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________________ १४० जैनागमा: विग्दर्शन है कि सन्ध्या समय में अध्ययन किये जाने के कारण यह नाम प्रचलित हुआ। ऐसी भी मान्यता है कि दश विकालों या सन्ध्याओं में रचना, निर्यू हण या उपदेश किया गया । अतः यह दर्शवेकालिक कहा जाने लगा । इसके रचनाकार या नियू हक प्राचार्य शय्यम्भव थे, जिन्होंने अपने पुत्र बाल मुनि मनक के लिए इसकी रचना की। अंगबाह्यगत उत्कालिक सूत्रों में दशवैकालिक का प्रथम स्थान है । दश अध्ययनों तथा दो चूलिकाओं में यह सूत्र विभक्त है । दश अध्ययन संकलनात्मक हैं । चूलिकाएं स्वतन्त्र रचना प्रतीत होती हैं । चूलिकाओं के रचे जाने के सम्बन्ध में दो प्रकार के विचार हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार वे प्राचार्य शय्यम्भव कृत ही होनी चाहिए । इतना सम्भावित हो सकता है, चूलिकाओं की रचना दश अध्ययनों के पश्चात् हुई हो । सूत्र और चूलिकाओं की भाषा इतनी विसदृश नहीं है कि उससे दो भिन्न रचयिताओं का सूचन हो । कुछ विद्वान् इस मत को स्वीकार नहीं करते । उनके अनुसार चूलिकाएँ किसी अन्य लेखक की रचनाएँ हैं, जो दश अध्ययनों के साथ जोड़ दी गयीं । संकलन : प्राधार : पूर्व श्रुत आचार्य भद्रबाहु द्वारा नियुक्ति में किये गये उल्लेख के अनुसार दशकालिक के चतुर्थ अध्ययन का आधार आत्म-प्रवाद- पूर्व, पंचम अध्ययन का आधार प्रात्म-प्रवाद पूर्व, सप्तम अध्ययन का आधार सत्यप्रवाद - पूर्वं तथा अन्य अध्ययनों का आधार प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु है । दूसरा श्राधार : अन्य श्रागम श्रुतकेवली प्राचार्य शय्यम्भव ने अनेकानेक आगमों का दोहन कर सार रूप में दशवैकालिक को संग्रथित किया । दशवैकालिक में वर्णित विषयों का यदि सूक्ष्मता से परीक्षण किया जाए, तो प्रतीत होगा कि, वे विविध प्रागम-ग्रन्थों से बहुत निकटतया संलग्न हैं । दशबैकालिक के दूसरे अध्ययन का शीर्षक ' श्रामण्यपूर्वक' है । उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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