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________________ पंतालीस मागम व्याख्या साहित्य उत्तराध्ययन सूत्र पर व्याख्यात्मक साहित्य विपुल परिमाण में विद्यमान है । प्राचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति लिखी। श्री जिनदास महत्तर ने चूणि की रचना की। थारापद्र-गच्छ से सम्बद्ध वादिवैताल विरुदालंकृत श्री शान्तिसूरि ने 'पाई' या 'शिष्यहिता' नामक टीका की रचना की, जो उत्तराध्ययन-बृहद-वृत्ति भी कहलाती है। श्री शान्तिसूरि का स्वर्गवास-काल ई० सन् १०४० माना जाता है। इस टीका के आधार पर, श्री देवेन्द्र गणी ने, जो आगे चल कर श्री नेमिचंद्र सूरि के नाम से विख्यात हुए, 'सुखबोधा' नामक टीका लिखी, जो सन् १०७३ में समाप्त हुई। उत्तराध्ययन पर टीकाएं लिखने वाले अनेक जैन विद्वान् हैं, जिनमें लक्ष्मीवल्लभ, जयकीर्ति, कमलसंयम, भावविजय, विनयहंस तथा हर्षकुल प्रादि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस पर कार्य किया है। उदाहरणार्थ प्रो० शन्टियर ने मूल पाठ अंग्रेजी प्रस्तावना सहित प्रस्तुत किया है। प्रागम-वाङमय के विख्यात अन्वेषक डा० जैकोबी ने अंग्रेजी में अनवाद किया, जो प्रो० मैक्समूलर के सम्पादकत्व में Sacred books of the East. के पैंतालीसवें भाग में प्राक्सफोर्ड से सन् १८६५ में प्रकाशित हुआ। २. प्रावस्सय (मावश्यक) नाम : सार्थकता ___ अवश्य से आवश्यक शब्द बना है । अवश्य का अर्थ है, जिसे किये बिना बचाव नहीं, जो जरूर किया जाना चाहिए। इसके अनुसार आवश्यक का आशय श्रमण द्वारा करणीय उन भाव-क्रियानुष्ठानों से है, जो श्रमण-जीवन के निर्बाध तथा शुद्ध निर्वहण की दृष्टि से पावश्यक वें है । क्रियानुष्ठान संख्या में छः हैं; अतः इस सूत्र को षडावश्यक भी कहा जाता है। यह छः विभागों में विभक्त है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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