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पैतालीस भागम
कायोत्सर्ग
पांचवाँ प्रावश्यक कायोत्सर्ग से सम्बद्ध है। कायोत्सर्ग का आशय है-देह-भाव का विसर्जन और आत्म-भाव का सर्जन। यह ध्यानात्मक स्थिति है, जिसमें साधक दैहिक चांचल्य और अस्थैर्य का वर्जन कर निश्चलता में स्थित रहना चाहता है। प्रत्याख्यान
छठे आवश्यक में सावद्य-सपाप कार्यों से निवृत्तता तथा प्रशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि के प्रत्याख्यान की चर्चा है । व्याख्या-साहित्य
आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक पर नियुक्ति की रचना की। इस पर भाष्य भी रचा गया। आचार्य जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण द्वारा अत्यन्त विस्तार और गम्भीरता के साथ "विशेषावश्यक भाष्य" की रचना की गयी, जो जैन साहित्य में निःसन्देह एक अद्भुत कृति है। श्री जिनदास महत्तर ने चूणि की रचना की। प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने इस पर टीका लिखी, जो 'शिष्यहिता के नाम से विश्रुत है। इसमें आवश्यक के छः प्रकरणों का पैंतीस अध्ययनों में सूक्ष्मतया विवेचन-विश्लेषण किया गया है। वहां प्रासंगिक रूप में प्राकृत की अनेक प्राचीन कथाएं भी दी गयी हैं। प्राचार्य मलयगिरि ने भी टीका की रचना की। श्री माणिक्यशेखरसूरि द्वारा इसकी नियुक्ति पर दीपिका की रचना की गयी। श्री तिलकाचार्य द्वारा इस पर लघुवृत्ति की रचना हुई।
३. दसवेयालिय (दशवकालिक) नाम : अन्वर्थकता
दश और वैकालिक; इन दो शब्दों के योग से नाम की निष्पत्ति हुई है। सामान्यतः दश शब्द दश अध्ययनों का सूचक है और वैकालिक का सम्बन्ध रचना, नि_हण या उपदेश से है । विकाल का अर्थ सन्ध्या है। वैकालिक विकाल का विश्लेषण है। ऐसा माना जाता
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