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पैंतालीस भागम
८. गणि-विज्जा (गणि-विद्या) आपाततः प्रतीत होता है, इस प्रकीर्णक के नाम में आया हुआ 'गणि' शब्द गण के अधिपति या प्राचार्य के अर्थ में है; क्योंकि प्राकृत में सामान्यतः गणि शब्द का प्रचलित अर्थ ऐसा ही है। संस्कृत में भी 'गणिन्' शब्द इसी अर्थ में है। समास में न का लोप होकर केवल गणि रह जाता है। वास्तव में इस प्रकीर्णक के नाम में पूर्वार्द्ध में जो गणि शब्द है, वह गण-नायक के अर्थ में नहीं है। गणि शब्द की एक अन्य निष्पत्ति भी है। 'गण' धातु के इन् प्रत्यय लगाकर गणना के अर्थ में 'गणि' शब्द बनाया जाता है। यहां उसी का अभिप्रेत है; क्योंकि प्रस्तुत प्रकीर्णक में गणना सम्बन्धी विषय वर्णित है। यह बयासी गाथाओं में विभक्त है। इसमें तिथि, वार, करण, मुहूर्त, शकुन, लग्न, नक्षत्र, निमित्त आदि ज्योतिष-सम्बन्धी विषयों का विवेचन है । घण्टे के अर्थ में यहां होरा शब्द का प्रयोग हआ है।
६. देविद-थय (देवेन्द्र-स्तव) एक श्रावक चौवीस तीर्थंकरों को वन्दन करता हुआ भगवान् महावीर की स्तवना करता है। श्रावक की गृहिणी उस समय अपने पति से इन्द्र आदि के विषय में जिज्ञासा करती है। वह श्रावक कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत देवताओं आदि का वर्णन करता है । यही सब इस प्रकीर्णक का वर्ण्य विषय है।
पिछले कई प्रकीर्णकों की तरह इस प्रकीर्णक के रचनाकार भी श्री वीरभद्र कहे जाते हैं । इसमें तीन सौ सात गाथाएं समाविष्ट हैं।
१०. मरण-समाही (मरण-समाधि) मरण, जिसका कभी-न-कभी सबको सामना करना पड़ता है, जिससे सभी सदा भयाक्रान्त रहते हैं, जिसके स्मरण मात्र से देह में एक सिहरन-सी दौड़ जाती है, को परम सुखमय बनाने हेतु जैन दर्शन ने गम्भीर और सूक्ष्म चिन्तन किया है तथा उनके लिए एक प्रशस्त मार्ग-दर्शन दिया है ताकि मृत्यु मानव के लिए भीति के स्थान पर महोत्सव बन जाए। समाधि-मरण उसी का उपक्रम है।
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