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"प तालीस पागम
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रचना की हो, ऐसा कम सम्भव प्रतीत होता है । कारण स्पष्ट है, यहां सर्वत्र एक जैसी भाषा का प्रयोग नहीं हुअा है। अर्द्धमागधी प्राकृत का जहां अत्यन्त प्राचीन रूप इसमें सुरक्षित है, वहां यत्र-तत्र भाषा के अर्वाचीन रूपात्मक प्रयोग भी दृष्टिगोचर होते हैं । इससे यह अनुमान करना सहज हो जाता है कि इस पागम की रचना एक ही समय में नहीं हई । ऐसा प्रतीत होता है कि समय-समय पर इसमें कुछ जुड़ता रहा है। इस प्रकार संकलित होता हुआ यह एक परिपूर्ण अागम के रूप में अस्तित्व में आता है । पर, ऐसा कब-कब हुग्रा, किन-किन के द्वारा हया, इस विषय में अभी कोई भी अकाट्य प्रमाण उपस्थित नहीं किया जा सकता । सार रूप में इस प्रकार कहना युक्तियुक्त लगता है कि इसकी रचना में अनेक तत्त्व-ज्ञानियों और महापुरुषों का योगदान है, जो सम्भवतः किसी एक ही काल के नहीं थे। विषय-वस्तु
जीवन की आवश्यकता, दुष्ट कर्मों के दूषित परिणाम, अज्ञानी का ध्येय-शून्य जीवन, भोगासक्ति का कलुषित विपाक, भोगीकी बकरे के साथ तुलना, अधम गति में जाने वाले जीव के विशिष्ट लक्षण, मानव-जीवन की दुर्लभता, धर्म-श्रुति,श्रद्धा, संयमोन्मुखता का महत्व, गही साधक की योग्यता, संयम का स्वरूप, सदाचार-सम्पन्न व्यक्ति की गति, देव-गति के सुख, ज्ञानी एवं अज्ञानी के लक्षण, ज्ञान का सुन्दर परिणाम, जातिवाद की हेयता, जातिवाद का दुष्परिणाम, आदर्श भिक्षु, ब्रह्मचर्य समाधि के स्थान, पापी श्रमण, श्रमण-जीवन को दूषित करने वाले सूक्ष्म दोष, पाठ प्रकार की प्रवचन-माताएँ, सच्चा यज्ञ, याजक, यज्ञाग्नि आदि का स्वरूप, साधना-निरत भिक्षु की दिनचर्या, सम्यक्त्व-पराक्रम का स्वरूप, आत्म-विकास का पथ, तपश्चर्या के भिन्नभिन्न प्रयोग, चरण-विधि-ग्राह्य, परिहेय, उपेक्ष्य प्रादि का विवेक, प्रमाद-स्थान-तृष्णा, मोह, क्रोध, राग, द्वेष, आदि का मूल, कर्मविस्तार, लेश्या, अनासक्तता, लोक पदार्थ, निष्फल मृत्यु, सफल मृत्यु प्रभृति अनेक विषयों का विभिन्न अध्ययनों में बड़ा मार्मिक एवं तलस्पर्शी व्याख्यान-विश्लेषण हुआ है ।
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