के तुलनात्मक परिशीलन की दृष्टि से भी यह अध्ययन पठनीय है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस मागम व्याख्या साहित्य उत्तराध्ययन सूत्र पर व्याख्यात्मक साहित्य विपुल परिमाण में विद्यमान है । प्राचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति लिखी। श्री जिनदास महत्तर ने चूणि की रचना की। थारापद्र-गच्छ से सम्बद्ध वादिवैताल विरुदालंकृत श्री शान्तिसूरि ने 'पाई' या 'शिष्यहिता' नामक टीका की रचना की, जो उत्तराध्ययन-बृहद-वृत्ति भी कहलाती है। श्री शान्तिसूरि का स्वर्गवास-काल ई० सन् १०४० माना जाता है। इस टीका के आधार पर, श्री देवेन्द्र गणी ने, जो आगे चल कर श्री नेमिचंद्र सूरि के नाम से विख्यात हुए, 'सुखबोधा' नामक टीका लिखी, जो सन् १०७३ में समाप्त हुई। उत्तराध्ययन पर टीकाएं लिखने वाले अनेक जैन विद्वान् हैं, जिनमें लक्ष्मीवल्लभ, जयकीर्ति, कमलसंयम, भावविजय, विनयहंस तथा हर्षकुल प्रादि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस पर कार्य किया है। उदाहरणार्थ प्रो० शन्टियर ने मूल पाठ अंग्रेजी प्रस्तावना सहित प्रस्तुत किया है। प्रागम-वाङमय के विख्यात अन्वेषक डा० जैकोबी ने अंग्रेजी में अनवाद किया, जो प्रो० मैक्समूलर के सम्पादकत्व में Sacred books of the East. के पैंतालीसवें भाग में प्राक्सफोर्ड से सन् १८६५ में प्रकाशित हुआ। २. प्रावस्सय (मावश्यक) नाम : सार्थकता ___ अवश्य से आवश्यक शब्द बना है । अवश्य का अर्थ है, जिसे किये बिना बचाव नहीं, जो जरूर किया जाना चाहिए। इसके अनुसार आवश्यक का आशय श्रमण द्वारा करणीय उन भाव-क्रियानुष्ठानों से है, जो श्रमण-जीवन के निर्बाध तथा शुद्ध निर्वहण की दृष्टि से पावश्यक वें है । क्रियानुष्ठान संख्या में छः हैं; अतः इस सूत्र को षडावश्यक भी कहा जाता है। यह छः विभागों में विभक्त है, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन जिसमें क्रमशः सामायिक, चतुर्विंशति-स्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान का वर्णन है। सामायिक अन्तरतम में समभाव की अवतारणा सामायिक है। एतदर्थ साधक मानसिक, वाचिक तथा कायिक दृष्टि से, कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप से समग्र सावद्य-सपाप योगों-प्रवृत्तियों से पराङ मुख रहने का प्रथम आवश्यक में वर्णन है। चतुविंशति-स्तव द्वितीय आवश्यक में लोक में धर्म का उद्योत करने वाले चौवीस तीर्थंकरों का वर्णन है, जिससे आत्मा में तदनुरूप दिव्य भाव का उद्रेक होता है। वन्दन तीसरा आवश्यक वन्दन से सम्बद्ध है। शिष्य गुरु-चरणों में 'स्थित होता है, उनसे क्षमा याचना करता है, उनके संयमोपकरणभूत देह की सुख-पृच्छा करता है। प्रतिक्रमण ____ चौथे आवश्यक में प्रतिक्रमण का विवेचन है। प्रतिक्रमण का अर्थ बहिर्गामी जीवन से अन्तर्गामी जीवन में प्रत्यावृत्त होना है अर्थात् साधक यदि प्रमादवश शुभ योग से चलित होकर अशुभ योग को प्राप्त हो जाए, तो वह पुनः शुभ योग में संस्थित होता है। यदि उसके द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में श्रमण-धर्म की विराधना हुई हो, किसी को कष्ट पहुँचाया गया हो, स्वाध्याय आदि में प्रमादाचरण हुअा हो, तो वह . (प्रतिक्रमण करने वाला साधक) उनके लिये 'मिच्छामि दुक्कड़ -मिथ्या मे दुष्कृतम्-ऐसी भावना से उद्भावित होता है, जिसका अभिप्राय जीवन को संयमानुकूल, पवित्र और सात्विक भावना से प्राप्यायित बनाये रखना है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस भागम कायोत्सर्ग पांचवाँ प्रावश्यक कायोत्सर्ग से सम्बद्ध है। कायोत्सर्ग का आशय है-देह-भाव का विसर्जन और आत्म-भाव का सर्जन। यह ध्यानात्मक स्थिति है, जिसमें साधक दैहिक चांचल्य और अस्थैर्य का वर्जन कर निश्चलता में स्थित रहना चाहता है। प्रत्याख्यान छठे आवश्यक में सावद्य-सपाप कार्यों से निवृत्तता तथा प्रशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि के प्रत्याख्यान की चर्चा है । व्याख्या-साहित्य आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक पर नियुक्ति की रचना की। इस पर भाष्य भी रचा गया। आचार्य जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण द्वारा अत्यन्त विस्तार और गम्भीरता के साथ "विशेषावश्यक भाष्य" की रचना की गयी, जो जैन साहित्य में निःसन्देह एक अद्भुत कृति है। श्री जिनदास महत्तर ने चूणि की रचना की। प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने इस पर टीका लिखी, जो 'शिष्यहिता के नाम से विश्रुत है। इसमें आवश्यक के छः प्रकरणों का पैंतीस अध्ययनों में सूक्ष्मतया विवेचन-विश्लेषण किया गया है। वहां प्रासंगिक रूप में प्राकृत की अनेक प्राचीन कथाएं भी दी गयी हैं। प्राचार्य मलयगिरि ने भी टीका की रचना की। श्री माणिक्यशेखरसूरि द्वारा इसकी नियुक्ति पर दीपिका की रचना की गयी। श्री तिलकाचार्य द्वारा इस पर लघुवृत्ति की रचना हुई। ३. दसवेयालिय (दशवकालिक) नाम : अन्वर्थकता दश और वैकालिक; इन दो शब्दों के योग से नाम की निष्पत्ति हुई है। सामान्यतः दश शब्द दश अध्ययनों का सूचक है और वैकालिक का सम्बन्ध रचना, नि_हण या उपदेश से है । विकाल का अर्थ सन्ध्या है। वैकालिक विकाल का विश्लेषण है। ऐसा माना जाता Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनागमा: विग्दर्शन है कि सन्ध्या समय में अध्ययन किये जाने के कारण यह नाम प्रचलित हुआ। ऐसी भी मान्यता है कि दश विकालों या सन्ध्याओं में रचना, निर्यू हण या उपदेश किया गया । अतः यह दर्शवेकालिक कहा जाने लगा । इसके रचनाकार या नियू हक प्राचार्य शय्यम्भव थे, जिन्होंने अपने पुत्र बाल मुनि मनक के लिए इसकी रचना की। अंगबाह्यगत उत्कालिक सूत्रों में दशवैकालिक का प्रथम स्थान है । दश अध्ययनों तथा दो चूलिकाओं में यह सूत्र विभक्त है । दश अध्ययन संकलनात्मक हैं । चूलिकाएं स्वतन्त्र रचना प्रतीत होती हैं । चूलिकाओं के रचे जाने के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार वे प्राचार्य शय्यम्भव कृत ही होनी चाहिए । इतना सम्भावित हो सकता है, चूलिकाओं की रचना दश अध्ययनों के पश्चात् हुई हो । सूत्र और चूलिकाओं की भाषा इतनी विसदृश नहीं है कि उससे दो भिन्न रचयिताओं का सूचन हो । कुछ विद्वान् इस मत को स्वीकार नहीं करते । उनके अनुसार चूलिकाएँ किसी अन्य लेखक की रचनाएँ हैं, जो दश अध्ययनों के साथ जोड़ दी गयीं । संकलन : प्राधार : पूर्व श्रुत आचार्य भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति में किये गये उल्लेख के अनुसार दशकालिक के चतुर्थ अध्ययन का आधार आत्म-प्रवाद- पूर्व, पंचम अध्ययन का आधार प्रात्म-प्रवाद पूर्व, सप्तम अध्ययन का आधार सत्यप्रवाद - पूर्वं तथा अन्य अध्ययनों का आधार प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु है । दूसरा श्राधार : अन्य श्रागम श्रुतकेवली प्राचार्य शय्यम्भव ने अनेकानेक आगमों का दोहन कर सार रूप में दशवैकालिक को संग्रथित किया । दशवैकालिक में वर्णित विषयों का यदि सूक्ष्मता से परीक्षण किया जाए, तो प्रतीत होगा कि, वे विविध प्रागम-ग्रन्थों से बहुत निकटतया संलग्न हैं । दशबैकालिक के दूसरे अध्ययन का शीर्षक ' श्रामण्यपूर्वक' है । उसमें Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस पागम २४१ श्रमण को कामराग या विषय-वासना से बचते रहने का उपदेश दिया गया है । उस सन्दर्भ में रथनेमि और राजीमती का प्रसंग भी संक्षेप में संकेतित है । यह अध्ययन उत्तराध्ययन के बाईसवें 'रथनेमि' अध्य-यन के बहुत निकट है। उत्तराध्ययन में रथनेमि प्रौर राजीमती का इतिवृत्त अपेक्षाकृत विस्तार से वर्णित है, पर, दोनों की मूल ध्वनि एक ही है। चतुर्थ अध्ययन का शीर्षक 'षड्जीवनिकाय' है। इसमें षट्कायिक जीवों का संक्षेप में वर्णन करने के उपरान्त उनकी हिंसा के प्रत्याख्यान का प्रतिपादन है। इससे संलग्न प्रथम अहिंसा महाव्रत का विवेचन है। तदनन्तर पांच महाव्रतों का वर्णन है । प्रारम्भ-समारम्भ से पाप-बन्ध का प्रतिपादन करते हुए उससे निवृत्त होने का सुन्दर चित्रण है। यह अध्ययन प्राचारांग सूत्र के द्वितीय श्र तस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन के उत्तराद्ध से तुलनीय है। इस अध्ययन के पूर्व भाग में भगवान महावीर का जीवन-वृत्त विस्तार से उल्लिखित है तथा उत्तर भाग में महावीर द्वारा गौतम आदि निर्ग्रन्थों को उपदिष्ट किये गये पांच महाव्रतों तथा पृथ्वीकाय प्रभृति षड्-जीवनिकाय का विश्लेषण है। दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन की सामग्री का संकलन आचारांग के इसी अध्ययन से हुआ हो, ऐसा सम्भाव्य प्रतीत होता है। पंचम अध्ययन का शीर्षक 'पिण्डैषणा' है। इसमें श्रमण की भिक्षा-चर्या के सन्दर्भ में सभी पहलुओं से बड़ा सुन्दर प्रकाश डाला गया है । भिक्षा के लिये किस प्रकार जाना, नहीं जाना, किस-किस स्थिति में भिक्षा लेना, किस-किस में नहीं लेना; इत्यादि का समीचीन विशद रूप में विवेचन किया गया है । इस अध्ययन की विषय-वस्तु प्राचारांग के द्वितीय श्रत-स्कन्ध के प्रथम अध्ययन से प्राकलित प्रतीत होती है। उसकी संज्ञा भी 'पिण्डषणा' ही है। सातवें अध्ययन का शीर्षक 'वाक्य-शुद्धि' है। इसमें श्रमण के द्वारा किस प्रकार की भाषा प्रयोज्य है, किस प्रकार की अयोज्य; इस वर्णन के साथ संयमी के विनय और पवित्रता-पूर्ण प्राचार पर प्रकाश Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन डाला गया है। जिस-जिस प्रकार के भाषा-प्रयोग और व्यवहार-चर्या का उल्लेख किया गया है, वह श्रमण के अनासक्त, निलिप्त, अमूच्छित, जागरूक तथा आत्म-लीन जीवन के विकास से सम्बद्ध है। प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन का नाम 'भाषाजात' है। उसमें साधु द्वारा प्रयोग करने योग्य, न करने योग्य भाषा का विश्लेषण है । दशवकालिक के उक्त अध्ययन, में किसी अपेक्षा से इसकी अवतारणा हुई हो, ऐसा अनुमेय है। . 'विनय-समाधि' नवम अध्ययन है। इसमें गुरु के प्रति शिष्य का व्यवहार सदा विनय-पूर्ण रहे, इस पर सुन्दर रूप में प्रकाश डाला गया है। विनय-पूर्ण व्यवहार के सुलाभ और अविनय-पूर्ण व्यवहार के दुर्लाभ हृद्य उपमाओं द्वारा वर्णित किये गये हैं । यह अध्ययन उत्तरा-- ध्ययन के प्रथम अध्ययन 'विनय-श्रुत' से विशेष मिलता-जुलता है, जहां गुरु के प्रति शिष्य के विनयाचरण की उपादेयता और अविनयाचरण की वय॑ता का विवेचन है। - दशम अध्ययन का शीर्षक ‘स भिक्षुः' है। अर्थात् इस अध्ययन में भिक्ष के जीवन, उसकी दैनन्दिन चर्या, व्यवहार, संयमानुप्राणित अध्यवसाय, प्रासक्ति-वर्जन, अलोलुपता आदि का सजीव चित्रण है। दूसरे शब्दों में भिक्षु के यथार्थ रूप का एक रेखांकन है, जो साधक के लिये बड़ा उत्प्रेरक है। उत्तराध्ययन का पन्द्रहवां अध्ययन भी इसी प्रकार का है। उसका शीर्षक भी यही है। दोनों का बहुत साम्य है। भाव ही नहीं, शब्द-रचना तथा छन्द-गठन में भी अनेक स्थानों पर एकरूपता है । ऐसा अनुमान करना अस्वाभाविक नहीं है कि दशवै-- कालिक का दशवां अध्ययन उत्तराध्ययन का पन्द्रहवें अध्ययन का बहुत कुछ रूपान्तरण है। चूलिकाएँ रति-वाक्या ., दशम अध्ययन की समाप्ति अनन्तर प्रस्तुत सूत्र में दो चूलिकाएँ हैं। पहली चूलिका 'रति-वाक्या' है। अध्यात्म-रस में पगे व्यक्तियों Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पैतालीस मागम १४३ के लिए भिक्षु-जीवन अत्यन्त पालादमय है। पर, भौतिक दृष्टि से उसमें अनेक कठिनाइयां हैं, पद-पद पर असुविधाएँ हैं। क्षण-क्षण प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है । दैहिक भोग अग्राह्य हैं ही। ये सब प्रसंग ऐसे हैं, जिसके कारण कभी-कभी मानव-मन में दुर्बलता उभरने लगती है। यदि कभी कोई भिक्षु ऐसी मनःस्थिति में आ जाएँ, तो उसे संयम में टिकाये रखने के लिए, उसमें पुनः इंढ़ मनोबल जगाने के लिए उसे जो अन्तः-प्रेरक तथा उद्बोधक विचार दिये जाने चाहिए, वही सब प्रस्तुत चूलिका में विवेचित है। सांसारिक जीवन की दुःखमयता, विषमता, भोगों की निःसारता, अल्पकालिकता, परिणाम-विरसता, अनित्यता, संयमी जीवन की सारमयता, पवित्रता, आदेयता आदि विभिन्न पहलुओं पर विशद-प्रकाश डाला गया है तथा मानव में प्राणपण से धर्म का प्रतिपालन करने का भाव भरा गया है। वैषयिक भोग, वासना, लौकिक सुविधा और दैहिक सुख से आकृष्ट होते मानव को उनसे हटा आत्म-रमण, संयमानुपालन तथा तितिक्षामय जीवन में पुनः प्रत्यावृत्त करने में बड़ी मनोवैज्ञानिक निरूपण शैली का व्यवहार हुआ है, जो रोचक होने के साथ शक्ति-संचारक भी है। संयम में रति-अनुराग-तन्मयता उत्पन्न करने वाले वाक्यों की संरचना होने के कारण ही सम्भवतः इस चूलिका का नाम 'रति वाक्या' रखा गया हो। विविक्तचर्या दूसरी चूलिका विविक्तचर्या है। विविक्त का अर्थ नियुक्त, पृथक्, निवृत्त, एकाकी, एकान्त स्थान या विवेकशील है। इसका आशय उस जीवन से है, जो सांसारिकता से पृथक् है । दूसरे शब्दों में निवृत्त है; अतएव विवेकशील है। इस चूलिका में श्रमण जीवन को उद्दिष्ट कर अनुस्रोत में न बह प्रतिस्रोतगामी बनने, प्राचार-पालन में पराक्रमशील रहने, अल्प-सीमित उपकरण रखने, गृहस्थ से वैयावृत्य-शारीरिक सेवा न लेने, सब इन्द्रियों को सुसमाहित कर संयम-जीवन को सदा सुरक्षित बनाये रखने आदि के सन्दर्भ में अनेक ऐसे उत्लेख किये गये हैं, जिनका अनुसरण करता हुमा भिक्षु प्रतिबुद्धजीवी बनता है। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन विशेषता : महत्त्व . अति संक्षेप में जैन-तत्त्व दर्शन एवं आचार-शास्त्र व्याख्यात करने की अपनी असाधारण विशेषता के साथ-साथ शब्द-रचना, शैली तथा भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी इस सूत्र का कम महत्व नहीं है। इसमें प्रयुक्त भाषा के अनेक प्रयोग अति प्राचीन प्रतीत होते हैं, जो प्राचारांग तथा सूत्रकृताँग जैसे प्राचीनतम आगम-ग्रन्थों में हुए भाषा-प्रयोगों से तुलनीय हैं। उतराध्ययन में हुए भाषा के प्राचीनता-द्योतक प्रयोगों के समकक्ष इसमें भी उसी प्रकार के अनेक प्रयोग प्राप्त होते हैं । यह अर्द्धमागधी भाषा-विज्ञान से सम्बद्ध एक स्वतन्त्र विषय है, जिस पर विशेष चर्चा करना प्रसंगोपात नहीं है । प्राकृत के सुप्रसिद्ध अध्येता एवं वैयाकरणी डा. पिशल ने उतराध्ययन तथा दशवकालिक को प्राकृत के भाषा-शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बतलाया है। व्याख्या-साहित्य दशवकालिक सूत्र पर प्राचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति की रचना की। श्री अगस्त्यसिंह तथा श्री जिनदास महत्तर द्वारा चूर्णियां लिखी गयीं। प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने टीका की रचना की। श्री समयसुन्दर गणी ने दीपिका लिखी। श्री तिलकाचार्य या श्री तिलकसूरि, श्री सुमतिसूरि तथा श्री विनयहंस प्रभृति विद्वानों द्वारा वृत्तियों की रचना हुई। यापनीय संघ के श्री अपराजित, जो श्री विजयाचार्य के नाम से भी ख्यात हैं; ने भी टीका की रचना की, जिसका उन्होंने 'विजयोदया' नामकरण किया । अपने द्वारा विरचित "भगवती आराधना" टीका में उन्होंने इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है। श्री ज्ञानसम्राट तथा श्रीराजहंस महोपाध्याय ने इस पर गुजराती टीकात्रों की रचना की। श्री ज्ञानसम्राट् द्वारा रचित टीका 'बालावबोध' के नाम से विश्रुत है। प्रथम प्रकाशन पाश्चात्य विद्वानों का प्राच्यविद्याओं के अन्तर्गत जैन वाङमय के परिशीलन की ओर भी झुकाव रहा है। उन्होंने उस ओर विशेष Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस ग्रागम १४५ अध्यवसाय भी किया है, जो इस एक उदाहरण से स्पष्ट है कि जर्मन विद्वान् डा० अर्नेस्ट ल्यूमेन ( Dr. Ernest Leumann) ने सन् १८६२ में जर्मन प्रॉरियन्टल सोसायटी के जर्नल ( Journal of the German Oriental Society) में सबसे पहले दशवैकालिक का प्रकाशन किया । उससे पहले यह ग्रन्थ केवल हस्तलिखित प्रतियों के रूप में था, मुद्रित नहीं हो पाया था । उसके पश्चात् भारत में इसका प्रकाशन हुआ । उत्तरोत्तर अनेक संस्करण निकलते गये । सन् १६३२ में सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान्, जैन आगम वाङ् मय व प्राकृत के प्रमुख अध्येता डा० शुबिंग के सम्पादकत्व में प्रस्तावना आदि के साथ इसका जर्मनी में प्रकाशन हुआ । · ४. पिंड निज्जुत्ति ( पिण्ड - नियुक्ति) नाम : व्याख्या पिण्ड शब्द जैन पारिभाषिक दृष्टि से भोजनवाची है । प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रहार एषणीयता, अनेषणीयता श्रादि के विश्लेषण के सन्दर्भ में उद्गम-दोष, उत्पादन - दोष, एषणा - दोष और ग्रास- एषणा - दोष आदिश्रमण जीवन के आहार, भिक्षा प्रादि महत्वपूर्ण पहलुओं पर विशद विवेचन किया गया है । मुख्यतः दोषों से सम्बद्ध होने के कारण इस ग्रन्थ की अनेक गाथाएं सुप्रसिद्ध दिगम्बर लेखक वट्टकेर के मूलाचार की गाथाओं से मिलती हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में छः सौ इकहत्तर गाथाएँ हैं । यह वास्तव में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है । दशवैकालिक के पंचम अध्ययन का नाम 'पिण्डेषणा' है । इस अध्ययन पर प्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति बहुत विस्तृत हो गयी है । यही कारण है कि इसे 'पिण्ड -निर्युक्ति' के नाम से एक स्वतन्त्र आगम के रूप में स्वीकार कर लिया गया । नियुक्ति और भाष्य की गाथाओं का इस प्रकार विमिश्रण हो गया है कि उन्हें पृथक्-पृथक् छाँट पाना कठिन है । पिण्ड - नियुक्ति आठ अधिकारों में विभक्त है, जिनके नाम उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अँगार, धूम तथा कारण Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन हैं। भिक्षा से सम्बद्ध अनेक पहलुओं का विस्तृत तथा साथ-ही-साथ रोचक वर्णन है। वहां उद्गम और उत्पादन-दोष के सोलह-सोलह तथा एषणा-दोष के दश भेदों का वर्णन है । भिक्षागत दोषों के सन्दर्भ में स्थान-स्थान पर उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है कि अमुक मुनि उस प्रकार के दोष का सेवन करने के कारण प्रायश्चित्त के भागी हुए। गृहस्थ के यहां से भिक्षा किस-किस स्थिति में ली जाए, इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण चर्चाएं हैं। बताया गया है कि यदि गह-स्वामिनी भोजन कर रही हो, दहो बिलो रही हो, आटा पीस रही हो, चावल कूट रही हो, रुई धुन रही हो, तो साधु को उससे भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार अत्यन्त नासमझ बालक से, अशक्त वृद्ध से, उन्मत्त से, जिसका शरीर कांप रहा हो, जो ज्वराक्रान्त हो, नेत्रहीन हो, कष्ट-पीड़ित हो, ऐसे व्यक्तियों से भी भिक्षा लेना अविहित है। भविष्य-कथन, चिकित्सा-कौशल, मन्त्र, तन्त्र, वशीकरण आदि से प्रभावित कर भिक्षा लेना भी वर्जित कहा गया है । कुछ महत्वपूर्ण उल्लेख प्रसंगोपात्त सर्प-दंश आदि को उपशान्त करने के लिए दीमक के घर की मिट्टी, वमन शान्त करने के लिए मक्खी की बीठ, टूटी हुई हड्डी जोड़ने के लिए किसी की हड्डी, कुष्ट रोग को मिटाने के लिए गोमूत्र का प्रयोग आदि साधुओं के लिए निर्दिष्ट किये गये हैं। __ साधु जिह्वा-स्वाद से अस्पृष्ट रहता हुआ किस प्रकार अनासक्त तथा प्रमूछित भाव से भिक्षा ग्रहण करे, गृहस्य पर किसी भी प्रकार का भार उत्पन्न न हो, वह उनके लिए असुविधा, कष्ट या प्रतिकूलता का निमित्त न बने, उसके कारण गृहस्थ के घर में किसी प्रकार की अव्यवस्था न हो जाए; इत्यादि का जैसा मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक विवेचन इस ग्रन्थ में हुअा है, वह जैन श्रमण-चर्या के अनुशीलन एवं अनुसंधान के सन्दर्भ में विशेषतः पठनीय है। पिण्ड-नियुक्ति पर प्राचार्य मलयगिरि ने वृहद्-वृत्ति की रचना की। श्री वीराचार्य ने इस पर लघु-वृत्ति लिखी है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीसं मागम १४७ मोहमिज्जुत्ति (मोघ-नियुक्ति) नाम : व्याख्या ओघ का अर्थ प्रवाह, सातत्य, परम्परा या परम्परा-प्राप्त उपदेश है। इस ग्रन्थ में साधु-जीवन से सम्बद्ध सामान्य समाचारी का विश्लेषण है । सम्भवतः इसीलिए इसका यह नामकरण हुअा। जिस प्रकार पिण्ड-नियुक्ति में साधुओं के आहार-विषयक पहलुओं का विवेचन है, उसी प्रकार इसमें साधु-जीवन से सम्बद्ध सभी माचार-व्यवहार के विषयों का संक्षेप में संस्पर्श किया गया है। पिण्ड-नियुक्ति दशवकालिक नियुक्ति का जिस प्रकार अंश माना जाता है, उसी प्रकार इसे आवश्यक नियुक्ति का एक अंश स्वीकार किया जाता है, जिसके रचयिता प्राचार्य भद्रबाहु हैं । इसमें कुल ८११ गाथाएँ हैं । नियुक्ति तथा भाष्य की गाथाएँ विमिश्रित हैं, उन्हें पृथक्-पृथक् कर पाना सहज नहीं है। अोघ-नियुक्ति प्रतिलेखन-द्वार, आलोचना-द्वार तथा विशुद्धिद्वार में विभक्त है। प्रकरणों के नामों से स्पष्ट है कि साधु-जीवन के प्रायः सभी चर्या--अगों के विश्लेषण का इसमें समावेश है। एक महत्वपूर्ण प्रसंग _एक चिर चचित प्रसंग है, जिस पर इसमें भी विचार किया गया है । वह प्रसंग है : प्रात्म-रक्षा--जीवन-रक्षा का अधिक महत्व है या संयम-रक्षा का? दोनों में से किसी एक के नाश का प्रश्न उपस्थित हो जाए, तो प्राथमिकता किसे देनी चाहिए ? इस विषय में प्राचार्यों में मतभेद रहा है। कुछ ने संयम-रक्षा हेतु मर मिटने को आवश्यक बतलाया है और कुछ ने जीवन-रक्षा कर फिर प्रायश्चित्त लेने का सुझाव दिया है। अोघ-नियुक्ति में बतलाया गया है कि श्रमण को संयम का प्रतिपालन सदा पवित्र भाव से करना ही चाहिए, पर यदि जीवन मिटने का प्रसंग बन जाए, तो वहां प्राथमिकता जीवन-रक्षा को देनी होगी। यदि जीवन बच गया, तो साधक एक बार संयम-च्युत होने Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन पर भी प्रायश्चित्त, तप आदि द्वारा प्रात्म-शुद्धि या अन्तः-सम्मार्जन कर पुनः यथावस्थ हो सकेगा । परिणामों को सात्विकता या भावविशुद्धि हो तो संयम का आधार है । विशेष बलपूर्वक आगे कहा गया है कि साधक का देह संयम पालन के लिए है, भोग के लिए नहीं है । यदि देह ही नहीं रहा, तो संयम-पालन का प्राचार-स्थल ही कहां बचा ? देह-रक्षा या शरीर को नष्ट न होने देने का कार्य देह के प्रति आसक्ति नहीं है, प्रत्युत संयम के प्रतिपालन की भावना है; अतः देह-प्रतिपालन इष्ट है। निशोथ-चूर्णी में भी यह प्रसंग व्याख्यात हुआ है। वहां भी वर्णित है कि जहां तक हो सके, संयम की विराधना नहीं करनी चाहिए, पर यदि कोई भी उपाय न हो, तो जीवन-रक्षा के लिए वैसा किया जा सकता है। उपधि-निरूपण __ संयमी जीवन के निर्वाह हेतु जो न्यूनतम साधन-उपकरण अपेक्षित होते हैं, उन्हें उपधि कहा जाता है। प्रस्तुत प्रकरण में 'इस विषय का विवेचन है । वस्त्र, पात्र आदि उपकरण श्रमण द्वारा धारण किये जाने चाहिए या नहीं किये जाने चाहिए; जैन परम्परा के अन्तर्गत श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरों में यह एक विवादास्पद प्रसंग है, जिसके सन्दर्भ में दोनों ओर से द्विविध विचार-धाराएं एवं समाधान उपस्थित किये जाते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के इस प्रकरण का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक परिशीलन इस विषय में अनुसन्धित्सा रखने वालों के लिए वस्तुतः बड़ा उपयोगी है। इस प्रकरण में जिनकल्पी श्रमण, स्थविरकल्पी श्रमण तथा प्रायिका या साध्वी के लिए प्रयोज्य उपकरणों का विवरण है । जिनकल्पी व स्थविरकल्पी के उपकरण जिनकल्पी के लिए जो उपकरण विहित हैं, उनका ग्रन्थ में इस प्रकार उल्लेख है : १. पात्र, २. पात्र-बन्ध, ३. पात्र-स्थापन, ४. पात्र-केसरिका ( पात्र-मुख वस्त्रिका), ५. पटल, ६. रजस्त्राण, Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस श्रागम १४६ ७. गोच्छक, ८-१०. प्रच्छादक त्रय, ११. रजोहरण तथा १२. मुखवस्त्रिका | प्राप्त सूचनाओं से विदित होता है कि पटल नामक वस्त्र का उपयोग भोजन - पात्र को आवृत्त करने के लिए तथा अपेक्षित होने पर गुह्यांग को ढकने के लिए भी होता था । स्थविर- कल्पी श्रमणों के लिए बारह उपकरण तो थे ही, उनके अतिरिक्त चोलपट्ट और मात्रक नामक दो उपकरण और थे । इस प्रकार उनके लिए चौदह उपकरणों का विधान था । साध्वी या श्रार्थिका के उपकररण जिन - कल्पी के लिए निर्देशित बारह उपकरण, स्थविर कल्पी के लिए निर्देशित दो अधिक उपकरणों में से एकमात्रक; इन तेरह उपकरणों के अतिरिक्त निम्नांकित बारह अन्य उपकरण साध्वी या आर्यिका के लिए निर्दिष्ट किये गये प्राप्त होते हैं । उनके लिए कुल पच्चीस उपकरण हो जाते हैं । वे इस प्रकार हैं : १४. कमढग, १५. उग्गहणंतंग (गुह्य अंग की रक्षा के लिए नाव की आकृति की तरह), १६. पट्टक ( उग्गहणंतग को दोनों ओर से ढकने वाला जांघिये की प्राकृति की तरह), १७. श्रद्धोरुग ( उग्गहत और पट्टक के ऊपर पहने जाने वाला ), १८. चलनिका ( बिना सिला हुआ घुटनों तक पहने जाने वाला । बांस पर खेल करने वाले भी पहनते थे ), १६. प्रभितर नियंसणी ( यह प्राधी जांघों तक लटका रहता है । वस्त्र बदलते समय लोग साध्वियों का उपहास नहीं करते । ), २०. बहिनियंसणी ( यह घुटनों तक लटका रहता है और इसे डोरी से कटि में बांधा जाता है ।), २१. कंचुक ( वक्षस्थल को ढकने वाला वस्त्र), २२. उक्कच्छिय ( यह कंचुक के समान होता है । ), २३. वेकच्छिय ( इससे कंचुक और उक्कच्छिय दोनों ढंक जाते हैं ।), २४. संघाटी (ये चार होती थीं - एक प्रतिश्रय में, दूसरी व तीसरी भिक्षान्नादि के लिए बाहर जाते समय और चौथी समवसरण में पहनी जाती थीं), २५. खन्धकरणी (चार हाथ लम्बा वस्त्र जो वायु आदि की रक्षा करने के लिए पहना जाता था । रूपवती साध्वियों को कुब्जा जैसी दिखाने के लिए भी इसका उपयोग करते थे ।) १ इन १. नियुक्ति ६७४ - ७७; भाष्य ३१३ - ३२० Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनागम दिग्दर्शन वस्त्रोपकरणों का स्वरूप, उपयोग, अपेक्षा, विकास प्रभृति विषय श्रमरण-जीवन के अपरिग्रही रूप तथा सामाजिकता के परिप्रेक्ष्य में विशेष रूप से अध्येतव्य हैं। व्याख्या : साहित्य अोध-नियुक्ति पर रचे गये व्याख्या-साहित्य में श्री द्रोणाचार्य रचित टीका विशेष महत्वपूर्ण है । इसकी रचना चूणि की तरह प्राकृत की प्रधानता लिए हुए है अर्थात् वह प्राकृत-संस्कृत के मिश्रित रूप में प्रणीत है । प्राचार्य मलयगिरि द्वारा वृत्ति की रचना की गई। अवचूरि की भी रचना हुई। ___ पक्खिय सुत्त (पाक्षिक सूत्र) आवश्यक सूत्र के परिचय तथा विश्लेषण के अन्तर्गत प्रतिक्रमण की चर्चा हुई है । आत्मा की स्वस्थता-अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थिति, अन्तः-परिष्कृति तथा प्रात्म-जागरण का वह (प्रतिक्रमण) परम साधक है । जैन परम्परा में प्रतिक्रमण के पांच प्रकार माने गये हैं-१. देवसिक, २. रात्रिक, ३. पाक्षिक, ४. चातुर्मासिक तथा ५. सांवत्सरिक । पाक्षिक सूत्र की रचना का प्राधार पाक्षिक प्रतिक्रमण है। इसे आवश्यक सूत्र का एक अङ्ग ही माना जाना चाहिये अथवा उसके एक अङ्ग का विशेष पूरक । प्रस्तुत कृति में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह; इन पांच महाव्रतों के साथ छठे रात्रि-भोजन को मिलाकर छः महाव्रतों तथा उनके अतिचारों का. विवेचन है। क्षमाश्रमणों की वन्दना भी इसमें समाविष्ट है। प्रसंगतः इसमें बारह अङ्गों, सैंतीस कालिक सूत्रों तथा अट्ठाईस उत्कालिक सूत्रों के नामों का सूचन है। प्राचार्य यशोदेवसूरि ने इस पर वृत्ति की रचना की, जो 'सुखावबोधा' के नाम से प्रसिद्ध है। खामरणा-सुत्त (क्षामरणा-सूत्र) पाक्षिक क्षामणा सूत्र के नाम से भी यह रचना प्रसिद्ध है। इसमें कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है। इसे पाक्षिक सूत्र के साथ गिनने की परम्परा भी है और पृथक भी । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस भागम वंदित सुत्त इस सूत्र का प्रारम्भ 'वंदित्तु सव्वसिद्ध' इस गाथा से होता है और यही इसके नामकरण का आधार है। ऐसी मान्यता है कि इसकी रचना गणधरों द्वारा की गई । अनेक आचार्यों ने टीकाओं की रचना की, जिसमें श्री देवसूरि, श्री पार्श्वसूरि, श्री जिनेश्वरसूरि, श्रीचन्द्रसूरि तथा श्री रत्नशेखरसूरि आदि मुख्य हैं । चूर्णि की भी रचना हुई, जो इस पर रचे गये व्याख्या साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन है । इसके रचयिता श्री विजयसिंह थे । रचना - काल ११५३ विक्रमाब्द है । ' वंदित्तु सुत्त' की अपर संज्ञा 'श्राद्ध प्रतिक्रमण - सूत्र' भी है । इसे आवश्यक से सम्बद्ध ही माना जाना चाहिए । १५१ इसि भासिय ( ऋषिभाषित) ऋषि से यहां प्रत्येक बुद्ध का प्राशय है । यह सूत्र प्रत्येक बुद्धों द्वारा भाषित या निरूपित माना जाता है । तद्नुसार इसकी संज्ञा 'ऋषिभाषित' हो गई । इसके पैंतालीस अध्ययन हैं, जिनमें प्रत्येक बुद्धों के चरित वर्णित हैं । इसके कतिपय अध्ययन पद्य में हैं तथा कतिपय गद्य में । कहा जाता है कि इस पर नियुक्ति की भी रचना की गई, पर, वह अप्राप्य है । ५. नन्दी सूत्र नन्दी-सूत्र : रचयिता नन्दी - सूत्र के रचयिता श्री दृष्यगणी के शिष्य श्री देववाचक माने जाते हैं । कुछ विद्वानों के मतानुसार श्री देववाचक, श्री देवद्धिगणी क्षमाश्रमण का ही नामान्तर है । देववाचक और देवद्धिगणी क्षमाश्रमण दो व्यक्ति नहीं हैं, एक ही हैं, पर, एतत्सम्बद्ध सामग्री से यह स्पष्टतया सिद्ध नहीं होता । दोनों दो भिन्न-भिन्न गच्छों से सम्बद्ध थे, कुछ इस प्रकार के पुष्ट साक्ष्य भी हैं । स्वरूपः विषय-वस्तु ग्रन्थ के प्रारम्भ में पचास गाथाएँ हैं । प्रथम तीन गाथाओं में ग्रन्थकार द्वारा अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर को प्रणमन करते हुए Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैनागम दिग्दर्शन मंगलाचरण किया गया है । उसके पश्चात् चौथी गाथा से उन्नीसवीं गाथा तक एक सुन्दर रूपक द्वारा धर्म-संघ की प्रशस्ति एवं स्तवना की है। बीसवीं और इक्कीसवीं गाथा में प्राद्य तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभ से अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर तक; चौवीस तीर्थङ्करों को सामष्टिक रूप में वन्दन किया गया है। बाईसवीं, तेईसवीं और चौवीसवीं गाथा में भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों तथा धर्म-संघ का वर्णन है। पच्चीसवीं गाथा से सैंतालीसवीं गाथा तक आर्य सुधर्मा से लेकर श्री दूष्यगणी तक स्थनिरावली का प्रशस्तिपूर्वक वर्णन है । अड़तालीसवीं से पचासवीं गाथा तक तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव, क्षांति, मार्दव, शील आदि उत्तमोत्तम गुणों से युक्त, प्रशस्त व्यक्तित्व के धनी युगप्रधान श्रमणों तथा श्रत-वैशिष्ट्य विभूषित श्रमणों की स्तवना की है। इससे प्रकट है कि यह स्थविरावली युगप्रधान परिपाटी पर आधृत है। तदनन्तर सूत्रात्मक वर्णन प्रारम्भ होता है । स्थान-स्थान पर गाथाओं का प्रयोग भी हुआ है। ___ज्ञान के विश्लेषण के अन्तर्गत मति, श्रुत, अवधि, मनः-पर्यव तथा केवल ज्ञान की व्याख्या की गई है। उनके भेद-प्रभेद, उद्भव, विकास प्रादि का तलस्पर्शी तात्विक विवेचन किया गया है। सम्यक श्रुत के प्रसंग में द्वादशांग या गणि-पिटक के प्राचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग प्रभृति बारह भेद निरूपित किये गये हैं। प्रासंगिक रूप में वहां मिथ्या-श्रु त की भी चर्चा की गई है । गणिक, आगमिक, अंग-प्रविष्ट, अंग-बाह्य आदि के रूप में श्रु त का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। आगमिक वाङमय के विकास तथा विस्तार के परिशीलन की दृष्टि से नन्दी सूत्र का यह अंश विशेषतः पठनीय है। दर्शन-पक्ष दर्शन का आधार प्रमाण होता है और प्रमाण का आधार ज्ञान । नन्दी आगम ज्ञान-चर्चा का ही आधार भूत शास्त्र है । जैन ज्ञानवाद पर उसमें सर्वाङ्गीण मीमांसा है। उस ज्ञान मीमांसा की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि सामान्यतया सभी जैनेतर दर्शनों में Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस मागम इन्द्रिय-ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान की कोटि में लिया है, जबकि जैन दर्शन ने केवल अतीदिन्य ज्ञान को ही प्रत्यक्ष ज्ञान के भेदों में लिया है। नन्दीकार ने इन्द्रिय-ज्ञान को भी प्रत्यक्ष ज्ञान के भेदों में ले लिया है। 'आँख देखा भी अप्रत्यक्ष' आदि आरोपों से जैन दर्शन को बचाने की दृष्टि से प्रस्तुत समाधान अपनाया गया है। आगे चल कर तो जैन दर्शन प्रत्यक्ष के दो भेदों में सर्वमान्य हो ही गया-इन्द्रिय ज्ञान सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और अवधि आदि अतीन्द्रिय ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष । नन्दी सूत्र की समग्न ज्ञान-चर्चा को "जैन साहित्य का वृहद् इतिहास १" में निम्नोक्त प्रकार से समाहित एवं रूपान्तरित किया गया हैज्ञानवाद ज्ञान पाँच प्रकार है : १. प्राभिनिबोधिक ज्ञान, २. श्रु त ज्ञान, ३. अवधि ज्ञान, ४. मनः पर्याय ज्ञान और ५. केवल ज्ञान । संक्षेप में यह ज्ञान दो प्रकार का है : प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद हैं : इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का है : १. श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष, २. चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष, ३. घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष, ४. जिह्वन्द्रिय प्रत्यक्ष ५. स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यक्ष। नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है : १. अवधि ज्ञान प्रत्यक्ष, २. मनः पर्यय ज्ञान प्रत्यक्ष, ३. केवल ज्ञान प्रत्यक्ष । प्रवधि-ज्ञान अवधिज्ञान प्रत्यक्ष भव-प्रत्ययिक और क्षायोपशमिक होता है। भव-प्रत्ययिक अवधिज्ञान अर्थात् जन्म से प्राप्त होने वाला ज्ञान । यह देवों तथा नारकों के होता है । क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मनुष्यों तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के होता है । अवधिज्ञान के प्रावरक कर्मों में से उदीर्ण के क्षय तथा अनुदीर्ण के उपशमन होने पर उत्पन्न होने से यह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है । गुण-प्रतिपन्न अनगार १. भाग० २. पृ० २. खामोवसमियं तयावरणिज्जारणं कम्मारणं उदिपारणं खएर अणुदिण्णायं उवसमेणं प्रोहिनाणं समुप्पज्जई। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनागम दिग्दर्शन श्रमण को जो अवधिज्ञान होता है, वह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान होता है। संक्षेप में यह छः प्रकार का है : १. आनुगामिक, २. अनानुगामिक, ३. वर्धमानक, ४. होयमानक, ५. प्रतिपातिक, ६. अप्रतिपातिक । अनुगामिक अवधिज्ञान दो प्रकार का है : १. अन्तगत और २. मध्यगत । अन्तगन्त अनुगामिक अवधिज्ञान तीन प्रकार का है : १. पुरतः अन्तगत, २. मार्गतः अन्तगत और ३ पार्श्वतः अन्तगत । कोई व्यक्ति उल्का-दीपिका, चटुली-पर्यन्त ज्वलित तृणपूलिका, अलात-तृणाग्रवर्ती अग्नि, मणि, प्रदीप अथवा अन्य किसी प्रकार की ज्योति को अग्रवर्ती रखकर अपने पथ पर बढ़ता चला जाता है, वह पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। उल्का, दीपिका आदि को पृष्ठवर्ती रखकर साथ लिये जिस प्रकार कोई व्यक्ति चलता जाता है, उसी प्रकार पृष्ठवर्ती भाग को पालोकित करने वाला ज्ञान मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। दीपिका आदि प्रकाश साधनों को जिस प्रकार कोई व्यक्ति पार्श्व में स्थापित कर चलता है, उसी प्रकार पाव स्थित पदार्थों को प्रकाशित करता हुमा साथ-साथ चलने वाला ज्ञान पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है। जिस प्रकार कोई पुरुष उल्का आदि प्रकाशकारी पदार्थों को मस्तक पर रखकर चलता जाता है, उसी प्रकार जो अवधिज्ञान चारों ओर के पदार्थों का ज्ञान कराते हुए ज्ञाता के साथ-साथ चलता है, वह मध्यगत प्रानुगामिक अवधिज्ञान है । अन्तगत और मध्यगत अवधि में क्या विशेषता है. ? पुरतः अन्तगत अवधिज्ञान से संख्येय तथा असंख्येय योजन आगे के पदार्थ ही जाने व देखे जाते हैं (जाणइ पासइ), मार्गतः अन्तगत अवधिज्ञान से संख्येय तथा असंख्यय योजन पीछे के पदार्थ ही जाने व देखे जाते हैं । पार्श्वतः अन्तगत अवधिज्ञान से दोनों पाश्वों में रहे हुए संख्येय तथा असंख्येय योजन तक के पदार्थ ही जाने व देखे जाते हैं, किन्तु मध्यगत अवधिज्ञान से सभी ओर के संख्येय तथा असंख्येय योजन के बीच में रहे हए पदार्थ जाने व देखे जाते हैं । यही अन्तगत अवधि और मध्यगत अवधि में विशेषता है। अनानुगामिक अवधिज्ञान का स्वरूप बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जैसे कोई पुरुष एक बड़े अग्नि स्थल में अग्नि जलाकर उसी के Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम १५५ आसपास घूमता हुआ उसके पार्श्व के पदार्थों को देखता है, दूसरे स्थान में रहे हुए पदार्थों को अन्धकार के कारण नहीं देख सकता, उसी प्रकार अनानुगामिक अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र के संख्येय तथा असंख्येय योजन तक के सम्बद्ध या असम्बद्ध पदार्थों को जानता व देखता है। उससे बाहर के पदार्थों को नहीं जानता। जो प्रशस्त अध्यवसाय में स्थित है तथा जिसका चारित्र परिणामों की विशुद्धि से वर्धमान है, उसके ज्ञान की सीमा चारों ओर से बढ़ती है । इसी को वर्धमान अवधिज्ञान कहते हैं। अप्रशस्त अध्यवसाय में स्थित साधु जब संक्लिष्ट परिणामों से संक्लिश्यमान चारित्र वाला होता है, तब चारों ओर से उसके ज्ञान की हानि होती है। यही हीयमान अवधि का स्वरूप है। जो जघन्यतया अंगुल के असंख्यातवें भाग अथवा संख्यातवें भाग यावत् योजनलक्ष पृथकत्व एवं उत्कृष्टतया सम्पूर्ण लोक को जानकर फिर गिर जाता है, वह प्रतिपातिक अवधिज्ञान है। अलोक के एक भी आकाश प्रदेश को जानने व देखने के बाद आत्मा का अवधिज्ञान अप्रतिपातिक होता है । विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान चार प्रकार का है : १. द्रव्यविषयक, २. क्षेत्रविषयक ३. काल विषयक और ४. भाव विषयक । द्रव्य दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य अर्थात् कम से कम अनन्त रूपी द्रव्यों को जानता व देखता है और उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक सभी रूपी द्रव्यों को जानता व देखता है । क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग को जानता व देखता है और उत्कृष्ट लोकप्रमाण असंख्य खण्डों को ( अलोक में ) जानता व देखता है। काल की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य प्रावलिका के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है और उत्कृष्ट असंख्य उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप अतीत तथा अनागत काल को जानता - देखता है। भावष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य अनन्त भावों (पर्यायों) को जानता व देखता है एवं उत्कृष्टतया भी अनन्त भावों को जानता देखता है, समस्त भावों के अनन्तवें भाग को जानता व देखता है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ मन:पर्ययज्ञान मनः पर्यय ज्ञान मनुष्यों को होता है या श्रमनुष्यों को ? मनुष्यों होता है तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों को होता है या गर्भज मनुष्यों को ? यह ज्ञान सम्मूच्छिम मनुष्यों को नहीं, अपितु गर्भज मनुष्यों को ही होता है, कर्मभूमि अथवा अन्तरद्वीप के गर्भज मनुष्यों को नहीं । कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों में से भी संख्येय वर्ष की आयु वालों को ही होता है, असंख्येय वर्ष की आयु वालों को नहीं । संख्येय वर्ष की आयु वालों में से भी पर्याप्तक (इन्द्रिय, मन यादि द्वारा पूर्ण विकसित) को ही होता है, पर्याप्तक को नहीं। पर्याप्तकों में से भी सम्यग्दृष्टि को ही होता है, मिथ्यादृष्टि को अथवा मिश्रदृष्टि ( सम्यक् - मिथ्यादृष्टि) को नहीं । सम्यद्दृष्टि वालों में से भी संयत ( साधु ) सम्यक दृष्टि को ही होता है, असंयत अथवा संयतासंयत सम्यकदृष्टि को नहीं । संयतोंसाधुत्रों में से भी अप्रमत्त संयत को ही होता है, प्रमत्त संयत को नहीं । श्रप्रमत्त साधुयों में से भी ऋद्धि प्राप्त को ही होता है, ऋद्धिशून्य को नहीं । मनः पर्यय ज्ञान के अधिकारी का नव्य न्याय की शैली में प्रतिपादन करने के बाद सूत्रकार मनःपर्यय ज्ञान का स्वरूप वर्णन प्रारंभ करते हैं । मनः पर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है : ऋजुमति और विपुलमति । दोनों प्रकार के मनः पर्यय ज्ञान का संक्षेप में चार दृष्टियों से विचार किया जाता है : १. द्रव्य, ३. क्षेत्र, ३. काल और भाव । द्रव्य की अपेक्षा से ऋजुमति अनन्तप्रदेशी अनन्त स्कन्धों ( संघात ) को जानता व देखता है और उसी को विपुलमति कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध तथा स्पष्ट जानता देखता है ।" क्षेत्र की अपेक्षा से ऋजुमति कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग और अधिक से अधिक नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरी भाग के नीचे के छोटे प्रतरों तक, ऊपर ज्योतिष्क विमान के ऊपरी तलपर्यन्त तथा तिर्यक्-तिरछा मनुष्य क्षेत्र के ढाई द्वीप समुद्र पर्यन्त अर्थात् पन्द्रह कर्मभूमि, तोस कर्मभूमि और छप्पन अन्तरद्वीपों में रहे हुए संज्ञी ( समनष्क) पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है जैनागम दिग्दर्शन १. ते चैव विउलमई प्रमहियतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस प्रागम १५७ और विपुलमति उसी को ढ़ाई अंगुल अधिक, विपुलतर, विशुद्धतर तथा स्पष्टतर जानता - देखता है। काल की अपेक्षा से ऋजुमति पल्योपम के असंख्यातवें भाग के भूत व भविष्य को जानता - देखता है और विपूलमति उसी को कुछ अधिक विस्तार एवं विशुद्धिपूर्वक जानता - देखता है। भाव की अपेक्षा से ऋजुमति अनन्त भावों (भावो के अनन्तवें भाग) को जानता - देखता है और विपुलमति उसी को कुछ अधिक विस्तार एवं विशुद्धिपूर्वक जानता व देखता है । संक्षेप में मनः पर्यय ज्ञान मनुष्यों के चिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला है, मनुष्य-क्षेत्र तक सीमित है तथा चारित्र-युक्त पुरुष के क्षयोपशम गुण से उत्पन्न होने वाला है : मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतिपत्थपागडणं । माणुसखित्तनिबद्ध, गुणपच्चइअं चरित्तवयो। -सूत्र १८, गा० ६५ केवल-ज्ञान केवलज्ञान दो प्रकार का है : भवस्थकेवलज्ञान और सिद्धकेवलज्ञान । भवस्थ केवलज्ञान अर्थात् संसार में रहे हुए अर्हन्तों का केवलज्ञान । वह दो प्रकार का है : सयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अयोगिभवस्थ केवलज्ञान । सयोगिभवस्थ केवलज्ञान पूनः दो प्रकार का है: प्रथम समय सयोगिभवस्थ और अप्रथम समय सयोगिभवस्थ केवलज्ञान । इसी प्रकार अयोगिभवस्थ केवलज्ञान भी दो प्रकार का है। 'सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद हैं : अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान और परम्परसिद्ध केवलज्ञान । अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान पन्द्रह प्रकार का है :१. तीर्थसिद्ध, २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थङ्करसिद्ध, ४. अतीर्थङ्कर'सिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७. बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ६. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. गृहलिंगसिद्ध, १४. एकसिद्ध, १५. अनेकसिद्ध । परम्पर-सिद्ध-केवलज्ञान अनेक प्रकार का है, जैसे ‘अप्रथम समयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध, यावत् दशसमयसिद्ध, संख्येय-समयसिद्ध, असंख्येय-समयसिद्ध, अनन्त-समयसिद्ध प्रादि। सामान्यतः केवलज्ञान का चार दृष्टियों Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागम दिग्दर्शन में विचार किया गया है: १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल और ४. भाव । द्रव्य की अपेक्षा से केवलज्ञानी सम्पूर्ण द्रव्यों को जानता व देखता है । क्षेत्र की अपेक्षा से केवलज्ञानी लोकालोकरूप समस्त क्षेत्र को जानता व देखता है। काल की अपेक्षा से केवलज्ञानी सम्पूर्ण कालतीनों कालों को जानता व देखता है । भाव की अपेक्षा से केवलज्ञानी द्रव्यों के समस्त पर्यायों को जानता व देखता है । संक्षेप में केवलज्ञान समस्त पदार्थों के परिणामों एवं भावों को जानने वाला है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है, एक ही प्रकार का है : अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई, एकविहं केवलं नाणं ॥ -सू० २२, गा०६६ आमिनिबोधिक-ज्ञान : नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के अन्तिम प्रकार केवलज्ञान का वर्णन करने के बाद सूत्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान की चर्चा समाप्त कर परोक्ष ज्ञान की चर्चा प्रारम्भ कर देते हैं । परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का है : आभिनिबोधिक और श्रत । जहां प्राभिनिबोधिक ज्ञान है, वहां श्रुतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है, वहां आभिबोधिक ज्ञान है । ये दोनों परस्पर अनुगत हैं । इन दोनों में विशेषता यह है कि अभिमुख आये हुए पदार्थों का जो नियत बोध कराता है, वह प्राभिनिबोधिक ज्ञान है । इसी को मतिज्ञान भी कहते हैं। श्रुत का अर्थ है सुनना । श्रुतज्ञान अर्थात् शब्दजन्य ज्ञान मतिपूर्वक होता है, किन्तु मतिज्ञान श्रु तपूर्वक नहीं होता। ___अविशेषित मति मति-ज्ञान और मति-अज्ञान उभय रूप है। विशेषित मति अर्थात् सम्यग्दृष्टि की मति मति-ज्ञान है तथा मिथ्यादृष्टि की मति मति-अज्ञान है। इसी प्रकार अविशेषित श्रु त श्रत-ज्ञान और श्रत-अज्ञान उभयरूप है जब कि विशेषित अर्थात् सम्यग्दृष्टि का श्रुत श्रुत-ज्ञान है एवं मिथ्या-दृष्टि का श्रुत श्रुतअज्ञान है। आभिनिबोधिक ज्ञान-मतिज्ञान दो प्रकार का है : श्र तनिश्रित और अश्रु तनिश्रित । अश्रु तनिश्रित मति-बुद्धि चार प्रकार की होती Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस आगम १५६ है : १. औत्पात्तिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा, ४, पारिणामिकी : उप्पत्तिया वेणइया, कम्मया परिणामिया । बुद्धी चउन्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भई ॥ -सू० २६, गा• ६८ प्रौत्पात्तिकी बुद्धि : पहले बिना देखे, बिना सुने और बिना जाने पदार्थों को तत्काल विशुद्ध रूप से ग्रहण करने वाली अबाधित फलयुक्त बुद्धि को औत्पात्तिकी बुद्धि कहते हैं। यह बुद्धि किसी प्रकार के पूर्व अभ्यास एवं अनुभव के बिना ही उत्पन्न होती है। वैनयिकी बुद्धि : कठिन कार्य-भार के निर्वाह में समर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग का वर्णन करने वाले सूत्र और अर्थ का सार ग्रहण करने वाली तथा इहलोक और परलोक दोनों में फल देने वाली बुद्धि विनयसमुत्थ अर्थात् विनय से उत्पन्न होने वाली वैनयिकी बुद्धि है : भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला । उभयोलोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धि ।। कर्मजा बुद्धि : एकाग्र चित्त से ( उपयोगपूर्वक ) कार्य के परिणाम को देखने वाली, अनेक कार्यों के अभ्यास एवं चिन्तन से विशाल तथा विद्वज्जनों से प्रशंसित बुद्धि का नाम कर्मजा बुद्धि है : उवयोगदिसारा, कम्मपसंगपरिघोलणविसाला। साहुक्कार फलवई, कम्मसमुत्था हवइ बुद्धि ।। -गा० ७६ पारिणामिकी बुद्धि । __ अनुमान, हेतु और दृष्टान्त से विषय को सिद्ध करने वाली, आयु के परिपाक से पुष्ट तथा ऐहलौकिक उन्नति एवं मोक्षरूप 'निःश्रेयस् प्रदान करने वाली बुद्धि का नाम पारिणामिकी बुद्धि है : Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६० प्रमाणहे उदिट्ठतसाहिया वयविवागपरिणामा । हिय निस्सेयसफलवई, बुद्धी परिणामिया नाम ॥ जैनागम दिग्दर्शन श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के भी चार भेद हैं : १. अवग्रह२. ईहा, ३. अवाय, ४. धारणा । प्रवग्रह दो प्रकार का है : अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह | व्यंजनावग्रह चार प्रकार का है : १. श्रोत्र न्द्रियव्यंजनावग्रह, २. घ्राणेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, ३. जिह्व ेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह, ४. स्पर्शेन्द्रिय-व्यंजनावग्रह | अर्थावग्रह छः प्रकार का है : १. श्रोत्रेन्द्रिय-अर्थावग्रह, श्रोत्रेन्द्रिय- श्रर्थावग्रह २. चक्षुरिन्द्रिय-प्रर्थावग्रह, ३. घ्राणेन्द्रियअर्थावग्रह, ४. जिह्व ेन्द्रिय-प्रर्थावग्रह, ५ स्पर्शेन्द्रिय अर्थावग्रह, ६. नोइन्द्रिय ( मन ) - अर्थावग्रह । अवग्रह के ये पांच नाम एकार्थक हैं:अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा । - गा० ७८ हा भी अर्थावग्रह की ही भांति छः प्रकार की होती है । ईहा के एकार्थक शब्द हैं :- आभोगनता, मार्गणता, गवेषणता, चिन्ता और विमर्श | अवाय भी श्रोत्रेन्द्रिय आदि से छः प्रकार का है । इसके एकार्थक नाम हैं :- प्रवर्त्तनता, प्रत्यावर्त्तनता, अपाय, बुद्धि और विज्ञान | धारणा भी पूर्वोक्त रीति से छः प्रकार की है । इसके एकार्थक पदये हैं: - धरण, धारणा, स्थापना, प्रतिष्ठा और कोष्ठ । मतिज्ञान की प्रवग्रह आदि अवस्थाओं का कालमान बताते हुए प्राचार्य कहते हैं कि अवग्रह एक समय तक रहता है, ईहा की अवस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, अवाय भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, धारणा संख्येय अथवा असंख्येय काल तक रहती है । : अवग्रह के एक भेद व्यंजनावग्रह का स्वरूप समझाने के लिए जैसे कोई पुरुष किसी सोये हुए अमुक ! ऐसा कहकर जगाता है । उसे कानों में प्रविष्ट एक समय के शब्द - पुद्गल सुनाई नहीं देते, सूत्रकार ने दृष्टान्त भी दिया है व्यक्ति को प्रो अमुक ! Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतालीस पागम तो दो समय के शब्द-पुद्गल सुनाई नहीं देते, यावत् दस समय तक के शब्द-पुद्गल सुनाई नहीं देते । इसी प्रकार संख्येय समय के प्रविष्ट पुद्गलों को भी वह ग्रहण नहीं करता । असंख्येय समय के प्रविष्ट पुदगल ही उसके ग्रहण करने में आते हैं। यही व्यंजनावग्रह है। इसे मल्लक-शराव-सिकोरा के दृष्टान्त से भी स्पष्ट किया गया है। अर्थावग्रह आदि का स्वरूप इस प्रकार है : जैसे कोई पुरुष जागत अवस्था में अव्यक्त शब्द को सुनता है और उसे 'कुछ शब्द है' ऐसा समझ कर ग्रहण करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि वह शब्द किसका है ? तदनन्तर वह ईहा में प्रवेश करता है और तब जानता है कि यह शब्द अमुक का होना चाहिए। इसके बाद वह अवाय में प्रवेश करता है और निश्चय करता है कि यह शब्द अमुक का ही है। तदनन्तर वह धारणा में प्रवेश करता है एवं उस शब्द के ज्ञान को संख्येय अथवा असंख्येय काल तक हृदय में धारण किये रहता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी समझना चाहिए । नोइन्द्रिय अर्थात् मन से अर्थावग्रह आदि इस प्रकार होते हैं : जैसे कोई पुरुष अव्यक्त स्वप्न देखता है और प्रारम्भ में 'कुछ स्वप्न है' ऐसा समझता है । यह मनोजन्य अर्थावग्रह है। तदनन्तर क्रमशः मनोजन्य ईहा, अवाय और धारणा की उत्पत्ति होती है। संक्षेप में मतिज्ञान-आभिनिबोधिक-ज्ञान का चार दृष्टियों से विचार हो सकता है : द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्य की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया सब पदार्थों को जानता है, किन्तु, देखता नहीं। क्षेत्र की दृष्टि से मतिज्ञानी सामान्य प्रकार से सम्पूर्ण क्षेत्र को जानता है, किन्तु, देखता नहीं। काल की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया सम्पूर्ण काल को जानता है, किन्तु, देखता नहीं। भाव की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया समस्त भावों-पर्यायों को जानता है, किन्तु, देखता नहीं। मतिज्ञान का उपसंहार करते हुए कहा गया है : शब्द स्पृष्ट (छूने पर) ही सुना जाता है, रूप अस्पृष्ट ही देखा जाता है, रस, गन्ध और स्पर्श स्पृष्ट एवं बद्ध (आत्म प्रदेशों से गृहीत होने पर) ही जाना जाता है । ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा ये सब आभिनिबोधक-मतिज्ञान Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ के पर्याय हैं : पुट्ठे सुरणेइ सद्द, रूवं पुण पासइ अपुट्ठे तु । गंध रसं च फासं, च बद्धपुट्ठं ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य सन्ना सई मई पन्ना, सव्वं श्रभिणिबोहियं |: वियागरे ॥ गवेसणा | जैनागम दिग्दर्शन श्रत ज्ञान : श्रुतज्ञान रूप परोक्ष ज्ञान चौदह प्रकार का है :- १. अक्षरश्रुत, २. अनक्षरश्रुत, ३. संज्ञिश्रुत, ४ असंज्ञिश्रुत, ५. सम्यक् त, ६. मिथ्याश्र त ७. सादिश्रुत, अनादिश्रुत, 8, सपर्यवसितश्रुत, १०. पर्यवसितत ११. गमिक त १२. अगमिकश्रत १३. अंगप्रविष्ट, १४ अनंगप्रविष्ट । इनमें से अक्षरश्रत के तीन भेद हैं संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर । अक्षर की संस्थानाकृति का नाम संज्ञाक्षर है । अक्षर के व्यंजनाभिलाप को व्यंजनाक्षर कहते हैं । अक्षरलब्धिवाले जीव को लब्ध्यक्षर ( भावश्रुत) उत्पन्न होता है । वह श्रोत्रेन्द्रिय प्रादिभेद से छः प्रकार का है । अनक्षरश्रत अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे ऊर्ध्वं श्वास लेना, नीचा श्वास लेना, थूकना, खांसना, छोंकना, निसंघना, अनुस्वारयुक्त चेष्टा करना आदि : -गा० ८५, ८७ ऊससियं नीससियं, निच्छूढं खासियं च छोयं च । निस्सिघियमणुसारं प्रणवखरं छेलियाईयं ॥ -गाο ८८ संज्ञित तीन प्रकार की संज्ञावाला है : - (दीर्घ) कालिकी, हेतुपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिको । जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विमर्श आदि शक्तियां विद्यमान हैं, वह कालिकी संज्ञावाला है । जो प्राणी ( वर्तमान की दृष्टि से ) हिताहित का विचार कर किसी क्रिया में प्रवृत्त होता है, वह हेतूपदेशिकी संज्ञा वाला है । सम्यक् श्रुत के कारण हिताहित] का बोध प्राप्त करने वाला सृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा वाला है । प्रसंज्ञिश्रुत संज्ञित से विपरोत लक्षणवाला है । :--- Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस मागम १६३ सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी अर्हन्त तीर्थङ्कर प्रणीत द्वादशांगी गणिपिटक सम्यकश्रुत है । द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वघर के लिए सम्यकश्रु त है, अभिन्नदशपूर्वी अर्थात् सम्पूर्ण दश पूर्वो के ज्ञाता के लिए भी सम्यक श्रत है, किन्तु, दूसरों के लिए विकल्प से सम्यकश्रत अर्थात उनके लिए यह सम्यक्श्रु त भी हो सकता है और मिथ्याश्रु त भी। ___ अज्ञानी मिथ्याष्टियों द्वारा स्वच्छन्द बुद्धि की कल्पना से कल्पित ग्रन्थ मिथ्या श्रु तान्तर्गत हैं। इनमें से कुछ ग्रन्थ इस प्रकार हैं : भारत (महाभारत), रामायण, भीमासूरोक्त, कौटिल्यक, शकटभद्रिका, खोडमुख (घोटकमुख), कार्पासिक, नागसूक्ष्म, कनकसप्तति, वैशेषिक, बुद्धवचन, वैराशिक, कापिलिक, लौकायतिक, षष्टितन्त्र, माठर, पुराण, व्याकरण, भागवत, पातंजलि, पुण्यदैवत, लेख, गणित, शकुनरुत, नाटक अथवा ७२ कलाएँ और सांगोपांग चार वेद । ये सब ग्रन्थ मिथ्यावृष्टि के लिए मिथ्यात्वरूप से परिगृहीत होने के कारण मिथ्याश्रु तरूप है तथा सम्यक् दृष्टि के लिए सम्यकत्वरूप से परिगृहीत होने के कारण सम्यक् श्रुत रूप हैं। अथवा मिथ्याष्टि के लिए भी ये सम्यक् श्रु तरूप हैं, क्योंकि उसके सम्यक्त्व की उत्पत्ति में ये हेतु हैं। द्वादशांगी गणिपिटक व्युच्छित्तिनय अर्थात् पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से सादि और सपर्यवसित-सान्त है तथा अव्युच्छित्तिनय अर्थात् द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से अनादि एवं अपर्यवसित-अनन्त है। जिस सूत्र के आदि, मध्य और अन्त में कुछ विशेषता के साथ बार-बार एक ही पाठ का उच्चारण हो, उसे गमिक कहते हैं। दृष्टिवाद गमिकश्रु त है । गमिक से विपरीत कालिकत (आचारांग प्रादि) अगमिक हैं। श्रु तज्ञान व उसके साथ ही प्रस्तुत सूत्र का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि निम्नोक्त आठ गुणों से युक्त मुनि को ही श्रु तज्ञान का लाभ होता है : १. सुश्रुषा(श्रवणेच्छा), २. प्रतिपृच्छा, ३. श्रवण, ४. ग्रहण, ५. ईहा, ६. अपोह, ७. धारणा ८. आचरण : Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जैनागम दिग्दर्शन सुस्सूसइ पडिपुच्छइ, सुणेइ गिण्हइ य ईहए यावि । तत्तो अपोहए वा, धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ -गा० ६५ अनुयोग अर्थात् व्याख्यान की विधि बताते हुए प्राचार्य कहते हैं कि सर्वप्रथम सूत्र का अर्थ बताना चाहिए, तदनन्तर उसकी नियुक्ति करनी चाहिए और अन्त में निरवशेष सम्पूर्ण बातें स्पष्ट कर देनी चाहिए : - सुत्तत्थो खलु पढमो, बीनो निज्जुत्तिमीसियो भणियो। तइनो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुप्रोगे। -गा०६७ श्री जिनदास महत्तर ने नन्दी-सूत्र पर चूणि को रचना की। प्राचार्य हरिभद्र तथा प्राचार्य मलयगिरि ने इस पर टीकाओं का निर्माण किया। ६. अनुयोगद्वार . नन्दी की तरह यह सूत्र भी अर्वाचीन है, जो इसकी भाषा तथा वर्णन-क्रम से गम्य है। इसके रचयिता आर्य रक्षित माने जाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न अनुयोगों से सम्बद्ध विषयों का आकलन है। विशेषतः संख्या-क्रम-विस्तार का जो गणितानुयोग का विषय है, इसमें विशद विवेचन है। यह ग्रन्थ प्राय प्रश्नोत्तर की शैली में रचित है। सप्त स्वर प्रसंगोपात्त इसमें षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद संज्ञक सात स्वरों का विवेचन है। स्वरों के उत्पत्ति स्थान के सम्बन्ध में कहा गया है कि षड्ज स्वर जिह्वा के अग्र-भाग से उच्चरित होता है। ऋषभ स्वर का उच्चारणस्थान हृदय है । गान्धार स्वर कण्ठाग्र से निःसृत होता है। मध्यम स्वर का स्थान जिह्वा के मध्य भाग से होता है । पंचम स्वर नासिका Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पैतालीस प्रागम १६५ से बोला जाता है । धैवत स्वर दांतों के योग से उच्चरित होता है। निषाद स्वर नेत्र-भृकुटि के आक्षेप से बोला जाता है। सातों स्वरों के जीव-निःसृत और अजीव-निःसृत भेद-विश्लेषण के अन्तर्गत बताया गया है कि मयूर षड्ज स्वर, कुक्कुट ऋषभ स्वर. हंस गांधार स्वर, गाय-भेड़ आदि पशु मध्यम स्वर, वसन्त ऋतु में कोयल पंचम स्वर, सारस तथा क्रौंच पक्षी धैवत स्वर और हाथी निषाद स्वर में बोलता है। मानव कृत स्वर-प्रयोग के फलाफल पर भी विचार किया गया है । प्रस्तुत प्रसंग में ग्राम, मूर्च्छना आदि का भी उल्लेख है। आठ विभक्तियों की भी चर्चा है। कहा गया है, निर्देश में प्रथमा, उपदेश में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदाय में चतुर्थी, अपादान में पंचमी, सम्बन्ध में षष्ठी, आधार में सप्तमी तथा आमन्त्रण में अष्टमी विभक्ति है। प्रकृति, पागम, लोप, समास, तद्धित, धातु आदि अन्य व्याकरण-सम्बन्धी विषयों की भी चर्चा की गई है। प्रसंगतः काव्य के नौ रसों का भी उल्लेख हुआ है। - पल्योपम, सागरोपम आदि के भेद-प्रभेद तथा विस्तार, संख्यात, असंख्यात, अनन्त आदि का विश्लेषण, भेद-प्रकार; आदि का विस्तार से वर्णन है । जैन पारिभाषिक परिमाण-क्रम तथा संख्याक्रम की दृष्टि से इसका वस्तुतः महत्त्व है। महत्वपूर्ण सूचनाएं ___कुप्रावनिक, मिथ्या शास्त्र, पाखण्डी श्रमण, कापालिक, तापस, परिव्राजक, पाण्डुरंग आदि धर्मोपजीवियों, तृण, काष्ठ तथा पत्ते ढोने वालों, वस्त्र, सूत, भाण्ड आदि का विक्रय कर जीविकोपार्जन करने वालों, जुलाहों, बढ़इयों, चितेरों, दांत के कारीगरों, छत्र बनाने वालों आदि का यथाप्रसंग विवेचन हुआ है। __ प्रमाण-वर्णन के प्रसंग में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा आगम की विशद चर्चा की गयी है। प्रत्यक्ष के दो भेद बतलाये गये हैं. : इन्द्रियप्रत्यक्ष तथा नो - इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के पांच भेद कहे गये Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैनागम दिग्दर्शन हैं:-श्रोत्रेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, चक्षुः-इन्द्रिय- प्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रिय- प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय- प्रत्यक्ष तथा स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष । ___ नो-इन्द्रिय-प्रत्यक्ष का वर्णन करते हुए उसे अवधिज्ञान-प्रत्यक्ष, मन:-पर्यय-ज्ञान- प्रत्यक्ष तथा केवल-ज्ञान- प्रत्यक्ष; इस प्रकार इसे तीन प्रकार का बतलाया गया है। अनुमान अनुमान का वर्णन करते हुए उनके पूर्ववत् , शेषवत् तथा दृष्टि-साधर्म्य नामक तीन भेदों की चर्चा की गई है। पूर्ववत् अनुमान का स्वरूप समझाने के लिए सूत्रकार ने एक उदाहरण दिया है : जैसे कोई माता का पुत्र बाल्यावस्था में अन्यत्र चला गया और युवा हो कर अपने नगर वापिस पाया। उसे देख कर उसकी माता पूर्वदृष्ट अर्थात् पहले देखे हुए लक्षणों से अनुमान करती है कि यह पुत्र मेरा ही है।' इसी को पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। शेषवत् अनुमान पांच प्रकार का है : कार्यतः, कारणतः, गणतः, अवयवतः और आश्रयतः । कार्य से कारण का ज्ञान होना कार्यतः अनुमान है । शंख, भेरी आदि के शब्दों से उनके कारणभूत पदार्थों का ज्ञान होना इसी प्रकार का अनुमान है। कारणों से कार्य का ज्ञान कारणतः अनुमान कहलाता है । तन्तुओं से पट बनता है, मिट्टी के पिण्ड से घट बनता है प्रादि उदाहरण इसी प्रकार के अनुमान के हैं । गण के ज्ञान से गुणी का ज्ञान करना गणतः अनुमान है । कसौटी से स्वर्ण की परीक्षा, गंध से पुष्प की परीक्षा आदि इसी प्रकार के अनुमान के उदाहरण हैं। अवयवों से अवयवी का ज्ञान होना अवयव अनुमान है । शृगों से महिष का, शिखा से कुक्कुट का, दांतों से हाथी का, दाढ़ों से वाराह-सूअर का ज्ञान इसी कोटि का अनुमानजन्य ज्ञान है। साधन से साध्य का अर्थात् प्राश्रय से प्राश्रयी का ज्ञान प्राश्रयतः अनुमान है । धूम्र से अग्नि का, बादलों से जल का, अभ्र-विकार से वृष्टि का, सदाचरण से कुलीन पुत्र का ज्ञान इसी प्रकार का अनुमान है। १. माया पुत्त जहा नळं, जुवाणं पुणरागयं । काई पच्चभिजाणेज्जा, पुवलिंगेरण केणई ।। -गा० १५. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "पंतालीस प्रागम १६७ दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान के दो भेद हैं : सामान्य दृष्ट और विशेष दृष्ट । किसी एक पुरुष को देखकर तद्देशीय अथवा तज्जातीय अन्य पुरुषों की आकृति आदि का अनुमान करना सामान्यदृष्ट अनुमान का उदाहरण है। इसी प्रकार अनेक पुरुषों की प्राकृति आदि से एक पुरुष की प्राकृति आदि का अनुमान किया जा सकता है । किसी व्यक्ति को किसी स्थान पर एक बार देखकर पुनः उसके अन्यत्र दिखाई देने पर उसे अच्छी तरह पहचान लेना विशेष दृष्ट अनुमान का उदाहरण है। उपमान: उपमान के दो भेद हैं : साधोपनीत और वैधोपनीत । साधोपनीत तीन प्रकार का है : किंचित् साधोपनीत, प्रायःसाधोपनीत और सर्व साधोपनीत । किंचित् साधोपनीत उसे कहते हैं, जिसमें कुछ साधर्म्य हो। उदाहरण के लिए जैसा मेरु पर्वत है, वैसा ही सर्षप का बीज है; क्योंकि दोनों ही मूर्त है। इसी प्रकार जैसा आदित्य है, वैसा ही खद्योत है; क्योंकि दोनों ही प्रकाशयुक्त हैं। जैसा चन्द्र है, वैसा ही कुमुद है; क्योंकि दोनों ही शीतलता प्रदान करते हैं । प्रायः साधोपनीत उसे कहते हैं, जिसमें करीब-करीब समानता हो । उदाहरणार्थ जैसी गाय है, वैसी ही नीलगाय है। सर्व साधोपनीत उसे कहते हैं, जिसमें सब प्रकार की समानता हो। इस प्रकार की उपमा देश-काल आदि की भिन्नता के कारण नहीं मिल सकती; अतः उसकी उसी से उपमा देना सर्वसाधोपनीत उपमान है। इसमें उपमेय एवं उपमान अभिन्न होते हैं । उदाहरण के लिए अर्हत् ही अर्हत् के तुल्य कार्य करता है। चक्रवर्ती ही चक्रवर्ती के समान कार्य करता है आदि । वैधोपनीत भी इसी तरह तीन प्रकार का है : किंचितवैधोपनीत, प्रायः वैधोपनीत और सर्व वैधोपनीत । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैनागम दिग्दर्शन प्रागम: आगम दो प्रकार के हैं : लौकिक और लोकोत्तरिक । मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए ग्रन्थ लौकिक आगम हैं; जैसे, रामायण, महाभारत आदि । लोकोत्तरिक आगम वे हैं, जिन्हें पूर्ण ज्ञान एवं दर्शन को धारण करने वाले, भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल के पदार्थों के ज्ञाता, तीनों लोकों के प्राणियों से पूजित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अर्हत् प्रभु ने बताया है, जैसे, द्वादशांग गणिपिटक । अथवा आगम तीन प्रकार के हैं : सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम; अथवा आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । तीर्थङ्कर प्ररूपित अर्थ उनके लिए पात्मागम है। गणधर प्रणीत सूत्र गणधर के लिए आत्मागम एवं अर्थ अनन्तरागम है। गणधरों के शिष्यों के लिए सूत्रों को अनन्तरागम एवं अर्थ को परम्परागम कहते हैं । इसके बाद सूत्र और अर्थ दोनों ही परम्परागम हो जाते हैं। प्रमाण की तरह नयवाद की भी विस्तार से चर्चा हुई है। इन वर्णन-क्रमों से इसके अर्वाचीन होने का कथन परिपुष्ट होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर श्री जिनदास महत्तर की चूणि है। प्राचार्य हरिभद्र तथा मलधारी हेमचन्द्र द्वारा टीकात्रों की भी रचना की गई। ___ दस पइएणग (दश प्रकीर्णक) प्रकीर्णक का प्राशय इधर-उधर बिखरी हुई, छितरी हुई सामग्री या विविध विषयों के समाकलन अथवा संग्रह से है । जैन पारिभाषिक दृष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रन्थों को कहा जाता है, जो तीर्थङ्कों के शिष्य उद्बुद्धचेता श्रमणों द्वारा अध्यात्म-सम्बद्ध विविध विषयों पर रचे जाते रहे हैं। प्रकीर्णकों की परम्परा : नन्दी सूत्र में किये गये उल्लेख के अनुसार प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभ के शिष्यों द्वारा चौरासी सहस्र प्रकीर्णकों की रचना की गई। दूसरे से तेईसवें तक के तीर्थङ्करों के शिष्यों द्वारा संख्येय सहस्र प्रकीर्णक रचे गये। चौवीसवें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर के शिष्यों द्वारा चौदह सहस्र प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना की गयी। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम १६६ - नन्दी सूत्र में इस प्रसंग में ऐसा भी उल्लेख है कि जिन-जिन तीर्थङ्करों के औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा पारिणामिकी; चार प्रकार की बुद्धि से उत्पन्न जितने भी शिष्य होते हैं, उनके उतने ही सहस्र प्रकीर्णक होते हैं । जितने प्रत्येक-बुद्ध होते हैं, उनके भी उतने ही प्रकीर्णक ग्रन्थ होते हैं।' नन्दी सूत्र के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है कि अर्हत-प्ररूपित श्रुत का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य भी ग्रन्थ-रचना करते हैं, उसे प्रकीर्णक कहा जाता है । अथवा अर्हत-उपदिष्ट श्रृ त का अनुसरण करते हुए उनके शिष्य धर्म-देशना आदि के सन्दर्भ में अपने वचन-कौशल से ग्रन्थ पद्धत्यात्मक रूप में जो भाषण करते हैं, वह प्रकीर्णक-संज्ञक है। प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना तीर्थङ्करों के शिष्यों द्वारा होने की जब मान्यता है, तो यह स्थिति प्रत्येक-बुद्धों के साथ कैसे घटित होगी: क्योंकि वे किसी के द्वारा दीक्षित नहीं होते । वे किसी के शिष्य भी नहीं होते। इसका समाधान इस प्रकार है कि, प्रव्राजक या प्रव्रज्या देने वाले प्राचार्य की दृष्टि से प्रत्येक-बुद्ध किसी के शिष्य नहीं होते, पर, तीर्थङ्करों द्वारा उपदिष्ट धर्म-शासन की प्रतिपन्नता या तदनशासनसम्पृक्तता की अपेक्षा से अथवा उनके शासन के अन्तर्वर्ती होने से वे १. एवमाइयाइं चउरासीइं पइण्णग-सहस्साई भगवो अरहो उसह सामियस्स प्राइतित्थयरस्स । तहा संखिज्जाई पइण्णगसहस्साई मज्झिमगारण जिणवराणं । चोदसपइण्यणगसहस्सारिण भगवनो वद्धमाणसामिस्स । महवा जस्स जत्तिया सीसा उप्पत्तियाए वेरणइयाए कम्मियाए परिणामियाए चउविहीए बुद्धिए उववेया, तस्स तत्तियाई पइण्णगसहस्साहिं । पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव । -नन्दी सूत्र; ५१ '२. इह यद्भगवदर्हदुपदिपष्टं श्रुतमनुसृत्य भगवतः श्रमणा विरचय न्ति तत्सर्व प्रकीरणकमुच्यते । अथवा श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचनकौशलेन धर्मदेशनाविषु ग्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्ते तदपि सर्वप्रकीर्णम् । -अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ० ३ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैनागम दिग्दर्शन औपचारिकतया तीर्थङ्कर के शिष्य कहे भी जा सकते हैं; अतः प्रत्येकबुद्धों द्वारा प्रकीर्णक-रचना की संगतता व्याहृत नहीं होती।' प्राप्त प्रकीर्णक वर्तमान में जो मुख्य-मुख्य प्रकीर्णक संज्ञक कृतियां प्राप्त हैं, वे संख्या में दश हैं : १. चउसरण (चतुःशरण), २. पाउर-पच्चक्खाण (आतुर-प्रत्याख्यान), ३. महापच्चक्खाण (महा-प्रत्याख्यान), ४. भत्त-परिण्णा (भक्त-परिज्ञा), ५. तन्दुलवेयालिय (तन्दुलवैचारिक), ६. सथारग (संस्तारक), ७. गच्छायार (गच्छाचार), ८. गणिविज्जा (गणि-विद्या), ६. देविंद-थय (देवेन्द्र-स्तव), १०. मरणसमाही (मरण-समाधि)। १. चउसरण (चतुःशरण) जन परम्परा में अहत्, सिद्ध, साधु और जिन प्ररूपित धर्म; ये चार शरण पाश्रयभूत माने गये हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जैन संस्कृति के ये अाधार-स्तम्भ हैं। इन्हीं चार के आधार पर इस प्रकीर्णक का नाम 'चतुःशरण' रखा गया है। दुष्कृत त्याज्य हैं, सुकृत ग्राह्य; यह धर्म का सन्देश है। इस प्रकरण में दुष्कृतों को निन्दित बताया गया है और सुकृतों को प्रशान्त, जिसका आशय है कि मनुष्य को असत् कार्य न कर सत्कार्य करने में तत्पर रहना चाहिए। इसको कुशलानुबन्धी अध्ययन भी कहा जाता है, जिसका अभिप्राय है कि यह कुशल-सुकृत या पुण्य की अनुबद्धता का साधक है। इसे तीनों सन्ध्यायों में ध्यान किये जाने योग्य बताया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि यह प्रकीर्णक विशेष उपादेय माना जाता रहा है। चतुःशरण की अन्तिम गाथा में श्री वीरभद्र का १. प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुध्यते, तदेतदसमीचीनम, यतः प्रव्राजकाचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यमावो निषिष्यते, न तु तीर्थकरोपदिष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि, ततो न कश्चिद्दोः।। -अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ. ४ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस मागम १७१ नामोल्लेख है, जिससे अनुमान किया जाता है कि वे इसके रचयिता रहे हों। श्री भुवनतुग द्वारा वृत्ति की रचना की गयी और श्री गुणरत्न द्वारा अवचूरि की। २. पाउर-पच्चक्खाण (प्रातुर-प्रत्याख्यान) नाम : प्राशय : विषय | आतुर शब्द सामान्यतः रोग-ग्रस्त-वाची है। आतुरावस्था में मनुष्य की दो प्रकार की मानसिक अवस्थाएं सम्भावित हैं। जिन्हें देह, दैहिक भोग और लौकिक एषणाओं में आसक्ति होती है, वे सांसारिक मोहाच्छन्न मनः-स्थिति में रहते हैं। भुक्त भोगों की स्मृति और अप्राप्त भोगों की लालसा में उनका मन पाकुल बना रहता है। अपने अन्तिम काल में भी वे इसीलिये प्रत्याख्यानोन्मुख नहीं हो पाते। संसार में अधिकांश लोग इसी प्रकार के हैं। अन्ततः मरना तो होता ही है, मर जाते हैं। वैसा मरण बाल-मरण कहा जाता है। यहां बाल का अभिप्राय अज्ञानी से है। दूसरे प्रकार के वे व्यक्ति हैं, जो भोग तथा देह की नश्वरता का चिन्तन करते हए प्रात्म-स्वभावोन्मख बनते हैं। दैहिक कष्ट तथा रोग-जनित वेदना को वे प्रात्म-बल से सहते जाते हैं और अपने भौतिक जीवन की इस अन्तिम अवस्था में खाद्य, पेय आदि का परिवर्जन कर, आमरण अनशन, जो महान् प्रात्म-बल का द्योतक है, अपना कर शुद्ध चैतन्य में लीन होते हुए देह-त्याग करते हैं। जैन परिभाषा में यह 'पण्डित-मरण' कहा जाता है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में बाल-मरण तथा पण्डित-मरण का विवेचन है, जिसकी स्थिति प्रायः आतुरावस्था में बनती है । सम्भवतः इसी पृष्ठ-भूमि के आधार पर इसका नाम प्रातूर-प्रत्याख्यान रखा गया हो। इसमें प्रतिपादित किया गया है कि प्रत्याख्यान से ही सदगति या शाश्वत शान्ति सधती है। चतुःशरण की तरह इसके भी रचयिता श्री वीरभद्र कहे जाते हैं और उसी की तरह श्री भुवनतुग द्वारा वृत्ति तथा श्री गुणरत्न द्वारा अवचूरि की रचना की गयी। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ नाम : श्रभिप्राय ३. महापच्चवखारण ( महाप्रत्याख्यान ) जैनागम दिग्दर्शन असत् अशुभ या प्रकरणीय का प्रत्याख्यान या त्याग जीवन की यथार्थ सफलता का परिपोषक है । यह तथ्य ही वह प्राधार - शिला है, जिस पर धर्माचरण टिका है । प्रस्तुत कृति में इसी पृष्ठ भूमि पर दुष्कृत की निन्दा की गयी है। त्याग के महान् आदर्श की उपादेयता का इसमें विशेष रूप से उल्लेख किया गया है । सम्भवतः इसी कारण इसकी संज्ञा महा प्रत्याख्यान की गयी । विषय-वस्तु पौद्गलिक भोगों का मोह या लोलुप भाव व्यक्ति को पवित्र तथा संयत जीवन नहीं अपनाने देता। पौद्गलिक भोगों से प्राणी कभी तृप्त नहीं हो सकता । उनसे संसार भ्रमण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है । एतन्मूलक विषयों का विश्लेषण करते हुए प्रस्तुत कृति में माया का वर्जन, तितिक्षा एवं वैराग्य के हेतु, पंच महाव्रत, ग्राराधना आदि विषयों का विवेचन किया गया है । अन्ततः यही सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि प्रत्याख्यान ही सिद्धि प्राप्त करने का हेतु है । प्रस्तुत प्रकीर्णक में एक सौ बयालीस गाथाएं हैं । ४. मत्त - परिण्णा (भक्त-परिज्ञा) नामः श्राशय भक्त भोजन वाची है और परिज्ञा का सामान्य अर्थ ज्ञान, विवेक या पहिचान है । स्थानांग सूत्र में परिज्ञा का एक विशेष अर्थ 'ज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यान' किया गया है | जैन धर्म में भक्त-परिज्ञा अनशनपूर्वक मरण के भेदों में से एक है । प्रातुर- प्रत्याख्यान के सन्दर्भ में जैसा कि विवेचन किया गया है, रुग्णावस्था में साधक आमरण अनशन स्वीकार कर पण्डित-मरण प्राप्त करता है, भक्त-परिज्ञा की स्थिति उससे कुछ भिन्न प्रतीत होती है | वहां दैहिक अस्वस्थता की स्थिति का विशेष सम्बन्ध नहीं है । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम १७३ सदसद्-विवेकपूर्वक साधक आमरण अनशन द्वारा देह-त्याग करता है । धर्म-संग्रह नामक जैन आचार-विषयक ग्रन्थ के तृतीय अधिकरण में इस सम्बन्ध में विशद वर्णन है। प्रस्तुत प्रकीर्णक में अन्यान्य विषयों के साथ-साथ भक्त-परिज्ञा का विशेष रूप से वर्णन है। मुख्यतः उसी को आधार मान कर प्रस्तुत प्रकीर्णक का नामकरण किया गया है। प्रकीर्णक का कलेवर एक सौ बहत्तर गाथामय है। इसमें भक्तपरिज्ञा के साथ-साथ इंगिनी और पादोपगमन का भी विवेचन है, जो उसी (भक्त-परिज्ञा) की तरह विवेकपूर्वक अशन-त्याग द्वारा प्राप्त किये जाने वाले मरण-भेद हैं। इस कोटि के पण्डित-मरण के ये तीन भेद माने गये हैं। कनिपय महत्वपूर्ण प्रसंग प्रकीर्णक में दर्शन (श्रद्धा-तत्त्व-आस्था) को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। कहा गया है कि जो दर्शन-भ्रष्ट हो जाते हैं, उन्हें निर्वाण-लाभ नहीं हो सकता। साधकों के ऐसे अनेक उदाहरण उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने असह्य कष्टों तथा परिषहों को प्रात्मबल के सहारे भेलते हुए अन्ततः सिद्धि लाभ किया। मनोनिग्रह पर बहत बल दिया गया है। कहा गया है कि साधना में स्थिर होने के लिए मन का निग्रह या नियन्त्रण अत्यन्त आवश्यक है। यहां मन को मर्कट की तरह चपल तथा क्षण भर भी शान्त नहीं रह सकने वाला बताया है। उसका विषय-वासना से परे होना दुष्कर है। स्त्रियों की इस प्रकीर्णक में कड़े शब्दों में चर्चा की गयी है। उन्हें सर्पिणी से उपमित किया गया है । उन्हें शोक-सरित्, अविश्वास भूमि, पाप-गुहा और कपट-कुटीर जैसे हीन नामों से अभिहित किया गया है। इस प्रकीर्णक के रचनाकार श्री वीरभद्र माने जाते है । श्री -गुणरत्न द्वारा अवचूरि की रचना की गयी। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जैनागम दिग्दर्शन ५, तंदुलवेयालिय (तन्दुलवैचारिक) नाम : अर्थ तन्दुल और वैचारिक; इन दो शब्दों का इसमें समावेश है। तन्दूल का अर्थ चावल होता है और वैचारिक स्पष्ट है ही। प्रस्तुत प्रकीर्णक के इस नाम के सम्बन्ध में कल्पना है कि सौ वर्ष का वृद्ध पुरुष एक दिन में जितने तन्दुल खाता है, उनकी संख्या को उपलक्षित कर यह नामकरण हुआ है।' कल्पना का प्राशय बहुत स्पष्ट तो नहीं है, पर, उसका भाव यह रहा हो कि सौ वर्ष के वृद्ध पुरुष द्वारा प्रतिदिन जितने चावल खाये जा सकते हैं, वे गणना योग्य होते हैं । क्योंकि वृद्धावस्था के कारण सहज ही उसकी भोजन-मात्रा बहुत कम हो जाती है । अर्थात् एक ससीम संख्या-क्रम इससे प्रतिध्वनित होता है। प्रकीर्णक पांच सौ छयासी गाथाओं का कलेवर लिये हुए है। इसमें जीवों का गर्भ में आहार, स्वरूप, श्वासोच्छ्वास का परिमाण, शरीर में सन्धियों की स्थिति व स्वरूप, नाड़ियों का परिमारणे, रोमकूप, पित्त, रुधिर, शुक्र आदि का विवेचन है । वे तो मुख्य विषय हैं ही, साथ-साथ गर्भ का समय, माता-पिता के अंग, जीव की बाला, क्रीडा, मन्दा आदि दश दशाएं, धर्म के अध्यवसाय आदि और भी अनेक सम्बद्ध विषय वर्णित हैं। नारी का हीन रेखा-चित्र प्रस्तुत प्रकीर्णक में प्रसंगोपात्त नारी का बहुत घृणोत्पादक व भयानक वर्णन किया गया है । कहा गया है कि नारी सहस्रों अपराधों का घर है । वह कपट-पूर्ण प्रेम रूपी पर्वत से निकलने वाली नदी है। वह दुश्चरित्र का अधिष्ठान है। साधुओं के लिए वह शत्रुरूपा है। व्याघ्री की तरह वह क्रू रहृदया है। जिस प्रकार काले नाग का विश्वास नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार वह अविश्वस्य है । १. तन्दुलानां वर्षशतायुष्कपुरुषप्रतिदिनभोग्यानां संख्याविचारेणोपलक्षितं तन्दुल-वैचारिकम् । अभिधान राजेन्द्र; चतुर्थ भाग, पृ० २१६८ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस मागम १७५ “उच्छखल घोड़े को जिस प्रकार दमित नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार वह दुर्दम है। कुछ विचित्र व्युत्पत्तियाँ नारी-निन्दा के प्रसंग में नारी-अर्थ-द्योतक शब्दों की कुछ विचित्र व्युत्पत्तियां दी गयी हैं। जैसे, नारी के पर्यायवाची 'प्रमदा' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है : 'पुरिसे मत्त करंति त्ति पमयायो।' अर्थात् पुरुषों को मत्त-कामोन्मत्त बना देती है, इसलिए वे प्रमदाएं कही जाती हैं। महिला शब्द की व्युत्पति इस प्रकार की गयी है : ‘णाणाविहेहि कम्मेहिं सिप्पइयाएहिं पूरिसे मोहंति त्ति महिलाओ।' अनेक प्रकार के शिल्प आदि कर्मों द्वारा पुरुषों को मोहित करने के कारण वे “महिलाएं कही जाती हैं। प्राकृत में महिला के साथ 'महिलिया' प्रयोग भी नारी के अर्थ में है। स्वार्थिक 'क' जोड़कर यह शब्द निष्पन्न हुआ है। इसका विश्लेषण किया गया है : 'महंतं कलिं जणयंति त्ति महिलियानो' में महान् कलह उत्पन्न करती हैं, इसलिए उन्हें 'महिलियानो' संज्ञा से अभिहित किया गया है। ... 'रामा' की व्युत्पत्ति करते हुए कहा गया है : 'पुरिसे हावभावमाइएहिं रमंति त्ति रामाओ।' हाव-भाव आदि द्वारा पुरुषों को रम्य प्रतीत होने के कारण वे रामा कहीं जाती हैं। ___अंगना की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : 'पुरिसे अंगापुराए करिति त्ति अंगणाग्रो।' अर्थात् पुरुषों के अंगों में अनुराग उत्पन्न करने के कारण वे अंगनाएं कहलाती हैं। नारी शब्द की व्युत्पति में कहा गया है : 'नारीसमा न नराणं अरीमो त्ति नारीयो।' नारियों के सदृश पुरुषों के लिए कोई अरिशत्रु नहीं है, इस हेतु वे नारी शब्द से संज्ञित हैं। इन व्युत्पत्तियों से ग्रन्थकार का यह सिद्ध करने का प्रयास स्पष्ट प्रतिभाषित होता है कि नारी केवल नामोपकरण है। नारी को एक कुत्सित और बीभत्स पदार्थ के रूप में चित्रित करने के पीछे Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जैनागम दिग्दर्शन सम्भवतः यही आशय रहा हो कि मानव काम से-कामिनी से इतना भयाक्रान्त हो जाए कि उसका और उसका आकर्षण ही मिट जाए। अस्तु, यह एक प्रकार तो है, पर, सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसकी उपादेयता सन्दिग्ध एवं विवादास्पद है। प्रस्तुत प्रकीर्णक पर एक वृत्ति की रचना हुई, जिसके लेखक श्रीविजय-विमल हैं। ६. संथारग (संस्तारक) जो भूमि पर संस्तीर्ण या आस्तीणं किया जाए-बिछाया जाए, वह संस्तार या संस्तारक कहा जाता है। जैन परम्परा में इसका एक पारिभाषिक अर्थ है । जो पर्यन्त-क्रिया करने को उद्यत होते हैं, आत्मोन्मुख होते हुए अनशन द्वारा देह-त्याग करना चाहते हैं, वे भूमि पर दर्भ आदि से संस्तार-संस्तारक अर्थात् बिछौना तैयार करते हैं, उस पर लेटते हैं। उस संस्तारक पर देह-त्याग करते हुए जीवन का वह साध्य साधने में सफल होते हैं, जिसके लिए वे यावज्जीवन साधना-निरत तथा यत्नवान् रहे । उस बिछौने पर स्थित होते हए वे संसार-सागर को तैर जाते हैं; अतः संस्तारक का अर्थ संसार-सागर को तैरा देने वाला, उसके पार लगाने वाला करें, तो भी असंगत नहीं लगता। प्रकीर्णक में अन्तिम समय में प्रात्माराधना-निरत साधक द्वारा संयोजित इस प्रक्रिया का विवेचन है। .. एक सौ तेईस गाथाओं में यह प्रकीर्णक विभक्त है। इसमें संस्तारक की प्रशस्तता का बड़े सुन्दर शब्दों में वर्णन किया गया है। कहा गया है कि जिस प्रकार मणियों में वैर्य मणि, सुरभिमय पदार्थों में गोशीर्ष चन्दन तथा रत्नों में हीरा उत्तम है, उसी प्रकार साधनाक्रमों में संस्तारक परम श्रेष्ठ है। और भी बड़े उद्बोधक शब्दों में कहा गया है कि तणों का संस्तारक बिछा कर उस पर स्थित हुआ १. संस्तीर्यते भूपीठे शयालुभिरिति संस्तारः स एव संस्तारकः । पर्यन्तक्रियां कुर्वद्भिर्द दिविरस्तरणे, तत्क्रियाप्रतिपादन-रूपे प्रकीर्णकअन्वे। -अभिधान राजेन्द्र; सप्तम भाग, पृ० १६५ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतालीस प्रागम श्रमण मोक्ष-सुख की अनुभूति करता है। इस प्रकीर्णक में ऐसे अनेक मुनियों के कथानक दिये गये हैं, जिन्होंने संस्तारक पर आसीन होकर पण्डित-मरण प्राप्त किया। श्री गणरत्न ने इस पर प्रवचुरि की रचना की। ७. गच्छायार (गच्छाचार) गच्छ एक परम्परा या एक व्यवस्था में रहने वाले या चलने वाले समुदाय का सूचक है, जो प्राचार्य द्वारा अनुशासित होता है। जब अनेक व्यक्ति एक साथ सामुदायिक या सामूहिक जीवन जीते है, तो कुछ ऐसे नियम, परम्पराएँ, व्यवस्थाएं मानकर चलना पड़ता है, जिससे सामूहिक जीवन समीचीनता, स्वस्थता तथा शान्ति से चलता जाए। श्रमण-संघ के लिए भी यही बात है। एक संघ या गच्छ में रहने वाले साधु-साध्वियों को कुछ विशेष परम्पराओं तथा मर्यादाओं को लेकर चलना होता है, जिनका सम्बन्ध साध्वाचार, अनुशासन, पारस्परिक सहयोग, सेवा और सौमनस्यपूर्ण व्यवहार से है । सामष्टिक रूप में वही सब सम्प्रदाय, गण या गच्छ का प्राचार कहा जाता है । आधुनिक भाषा में उसे संघीय आचार-संहिता के नाम से अभिहित किया जा सकता है। प्रस्तुत प्रकीर्णक में इन्हीं सब पहलुओं का वर्णन है। प्रकीर्णक में कुल एक सौ सैंतीस गाथाएं हैं, जिनमें कतिपय अनुष्टुभ् छन्द में रचित हैं तथा कतिपय आर्या छन्द में । महानिशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार आदि छेद-सूत्रों का वर्णन पहले किया गया है, जिनमें साधु-साध्वियों के आचार, उनके द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में सेवित दोष, तदर्थ प्रायश्चित्त-विधान आदि से सम्बद्ध विषय वणित हैं। कहा जाता है, इन ग्रन्थों से यथापेक्ष सामग्री संचीर्ण कर एक गच्छ में रहने वाले साधु-साध्वियों के हित की दृष्टि से इस प्रकीर्णक की रचना की गयी। इसमें गच्छ, गच्छ के साधु, साध्वी, प्राचार्य, उन सब के पारस्परिक व्यवहार, नियमन आदि का विशद विवेचन है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ बैनागम दिग्दर्शन गच्छ के नायक या प्राचार्य के वर्णन प्रसंग में एक स्थान पर उल्लेख है कि जो प्राचार्य स्वयं प्राचार-भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचारियों का नियंत्रण नहीं करते अर्थात् प्राचार भ्रष्टता की उपेक्षा करते हैं, स्वयं उन्मार्गगामी हैं, वे मार्ग और गच्छ का नाश करने वाले हैं । ज्यायान् एवं कनीयान् साधुओं के पारस्परिक वैयावृत्य, विनय, सेवा, आदर, सद्भाव आदि का भी इस ग्रन्थ में विवेचन किया गया है। ब्रह्मचर्य-पालन में सदा जागरूक रहने की ओर श्रमणवृन्द को प्रेरित किया गया है। बताया गया है कि वय से वृद्ध होने पर भी श्रमण श्रमणियों के साथ वार्तालाप में संलग्न नहीं होते। श्रमणियों का संसर्ग श्रमणों के लिए विष-तुल्य है। विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया गया है कि हो सकता है, हढ़चेता स्थविर के चित्त में स्थिरता-दृढ़ता हो, पर, जिस प्रकार घृत अग्नि के समीप रहने पर द्रवित हो जाता है, उसी प्रकार स्थविर के संसर्ग से साध्वी का चित्त द्रवित हो जाये, उसमें दुर्बलता उभर आये। वैसी स्थिति में, जैसा कि प्राशंकित है, यदि स्थविर अपना धैर्य खो बैठे, तो वह ठीक वैसी दशा में आपतित हो जाता है, जैसे कफ में प्रालिप्त मक्षिका । अन्ततः यहां तक कहा गया है कि श्रमण को बाला, वृद्धा, बहिन, पुत्री और दोहित्री तक की निकटता नहीं होने देनी चाहिए। व्याख्या-साहित्य श्री आनन्द विमलसूरि के शिष्य श्री विजयविमल गणी ने गच्छाचार पर टीका की रचना की। टीकाकार ने एक प्रसंग में उल्लेख किया है कि वराहमिहिर आचार्य भद्रबाहु के भाई थे। इस सम्बन्ध में प्राचार्य भद्रबाहु के इतिवृत्त के सन्दर्भ में चर्चा की जा चुकी है, यह इतिहास-सम्मत तथ्य नहीं है । इतिहास पर प्रामाणिकता, गवेषणा तथा समीक्षा की दृष्टि से ध्यान न दिये जा सकने के कारण इस तरह के अप्रामाणिक उल्लेखों का प्रचलन रहा हो, ऐसा सम्भावित लगता है । टीकाकार ने यह भी चर्चा की है कि वराहमिहिर ने चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्य-प्रज्ञप्ति प्रादि शास्त्रों का अध्ययन करके वराही-संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैंतालीस भागम ८. गणि-विज्जा (गणि-विद्या) आपाततः प्रतीत होता है, इस प्रकीर्णक के नाम में आया हुआ 'गणि' शब्द गण के अधिपति या प्राचार्य के अर्थ में है; क्योंकि प्राकृत में सामान्यतः गणि शब्द का प्रचलित अर्थ ऐसा ही है। संस्कृत में भी 'गणिन्' शब्द इसी अर्थ में है। समास में न का लोप होकर केवल गणि रह जाता है। वास्तव में इस प्रकीर्णक के नाम में पूर्वार्द्ध में जो गणि शब्द है, वह गण-नायक के अर्थ में नहीं है। गणि शब्द की एक अन्य निष्पत्ति भी है। 'गण' धातु के इन् प्रत्यय लगाकर गणना के अर्थ में 'गणि' शब्द बनाया जाता है। यहां उसी का अभिप्रेत है; क्योंकि प्रस्तुत प्रकीर्णक में गणना सम्बन्धी विषय वर्णित है। यह बयासी गाथाओं में विभक्त है। इसमें तिथि, वार, करण, मुहूर्त, शकुन, लग्न, नक्षत्र, निमित्त आदि ज्योतिष-सम्बन्धी विषयों का विवेचन है । घण्टे के अर्थ में यहां होरा शब्द का प्रयोग हआ है। ६. देविद-थय (देवेन्द्र-स्तव) एक श्रावक चौवीस तीर्थंकरों को वन्दन करता हुआ भगवान् महावीर की स्तवना करता है। श्रावक की गृहिणी उस समय अपने पति से इन्द्र आदि के विषय में जिज्ञासा करती है। वह श्रावक कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत देवताओं आदि का वर्णन करता है । यही सब इस प्रकीर्णक का वर्ण्य विषय है। पिछले कई प्रकीर्णकों की तरह इस प्रकीर्णक के रचनाकार भी श्री वीरभद्र कहे जाते हैं । इसमें तीन सौ सात गाथाएं समाविष्ट हैं। १०. मरण-समाही (मरण-समाधि) मरण, जिसका कभी-न-कभी सबको सामना करना पड़ता है, जिससे सभी सदा भयाक्रान्त रहते हैं, जिसके स्मरण मात्र से देह में एक सिहरन-सी दौड़ जाती है, को परम सुखमय बनाने हेतु जैन दर्शन ने गम्भीर और सूक्ष्म चिन्तन किया है तथा उनके लिए एक प्रशस्त मार्ग-दर्शन दिया है ताकि मृत्यु मानव के लिए भीति के स्थान पर महोत्सव बन जाए। समाधि-मरण उसी का उपक्रम है। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० नागम दिग्दर्शन __मानसिक स्थिरता, आत्मोन्मुखता, शुद्ध चिन्तनपूर्वक देहासक्तिवजित मरण समाधि-मरण है। वहां खान-पान आदि सब कुछ सहज भाव से परित्यक्त हो जाते हैं। साधक प्रात्म-अनात्म के भेद-विज्ञान की कोटि में पहुंचने लगता है। ऐसी अन्तः-स्थिति उत्पन्न हो, जीवन में यथार्थगामिता व्याप्त हो जाए, एतदर्थ चिन्तनशील मनीषियों ने कुछ व्यवस्थित विधि-क्रम दिये हैं, जो न केवल शास्त्रानुशीलन, अपितु उनके जीवन-सत्य के साक्षात्कार से प्रसूत हैं। इस प्रकीर्णक में समाधि-मरण उसके भेद आदि का इसी परिप्रेक्ष्य में तात्विक एवं विशद विवेचन है। कलेवर : विषय-वस्तु प्रस्तुत प्रकीर्णक छः सौ तिरेसठ गाथाओं का शब्द-कलेवर लिये हुए है । परिमाण में दशों प्रकीर्णक ग्रन्थों में यह सब से वृहत् है। वर्ण्य-विषय से सम्बद्ध भक्त-परिज्ञा, पातुर-प्रत्याख्यान, महा-प्रत्याख्यान, मरण-विभक्ति, मरण-विशोधि, आराधना प्रभृति अनेक-विध श्रुतसमुदय के आधार पर इस प्रकीर्णक का सर्जन हुआ है। गरु और शिष्य के संवाद के साथ इस ग्रन्थ का प्रारम्भ होता है। शिष्य को समाधि-मरण के सम्बन्ध में जिज्ञासा होती है । गुरु उसके समाधान में आराधना, आलोचना, संलेखना, उत्सर्ग, अवकाश, संस्तारक, निसर्ग, पादपोपगमन आदि चौदह द्वारों के माध्यम से समाधि-मरण का विस्तृत विश्लेषण करते हैं। अनशन-तप की व्याख्या, संलेखना-विधि, पण्डित-मरण के स्वरूप आदि का इस प्रकीर्णक में समावेश है, जो प्रात्म-साधकों के लिए केवल पठनीय ही नहीं, आन्तरिक दृष्टि से भी विचारणीय है। प्रासंगिक रूप में इसमें उन महापुरुषों के दृष्टान्त उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने परीषहों को समभाव से सहते हुए पादपोपगमन आदि तप द्वारा सिद्धि प्राप्त की। धर्म-तत्त्वोपदेश के सन्दर्भ में और भी अनेक दृष्टान्त उपस्थित किये गये हैं । बारह भावनाओं के विवेचन के साथ यह प्रकीर्णक समाप्त होता है। ___ दश प्रकीर्णकों पर यह संक्षिप्त ऊहापोह है। इनके अतिरिक्त और भी कतिपय प्रकीर्णक हैं, जिनमें ऋषि-भाषित, तीर्थोद्गार Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पैतालीस प्रागम परिज्ञा, आजीवकल्प, सिद्धप्राभृत, आराधना-पताका, द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति, ज्योतिष-करण्डक, अंग-विद्या तथा योनि-प्राभृत; आदि उल्लेखनीय हैं। उपसंहार __ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय द्वारा मुख्यतया निम्नांकित पैंतालीस आगम स्वीकृत हैं, जिनका पिछले पृष्ठों में विश्लेषण किया गया है : अंग-११, उपांग-१२, छेद-६, मूल-४, नन्दी-अनुयोग द्वार-२, प्रकीर्णक-१० । कुल-४५। अन्य प्रकीर्णक ग्रन्थों के मिलाने पर इनकी संख्या चौरासी तक हो गयी। किसी समय श्वेताम्बर मतिपूजक सम्प्रदाय के गच्छों की संख्या भी चौरासी थी । हो सकता है, इस संख्या ने भी वैसा करने की प्रेरणा दी हो। .. श्वेताम्बर सम्प्रदायों के अन्तर्गत स्थानकवासी सम्प्रदाय तथा तेरापंथ सम्प्रदाय द्वारा उपयुक्त पैंतालीस प्रागमों में से बत्तीस आगम प्रामाणिक रूप में स्वीकार किये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं : अंग-११ उपांग-१२ छेद-४-१-निशीथ, २-व्यवहार, ३-बृहत्कल्प, ४-दशाश्रुतस्कन्ध मूल-४-१-दशवैकालिक, २-उत्तराध्ययन, ३-अनुयोग-द्वार, - ४-नन्दी आवश्यक-१। कुल ३२ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागमों पर व्याख्या-साहित्य प्रयोजन . आर्य-भाषा-परिवार के अन्तर्गत छन्दस के विश्लेषण तथा जैन उपांग-साहित्य के विवेचन के सन्दर्भ में वेदों के अंग, उपांग आदि की चर्चा की गयी है। वेदों को यथावत् रूप में समझने के लिए उनके छः अंग, उपांग या विद्या-स्थान पुराण, न्याय, मीमांसा एवं धर्मशास्त्र का प्रयोजन है । साथ-साथ ब्राह्मण-ग्रन्थों तथा उनसे उद्भूत सूत्र-ग्रन्थों' एवं सायण आदि प्राचार्यों द्वारा रचित भाष्यों की भी उपयोगिता है। इस वाङमय का भली-भांति अध्ययन किये बिना यह शक्य नहीं है कि वेदों का हार्द सही रूप में आत्मसात् किया जा सके। वेदों के साथ जो स्थिति उपयुक्त अगोपांग एवं भाष्यसाहित्य की है, वही पालि-पिटकों के साथ प्राचार्य बुद्धघोष, प्राचार्य बुद्धदत्त, प्राचार्य धम्मपाल आदि द्वारा रचित अट्ठकथाओं की है। पिटक-साहित्य के तलस्पर्शी ज्ञान के लिए इन अट्ठकथाओं का अध्ययन नितान्त आवश्यक है। प्राकृत जैन आगमों के साथ उनके व्याख्या-साहित्य की भी इसी प्रकार की स्थिति है । उसकी सहायता या आधार के बिना आगमों का हार्द यथावत् रूप में गृहीत किया जाना कठिन है। १. सूत्र-प्रन्थ स्थूल रूप में चार भागों में विभक्त है : १-श्रौत सूत्र, २-2 ह्य सूत्र, ३-धर्मसूत्र तथा ४-शुल्व सूत्र । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रागमों पर व्याख्या - साहित्य १८३ वाचना-: जैन आगमों की अपनी विशेष पारिभाषिक शैली है । अनेक -आगमों में अत्यन्त सूक्ष्म तथा गम्भीर विषयों का निरूपण है; श्रतः यह कम सम्भव है कि उन्हें सीधा सम्यक्तया समझा जा सके। इनके अतिरिक्त आगमों की दुरूहता बढ़ जाने का एक और कारण है । उनमें T-भेद से स्थान-स्थान पर पाठ - भिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है । तद्विषयक परम्पराएं आज प्राप्त नहीं हैं; अतः आगम-गत विषयों की समुचित संगति बिठाते हुए उनका अभिप्राय यथावत् पकड़ पाना सरल नहीं है । व्याख्याकारों ने इस सन्दर्भ में स्थान-स्थान पर स्पष्टीकरण देने का प्रयास किया है, जिससे आगम- अध्येताओं को उनके अध्ययन, अनुशीलन और उनका अभिप्राय स्वायत्त करने में सुविधा हो । व्याख्याओं की विधाएं : जैन आचार्यों का इस ओर सतत प्रयत्न रहा कि श्रागम गत तत्त्व पाठकों द्वारा सही रूप में आत्मसात् किया जाता रहे । यही कारण है कि श्रागमों के व्याख्या परक साहित्य के सर्जन में वे सदाकृतप्रयत्न रहे । फलत: निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति, दीपिका, व्याख्या, विवेचन, विवरण, अवचूरि, पंजिका, बालावबोध, वचनिका तथा टब्बा आदि विविध प्रकार का विपुल व्याख्या साहित्य प्राप्त है । बहुत-सा प्रकाश में आया है तथा अन्य बहुत-सा प्रकाशन की प्रतीक्षा में भण्डारों में मंजूषात्रों तथा पुट्ठों में आज भी प्रतिबद्ध है । व्याख्या - साहित्य में नियुक्तियों तथा भाष्यों की रचना प्राकृत भाषा में हुई। चूर्णियां यद्यपि प्राकृत संस्कृत का मिश्रित रूप लिये हुए है, पर, वहां मुख्यतया प्राकृत का प्रयोग हैं। कुछ टीकाएं भी प्राकृत - निबद्ध या प्राकृत संस्कृत - मिश्रित हैं । अधिकांश टीकाएं संस्कृत में हैं । इस प्रकार आगमों के अतिरिक्त उनसे सम्बद्ध प्राकृत-साहित्य की ये चार विधाएं और हैं । आगमों सहित उसके पांच प्रकार होते हैं, जिसे पंचांगी साहित्य कहा जाता है । प्राकृत के विकास के विभिन्न स्तरों, रूपों आदि का अवबोध, भाषा - शास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत का सूक्ष्म परिशीलन, श्रागमगत जैन Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैनागम दिग्दर्शन दर्शन एवं प्राचार-शास्त्र के विविध पक्षों के प्रामाणिक तथा शोधपूर्ण अध्ययन आदि अनेक दृष्टियों से इस पंचांगी साहित्य के व्यापक और गम्भीर परिशीलन की वास्तव में बहुत उपयोगिता है। निज्जुत्ति (नियुक्ति) व्याख्याकार आचार्यों व विद्वानों के अनुसार सूत्रों में जो नियुक्त है, निश्चित किया हुआ है, वह अर्थ जिसमें निबद्ध हो-समीचीनतया सनिवेशित हो-यथावत् रूप में निर्दिष्ट हो, उसे नियुक्ति कहा जाता है। नियुक्तिकार इस निश्चय को लेकर चलते हैं कि वे सूत्रों का सही तथ्य यथावत् रूप में प्रस्तुत करें, जिससे पाठक सूत्रगत विषय सही रूप में हृद्गत कर सके। पर. जिस संक्षिप्त और संकेतमय शैली में नियुक्तियां लिखी गयी हैं, उससे यह कम सम्भव लगता है कि उन्हें भी बिना व्याख्या के सहजतया समझा जा सके। यद्यपि विवेच्य विषयों को समझाने के हेतु अनेक उदाहरणों, दृष्टान्तों तथा कथानकों का उनमें प्रयोग हरा है, पर, उनका संकेत जैसा कर दिया गया है, स्पष्ट और विशद वर्णन नहीं मिलता। ऐसी मान्यता है कि नियुक्तियों की रचना का आधार गुरु-परम्परा प्राप्त पूर्व-मूलक वाङमय रहा है। .. श्रमणवृन्द आगमिक विषयों को सहजतया मुखाग्र रख सके, नियुक्तियों की रचना के पीछे सम्भवतः यह भी एक हेतु रहा हो । ये आर्याछन्द में गाथाओं में हैं। इसलिए इन्हें कण्ठस्थ रखने में अपेक्षाकृत अधिक सुगमता रहती है। कथाएं, दृष्टान्त आदि का भी संक्षेप में उल्लेख या संकेत किया हया है। उससे वे मूल रूप में उपदेष्टा श्रमणों के ध्यान में आ जाते हैं, जिनसे वे उन्हें विस्तार से व्याख्यात कर सकते हैं। ऐतिहासिकता ... व्याख्या-साहित्य में नियुक्तियां सर्वाधिक प्राचीन हैं। पिण्डनियुक्ति तथा ओघ-नियुक्ति की गणना प्रागमों के रूप में की गयी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि पांचवी ई० शती में वलभी में हई आगम-वाचना, जिसमें अन्ततः प्रागमों का संकलन एवं निर्धारण Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रागमों पर व्याख्या - साहित्य १८५ हुआ, उससे पूर्व ही नियुक्तियों की रचना प्रारम्भ हो गयी थी । प्रमुख नैयायिक द्वादशार-नय-चक्र के रचयिता श्राचार्य मल्लवादी ने अपनी रचना में नियुक्ति -गाथा उद्धृत की है, जिससे मल्लवादी से पूर्व नियुक्तियों का रचा जाना प्रमाणित होता है। मल्लवादी का समय विक्रम का पंचम शतक माना जाता है । नियुक्तियां : रचनाकार १. आचारांग, २. सूत्रकृतांग, ३. सूर्यप्रज्ञप्ति, ४. व्यवहार, ५. कल्प, ६. दशाश्रुतस्कन्ध, ७. उत्तराध्ययन, ८. श्रावश्यक, ६. दशवैकालिक, १०. ऋषिभाषित; इन दश सूत्रों पर नियुक्तियों की रचना की गयी है । सूर्यप्रज्ञप्ति तथा ऋषिभाषित की नियुक्तियां प्राप्य हैं । नियुक्तिकार के रूप में प्राचार्य भद्रबाहु का नाम प्रसिद्ध है | पर, श्रुतकेवली ( अन्तिम चतुर्दश पूर्वघर) प्राचार्य भद्रबाहु जिन्होंने छेदसूत्रों की रचना की और नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु एक नहीं हैं । बहुत बड़ी कठिनाई यह प्राती है कि अनेक आागमों पर रचित नियुक्ति तथा भाष्य की गाथाएं स्थान-स्थान पर एक-दूसरे से इतनी मिल गयी हैं कि उन्हें पृथक् कर पाना दुःशक्य है । चूर्णिकार भी वैसा नहीं कर पाये । नियुक्तियों में प्रसंगोपात्त जैनों के परम्परा प्राप्त प्रचारविचार, जैन तत्व- ज्ञान के अनेक विषय, अनेक पौराणिक परम्पराएं, ऐतिहासिक घटनाएँ ( अंशतः ऐतिहासिक, अंशतः पौराणिक), इस प्रकार की विमिश्रित मान्यताएं वर्णित हुई हैं। जैन संस्कृति, जीवनव्यवहार तथा चिन्तन क्रम के अध्ययन की दृष्टि से नियुक्तियों का महत्व है । नियुक्तियों में विशेषतः अर्द्ध - मागधी प्राकृत का व्यवहार हुआ है । प्राकृत की भाषा - शास्त्रीय गवेषणा के सन्दर्भ में भी ये विशेषतः अध्येतव्य हैं । मास (माध्य) आगमों के तात्पर्य को और अधिक स्पष्ट करने के हेतु भाष्यों की रचना हुई । इनकी रचना - शैली भी लगभग वैसी है, जैसी निर्यु - क्तियों की । ये प्राकृत-गाथाओं में लिखे गये हैं। नियुक्तियों की तरह Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जनागम दिग्दर्शन इनमें भी संक्षिप्त विवेचन-पद्धति को अपनाया गया है। जिस प्रकार नियुक्तियों की रचना में अर्द्ध-मागधी प्राकृत का प्रयोग हुअा है, इनमें भी प्रधानतः वैसा ही है। कहीं-कहीं अर्द्धमागधी के साथ-साथ मागधी और शौरसेनी प्राकृत के भी कुछ रूप दृष्टिगत होते हैं। रचना : रचयिता ___ मुख्यतया जिन सूत्रों पर भाष्यों की रचना हुई, वे इस प्रकार हैं.-१. निशीथ, २. व्यवहार, ३. बृहत्कल्प, ४ पंच कल्प, ५. जीतकल्प, ६. उत्तराध्ययन, ७. आवश्यक, ८. दशवैकालिक, ६. पिण्ड-नियुक्ति तथा १०. अोघ-नियुक्ति । निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प के भाष्य अनेक दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्व लिये हए हैं। इनके रचयिता श्री संघदास गणी क्षमाश्रमण माने जाते हैं। कहा जाता है, ये याकिनीमहत्तरा-सूनु प्राचार्य हरिभद्रसूरि के समसामयिक थे। आवश्यक सूत्र पर लघुभाष्य, महाभाष्य तथा विशेषावश्यक भाष्य की रचनाएं की गयीं। अनेक विषयों का विशद समावेश होने के कारण विशेषावश्यक भाष्य का जैन साहित्य में अत्यन्त महत्व है। इसके रचयिता श्री जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण हैं। जीतकल्प तथा उसके स्वोपज्ञ-भाष्य के कर्ता भी श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ही हैं। भाष्य-साहित्य में प्राचीन श्रमण-जीवन और संघ से सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती हैं। निर्ग्रन्थों के प्राचीन आचार, व्यवहार, विधि-क्रम, रीति-नीति, प्रायश्चित्तपूर्वक शुद्धि; इत्यादि विषयों के समीक्षात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान के गन्दर्भ में निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प-भाष्य का अध्ययन नितान्त उपयोगी है। इनमें विविध-प्रसंगों पर इस प्रकार के उपयोगी संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे निर्ग्रन्थों की प्राचार-शृखला को जोड़ने वाली अनेक कड़ियां प्रकाश में आती हैं। चुणि (चरिंग) उद्भव : लक्षण आगमों पर नियुक्ति तथा भाष्य के रूप में प्राकृत-गाथाओं में व्याख्यापरक ग्रन्थों की रचना हुई। उनसे आगमों का प्राशय विस्तार Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागमों पर व्याख्या-साहित्य १७ तथा विशदता के साथ अधिगत किया जा सके, वैसा शक्य नहीं था। क्योंकि दोनों रचनाए पद्यात्मक थीं। वस्तुतः व्याख्या जितनी स्पष्ट, बोधगम्य तथा हृद्य गद्य में हो सकती है, पद्य में वैसी हो सके, यह सम्भव नहीं हो पाता । फिर दोनों (नियुक्ति तथा भाष्य) में संक्षिप्तता का प्राश्रयण था; अतः प्रवचनकार, प्रवक्ता या व्याख्याता के लिए, जैसा कि उल्लेख किया गया है, वह (शैली) लाभकर थी, पर, स्पष्ट और विशद रूप में आगमों का हार्द अधिगत करने के इच्छक अध्येताओं के लिए उनका बहुत अधिक उपयोग नहीं था। अतएव गद्य के रूप में प्रागमों की व्याख्या रचे जाने का एक क्रम पहले से ही रहा है, जो चूणियों के रूप में प्राप्त है। अभिधान-राजेन्द्रकार ने चूणि का लक्षण एवं विश्लेषण करते हुए लिखा है : "प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति तथा विभाषा' के रूप में जो अर्थबहुल हो, हेय-उपादेय अर्थ का प्रतिपादन करने की महत्ता या विशेषता से जो संयुक्त हो, जिसकी रचना हेतु, निपात तथा उपसर्ग के समन्वय से गम्भीरता लिए हुए हो, जो अव्यवच्छिन्न-श्लोकवत् विराम-रहित हो, जो गम-नैगम-नयानुप्राणित हो, उसे चौर्णपद-चूणि कहा जाता चूरिणयों की भाषा चूर्णिकार ने भाषा के सम्बन्ध में नया प्रयोग किया है। प्राकृत जैन दृष्टि से आर्ष वाक् है; अतः उसे तो उन्होंने लिया ही है, पर, संस्कृत को भी उन्होंने ग्रहण किया है। दर्शन और तत्वज्ञान आदि गम्भीर एवं सूक्ष्म विषयों को विद्वद्भोग्य तथा ब्युत्पन्न शैली में व्याख्यात करने में संस्कृत की अपनी अप्रतिम विशेषता है। उसका शब्दकोश वैज्ञानिक दृष्टि से विशाल है तथा उसका व्याकरण शब्दों के नव सर्जन की उर्वरता लिये हुए है। उसकी अपनी कुछ विशिष्ट १. व्याकरण के अनुसार शाब्दिक रचना की स्थितियां । २. पत्थबहलं महत्थं, हे उनिवाप्रोसग्गगंभीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं, गमरणयसुद्ध तु चुन्नपयं ।। -अभिघान-राजेन्द्र; तृतीय भाग, पृ० ११६५ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ . जैनागम दिग्दर्शन शब्दावली है, जिसके द्वारा संक्षेप में विस्तृत और गहन अर्थ व्याख्यात किया जा सकता है। उसकी विवेचन-सरणि में प्रभावापन्नता और गम्भीरता है। सूक्ष्म और पारिभाषिक (Technical) विश्लेषण की दष्टि से उसकी अपनी असामान्य क्षमता है। चूर्णिकार द्वारा भाषात्मक माध्यम के रूप में प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत संयोजन के पीछे सम्भवतः इसी प्रकार का दृष्टिकोण रहा हो, अर्थात् संस्कृत को इन विशेषताओं से लाभान्वित क्यों न हुआ जाए? चूणियों में किया गया प्राकृत-संस्कृत का मिश्रित प्रयोग ‘मगिप्रवाल-न्याय' से उपमित किया गया है। मणियों और मूगों को एक साथ मिला दिया जाये, तो भी वे पृथक्-पृथक् स्पष्ट दीखते रहते हैं। यही स्थिति यहाँ दोनों भाषाओं की है। प्राकृत को प्रधानता ___चूणियों में संस्कृत और प्राकृत का सम्मिलित प्रयोग तो हुआ, फिर भी उनमें प्रधानता प्राकृत की रही। चूणियों में यथा-प्रसंग अनेक प्राकृत-कथाएं दी गयी हैं, जो धार्मिक, सामाजिक, किंवा लौकिक जीवन के विभिन्न पक्षों से सम्बद्ध हैं। चूर्णिकार को जो शब्द विशेष व्याख्येय या विश्लेष्य लगे हैं, उनकी व्युत्पत्ति भी प्रायः प्राकृत में ही प्रस्तुत की गयी है। वर्ण्य विषय के समर्थन तथा परिपुष्टता के हेतु स्थान-स्थान पर प्राकृत व संस्कृत के विभिन्न विषयों से सम्बद्ध पद्य उद्धत किये गये हैं। प्राकृत भाषा की क्षमता, अभिव्यंजना-शक्ति, प्रवाहशोलता, लोक-जनीनता आदि के साथ भाषा-शास्त्रीय दृष्टि से चणियों के अध्ययन की वास्तव में अत्यधिक उपयोगिता है। चूणियां : रचनाकार आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, वृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, दशाश्रुतस्कन्ध, जीतकल्प, जीवाभिगम, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, नन्दी तथा अनुयोगद्वार पर चूणियों की रचना हुई है। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों पर व्याख्या - साहित्य १८६ चूर्णियों के रूप में जैन साहित्य को ही नहीं, प्रत्युत भारतीय वाङ् मय को अनुपम देन देने वाले मनीषी श्री जिनदास गणी महत्तर थे । वे वाणिज्य कुलोत्पन्न थे । धर्म-सम्प्रदाय की दृष्टि से वे कोटिक - गण के अन्तर्गत वज्र - शाखा से सम्बद्ध थे । इतिहासज्ञों के अनुसार उनका समय षष्ठ शती ईसवी के लगभग माना जाता है । 1 जसलमेर के भण्डार में दशवैकालिक चूर्णि की क प्राचीन प्रति मिली है, जिसके रचयिता स्थविर अगस्त्यसिंह हैं। उनका समय विक्रम की तृतीय शती माना जाता है। उससे प्रकट होता है कि श्री देवगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में समायोजित वाचना से भी लगभग दो-तीन शती पूर्व ही वह रची जा चुकी थी । श्रागम-महोदधि स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी द्वारा उसका प्रकाशन किया गया है। श्री जिनदास गणी महत्तर द्वारा रचित दशवैकालिक चूर्णि के नाम से जो कृति विश्रुत है, उसे प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने वृद्ध विवरण के नाम से अभिहित किया है । महत्त्वपूर्ण चूरियाँ भारतीय लोक-जीवन के अध्ययन को दृष्टि से सभी चूर्णियों में यत्र-तत्र बहुत सामग्री विकीर्ण है, पर, निशीथ की विशेष चूर्णि तथा प्रावश्यक चूर्णि का उनमें अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । इनमें जैन इतिहास, पुरातत्व, तत्कालीन समाज आदि पर प्रकाश डालने वाली विशाल सामग्री भरी है । लोगों का खान-पान, वेश-भूषा, आभूषण, सामाजिक, धार्मिक एवं लौकिक रीतियां, प्रथाएं, समाज द्वारा स्वीकृत नैतिक मापदण्ड, समय-समय पर पर्व दिनों के उपलक्ष्य में आयोजित होने वाले मेले, समारोह, जनता द्वारा मनाये जाने वाले त्योहार, व्यवसायिक स्थिति, व्यापार मार्ग, ओक समुदाय के साथ व्यापारार्थ दूर-दूर समुद्र पार तक जाने वाले बड़े-बड़े व्यवसायी (सार्थवाह), उपज, दुर्भिक्ष, दस्यु, तस्कर आदि अनेक ज्ञातव्य विषयों का विविध प्रसंगों के बीच इन चूर्णियों में विवेचन हुआ है । स्पष्टतः पता चलता है कि जैन ग्राचार्य तथा सन्त जन-जन को धर्म - प्रतिबोध देने के निमित्त कितने समुद्यत रहे हैं। यही कारण Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैनागम दिग्दर्शन है कि उनका लोक-जीवन के साथ अत्यन्त निकटतापूर्ण सम्पर्क रहा है। उस काल के लोक-जीवन का एक सजीव चित्र उपस्थित कर पाना उनके लिए सहजतया सम्भव हो सका है। जन-सम्पर्क के साथसाथ वे कितने व्यवहार-निपुण थे, प्रस्तुत सामग्री से यह भी प्रकट होता है। जैन-सन्तों को अपने दर्शन तथा धर्म का गहन अध्ययन तो था ही, अध्ययन की अन्यान्य विधाओं में भी उनकी गहरी पहुंच थी। वास्तव में उनका अध्ययन बड़ा व्यापक तथा सार्वजनीन था। लोकजीवन तथा लोक-साहित्य के गवेषणापूर्ण अध्ययन की दृष्टि से भी चूणियों का अप्रतिम महत्त्व है। प्रागम-ग्रन्थों के अतिरिक्त तत्सम्बद्ध साहित्य के इतर ग्रन्थों पर भी चूर्णियां लिखे जाने का क्रम रहा। उदाहरणार्थ, कर्म-ग्रन्थ, श्रावक-प्रतिक्रमण जैसे ग्रन्थों पर भी चर्णियां रची गयीं। टीकाएं अभिप्रत __ अागम ही जैन संस्कृति, धर्म, दर्शन, प्राचार-विचार; संक्षेप में समग्र जैन जीवन के मूल आधार हैं; अतः उनके प्राशय को स्पष्ट, स्पष्टतर और सुबोध्य बनाने की अोर जैन आचार्यों तथा मनीषियों का प्रारम्भ से ही प्रयत्न रहा है। फलतः जहाँ एक ओर नियुक्तियों, भाष्यों और चणियों का सर्जन हमा, दूसरी ओर टीकाओं की रचना का क्रम भी गतिशील रहा। नियुक्तियों व भाष्यों की रचना प्राकृतगाथाओं में हुई तथा चूर्णियां प्राकृत-संस्कृत-गद्य में लिखी गयीं, वहां टीकाएं प्रायः संस्कृत में रचित हुई। शब्द-सर्जन की उर्वरता, व्योत्पत्तिक विश्लेषण की विशदता तथा अभिव्यंजना की असाधारण क्षमता आदि संस्कृत की कुछ असामान्य विशेषताएं हैं, जिन्होंने जैन तथा बौद्ध लेखकों को विशेष रूप से आकृष्ट किया । फलतः उत्तरवर्ती काल में जैन तथा बौद्ध सिद्धान्त जब विद्वद्गम्य, प्रांजल तथा प्रौढ़ स्तर एवं दार्शनिक पृष्ठ-भूमि पर अभिव्यक्त व प्रतिष्ठित किये जाने लगे, तब उनका भाषात्मक परिवेश अधिकांशतः संस्कृत-निबद्ध रहा। जैन वाङमय में प्राचार्य सिद्धसेन के सन्मति-तर्क प्रकरण के अतिरिक्त प्रायः प्रमाणशास्त्रीय ग्रन्थ संस्कृत में रचे गये । यही सब हेतु थे कि Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागमों पर व्याख्या-साहित्य १९१ जैन दार्शनिक-काल के पूर्व से ही विद्वान् प्राचार्यों ने आगमों की टीकाओं की भाषा के रूप में संस्कृत को स्वीकार किया। अहंदवाणी की संवाहिका होने के कारण प्राकृत के प्रति जो श्रद्धा थी, उसका इतना प्रभाव तो टीका-साहित्य में अवश्य पाया जाता है कि कहीं-कहीं कथाएं मल प्राकत में ही उद्ध त की गयी हैं। कुछ टीकाएं प्राकृत निबद्ध भी हैं, पर, बहुत कम । टीकाएं : पुरावर्ती परम्परा ___ नियुक्तियां, भाष्य, चूणियां एवं टीकाए” व्याख्या-साहित्य के क्रमिक विकास के रूप में नहीं हैं, बल्कि सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि इनका सर्जन स्वतन्त्र और निरपेक्ष रूप से अपना दृष्टिकोण लिये चलता रहा है। वालभी वाचना के पूर्व टीकाओं के रचे जाने का क्रम चालू था। दशवैकालिक चूर्णि के लेखक स्थविर अगस्त्यसिंह, जिनका समय विक्रम के ततीय शतक के आसपास था, अपनी रचना में कई स्थानों पर प्राचीन टीकात्रों के सम्बन्ध में इगित किया है। हिमवत् थेरावली में उल्लेख हिमवत् थेरावली में किये गये उल्लेख के अनुसार आर्य मधुमित्र के अन्तेवासी तथा तत्त्वार्थ महाभाष्य के रचयिता आर्य गन्धहस्ती ने आर्य स्कन्दिल के अनुरोध पर द्वादशांग पर विवरण लिखा, जो आज अप्राप्य है। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार आचारांग का विवरण सम्भवतः विक्रम के दो शतक बाद लिखा गया। विवरण वस्तुतः संस्कृत-टीका का ही एक रूप है। इस प्रकार टीकाओं की रचना का क्रम एक प्रकार से बहुत पहले ही चालू हो चुका था। प्रमुख टीकाकार प्राचार्य हरिभद्रसूरि जैन जगत् के महान विद्वान्, अध्यात्म योगी आचार्य हरिभद्रसूरि का आगम-टीकाकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका समय Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैनागम दिग्दर्शन पाठवीं ई. शती माना जाता है। उन्होंने प्रावश्यक, दशवकालिक, नन्दी, अनुयोग-द्वार तथा प्रज्ञापना पर टीकाओं को रचना की। टोकाओं में उनकी विद्वत्ता तथा गहन अध्ययन का स्पष्ट दर्शन होता है। टीकाओं में कथा-भाग को उन्होंने प्रात में ही यथावत् उपस्थित किया। इस परम्परा का कतिपय उत्तरवर्ती टीकाकारों ने भी अनुसरण किया, जिनमें वादिवेताल आचार्य शान्तिसूरि, प्राचार्य मलयगिरि आदि मुख्य हैं। शोलांकाचार्य श्री शीलांकाचार्य ने द्वादशांग वाङमय के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मागम आचारांग तथा सूत्रकृतांग पर टीकाओं की रचना की। इनमें जैन-तत्व-ज्ञान तथा प्राचार-क्रम से सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित हुए हैं । श्री शोलांकाचार्य का समय लगभग नवम ईसवी शती माना जाता है। शांत्याचार्य एवं नेमिचन्द्राचार्य __ ईसा की ग्यारहवीं शती में वादिवेताल प्राचार्य शान्तिसूरि तथा प्राचार्य नेमिचन्द्रसूरि प्रमुख टीकाकार हुए। श्री शान्तिसूरि ने उत्तराध्ययन पर 'पाइय' या 'शिष्यहिता' संज्ञक टोका को रचना की। वह उत्तराध्ययन-बृहद्-वृत्ति के नाम से भी प्रसिद्ध है। श्री नेमिचन्द्रसूरि ने इसी टीका को मुख्य आधार बनाकर एक और टीका की रचना की, जिसे उन्होंने 'सुख-बोधा' संज्ञा दी। प्राचार्य शान्तिसूरि ने जहाँ प्राकृत-कथाओं को उद्ध त किया है, वहां ऐसा वृद्ध-सम्प्रदाय है, इस प्रकार वृद्धवाद है, अन्य इस प्रकार कहते हैं, इत्यादि महत्वपूर्ण सूचनाएं की हैं, जोअनुसन्धित्सुओं के लिए बड़ी उपयोगी हैं । इनसे अनुमेय है कि प्राचीनकाल से इन कथाओं की परम्परा चली आ रही थी। कथा-साहित्य के अनुशीलन की दृष्टि से इन कथाओं का महत्व है। 'पाइय' तथा 'सुख-बोधा' संज्ञक टीकाओं में कुछ कथाए तो इतनी विस्तृत हो गयी हैं कि उनकी पृथक स्वतन्त्र पुस्तक हो सकती है। ब्रह्मदत्त तथा अगडदत्त की कथाए इसी प्रकार की हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागमों पर व्याख्या-साहित्य १६३ प्राचार्य प्रमयदेव प्रभृति उत्तरवर्ती टीकाकार बारहवीं-तेरहवीं ई० शती में अनेक टीकाकार हुए, जिन्होंने टीकाओं के रूप में महत्वपूर्ण व्याख्या-साहित्य का सर्जन किया। आचार्य अभयदेवसूरि ने स्थानांग, समवायांग, व्याख्या-प्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण तथा विपाक श्र त; इन नौ अंग-ग्रन्थों पर विद्वत्तापूर्ण टीकायों की रचना की, जिनका जैन साहित्य में बड़ा समादत स्थान है। नौ अंगों पर टीकाए रचने के कारण ये 'नवांगी टीकाकार" के नाम से विश्रुत हैं। इनका समय बारहवीं ई० शताब्दी है। बारहवीं-तेरहवीं शती के टीकाकारों में श्री द्रोणाचार्य, मलधारी हेमचन्द्र, श्री मलयगिरि एवं श्री क्षेमकीर्ति आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सोलहवीं शती के अन्तिम भाग में हुए श्री पुण्यसागरोपाध्याय, श्री शान्तिचन्द्र भी विश्रुत टीकाकार थे। विशेषता : महत्त्व टीकाओं ने प्रागम गत निगूढ़ तत्वों की अभिव्यक्ति और विश्लेषण का तो महत्वपूर्ण कार्य किया ही, एक बहुत बड़ी साहित्यिक निधि भी प्रस्तुत की, जिसका असाधारण महत्व है। विद्वान् टीकाकारों ने मानव-जोवन के विभिन्न अंगों और पहलुओं का जो विवेचनविश्लेषण किया वह मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यिक, सामाजिक आदि अनेक पहलुगों का मार्मिक संस्पर्श लिए हुए है। यह विशाल वाङमय उत्तरवर्ती साहित्य के सर्जन में निःसंदेह बड़ा उपजीवक एवं प्रेरक रहा । फलतः जैन-वाङमय का स्रोत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश तथा अन्यान्य लोक-भाषाओं का मा यम लिये उत्तरोत्तर पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित होता गया। इतना ही नहीं, जैनेतर साहित्य की भी अनेक विधायें इससे प्रभावित तथा अनुप्राणित हुईं। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www. ainelibrary.org