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जैनागम दिग्दर्शन
दष्टान्त : कथानक
दूसरा महत्वपूर्ण अंग है, इसका रूपक, दृष्टान्त व कथानकभाग । इनके माध्यम से तत्त्व-ज्ञान और प्राचार-धर्म का विशद विवेचन हुअा है, जिसका अनेक दृष्टियों से बड़ा महत्व है। पच्चीसवां अध्ययन इसका उदाहरण है, जहां अध्यात्म-यज्ञ, उसके अंगोंपांगों एवं उपकरणों का हृदयस्पर्शी विवेचन है। इस प्रकार के अनेक प्रकरण हैं, जहां उपमाओं तथा रूपकों का ऐसा सुन्दर और सहज सन्निवेश है कि विवेच्य विषय साक्षात् उपस्थित हो जाता है । नवम अध्ययन में इन्द्र
और राजर्षि नमि का प्रकरण अनासक्त तितिक्षु एवं मुमुक्षु जीवन का एक सजीव तथा असाधारण चित्र प्रस्तुत करता है। बारहवां हरिकेशीय अध्ययन उत्तराध्ययन का एक क्रान्तिकारी अध्याय है, जहां चाण्डाल-कुलोत्पन्न मुनि हरिकेशबल के तपः-प्रभाव और साधनानिरत जीवन की गरिमा इतनी उत्कृष्टतया उपस्थित है कि, जाति, कूल प्रादि का मद, दम्भ और अहंकार स्वयमेव निस्तेज तथा निस्तथ्य हो जाते हैं।
बाईसवां रथनेमीय अध्ययन प्रात्म-पराक्रम, ब्रह्म-प्रोज जागृत करने की पूरकता के साथ-साथ अनेक दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। तीर्थंकर अरिष्टनेमि की जीवन झांकी, उनके द्वारा लौकिक एषणा और कामना का परित्याग, श्रमण रथनेमि का अन्तदौंबल्य, वासना का उभार, राजीमती द्वारा उद्बोधन प्रभृति ऐसे रोमांचक प्रसंग हैं, जिनकी भावना और प्रज्ञा; दोनों के प्रकर्ष की दृष्टि से कम गरिमा नहीं है।
तेईसवां केशि-गौतमीय अध्ययन है, जो भगवान् पार्श्व की परम्परा के श्रमण महामुनि केशी तथा भगवान् महावीर के अनन्य अन्तेवासी गणधर गौतम के परस्पर मिलन, प्रश्नोत्तर--संवाद आदि बहुमूल्य सामग्री लिये हुए है। तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्व की परम्परा चौवीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर की परम्परा में किस प्रकार समन्वित रूप में विलीन होती जा रही थी, प्रस्तुत अध्ययन इसका ज्वलन्त साक्ष्य है। चातुर्याम धर्म अोर पंच महाव्रतों के तुलनात्मक परिशीलन की दृष्टि से भी यह अध्ययन पठनीय है ।
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