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________________ जैनागम दिग्दर्शन जिसमें क्रमशः सामायिक, चतुर्विंशति-स्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान का वर्णन है। सामायिक अन्तरतम में समभाव की अवतारणा सामायिक है। एतदर्थ साधक मानसिक, वाचिक तथा कायिक दृष्टि से, कृत, कारित एवं अनुमोदित रूप से समग्र सावद्य-सपाप योगों-प्रवृत्तियों से पराङ मुख रहने का प्रथम आवश्यक में वर्णन है। चतुविंशति-स्तव द्वितीय आवश्यक में लोक में धर्म का उद्योत करने वाले चौवीस तीर्थंकरों का वर्णन है, जिससे आत्मा में तदनुरूप दिव्य भाव का उद्रेक होता है। वन्दन तीसरा आवश्यक वन्दन से सम्बद्ध है। शिष्य गुरु-चरणों में 'स्थित होता है, उनसे क्षमा याचना करता है, उनके संयमोपकरणभूत देह की सुख-पृच्छा करता है। प्रतिक्रमण ____ चौथे आवश्यक में प्रतिक्रमण का विवेचन है। प्रतिक्रमण का अर्थ बहिर्गामी जीवन से अन्तर्गामी जीवन में प्रत्यावृत्त होना है अर्थात् साधक यदि प्रमादवश शुभ योग से चलित होकर अशुभ योग को प्राप्त हो जाए, तो वह पुनः शुभ योग में संस्थित होता है। यदि उसके द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में श्रमण-धर्म की विराधना हुई हो, किसी को कष्ट पहुँचाया गया हो, स्वाध्याय आदि में प्रमादाचरण हुअा हो, तो वह . (प्रतिक्रमण करने वाला साधक) उनके लिये 'मिच्छामि दुक्कड़ -मिथ्या मे दुष्कृतम्-ऐसी भावना से उद्भावित होता है, जिसका अभिप्राय जीवन को संयमानुकूल, पवित्र और सात्विक भावना से प्राप्यायित बनाये रखना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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