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आमम विचार
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से । आर्य वज्र तक प्रागमों में अनुयोगात्मक दृष्टि से पृथक्ता नहीं थी। प्रत्येक सूत्र चारों अनुयोगों द्वारा व्याख्यात होता था । आवश्यक नियुक्ति में इस सम्बन्ध में उल्लेख है : 'कालिक श्रु त (अनुयोगात्मक) व्याख्या की दृष्टि से अपृथक् थे अर्थात् उनमें चरणकरणानुयोग प्रभृति अनुयोग चतुष्टय के रूप में अविभक्तता थी। आर्य वज्र के अनन्तर कालिक श्रत और दृष्टिवाद की अनुयोगात्मक पृथक्ता (विभक्त्रता) की गयी।"
आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में सूचित किया है : "तब तक साधु तीक्ष्णप्रज्ञ थे; अतः अनुयोगात्मक दृष्ट्या अविभक्तरूपेण व्याख्या का प्रचलन था-प्रत्येक सूत्र में चरणकरणानुयोग आदि का अविभागपूर्वक वर्तन था।"
नियुक्ति में जो केवल कालिक श्रु त का उल्लेख किया गया है, प्राचार्य मलयगिरि ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है : "मुख्यता की दृष्टि से यहां कालिक श्रु त का ग्रहण है, अन्यथा अनुयोगों का तो कालिक, उत्कालिक आदि में सर्वत्र अविभाग था ही।"
विशेषावश्यक भाष्य में इस सम्बन्ध में विश्लेषण करते हुए कहा गया है : 'आर्य वज्र तक जब अनुयोग अपृथक् थे, तब एक ही सूत्र की चारों अनुयोगों के रूप में व्याख्या होती थी।"
अनुयोग विभक्त कर दिए जाएं, उनकी पृथक्करण कर छंटनी कर दी जाए, तो वहां (उस सूत्र में) वे चारों अनुयोग व्यवछिन्न नहीं हो जाएंगे? भाष्यकार समाधान देते हैं कि “जहां किसी एक सूत्र की १. जावंत प्रज्ज वइरा अपहुत्तं कालिप्राणुप्रोगस्स । तेरणारेण पुहुत्तं कालिम सुम दिट्ठिवायं य ।।
-प्रावश्यक नियुक्ति - ७६३ २. यावदार्यवज्रा-पार्ववनस्वामिनो मुखो महामतयस्तावत्कालिकानुयोगस्य
कालिकश्रुतव्याख्यानस्यापृथक्त्वं-प्रतिसूत्रं चरणकरणानुयोगादीनामविभागेन वर्तमासीत्, तदा साधूनां तीक्ष्णप्रज्ञत्वात् । कालिकग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा सर्वानुयोगस्यापृथक्त्वमासीत् ।
-प्रावश्यक नियुक्ति : पृ० ३८३, प्रका० प्रागमोदय समिति,
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