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बैनागम दिग्दर्शन
गच्छ के नायक या प्राचार्य के वर्णन प्रसंग में एक स्थान पर उल्लेख है कि जो प्राचार्य स्वयं प्राचार-भ्रष्ट हैं, भ्रष्टाचारियों का नियंत्रण नहीं करते अर्थात् प्राचार भ्रष्टता की उपेक्षा करते हैं, स्वयं उन्मार्गगामी हैं, वे मार्ग और गच्छ का नाश करने वाले हैं । ज्यायान् एवं कनीयान् साधुओं के पारस्परिक वैयावृत्य, विनय, सेवा, आदर, सद्भाव आदि का भी इस ग्रन्थ में विवेचन किया गया है।
ब्रह्मचर्य-पालन में सदा जागरूक रहने की ओर श्रमणवृन्द को प्रेरित किया गया है। बताया गया है कि वय से वृद्ध होने पर भी श्रमण श्रमणियों के साथ वार्तालाप में संलग्न नहीं होते। श्रमणियों का संसर्ग श्रमणों के लिए विष-तुल्य है।
विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया गया है कि हो सकता है, हढ़चेता स्थविर के चित्त में स्थिरता-दृढ़ता हो, पर, जिस प्रकार घृत अग्नि के समीप रहने पर द्रवित हो जाता है, उसी प्रकार स्थविर के संसर्ग से साध्वी का चित्त द्रवित हो जाये, उसमें दुर्बलता उभर आये। वैसी स्थिति में, जैसा कि प्राशंकित है, यदि स्थविर अपना धैर्य खो बैठे, तो वह ठीक वैसी दशा में आपतित हो जाता है, जैसे कफ में प्रालिप्त मक्षिका । अन्ततः यहां तक कहा गया है कि श्रमण को बाला, वृद्धा, बहिन, पुत्री और दोहित्री तक की निकटता नहीं होने देनी चाहिए। व्याख्या-साहित्य
श्री आनन्द विमलसूरि के शिष्य श्री विजयविमल गणी ने गच्छाचार पर टीका की रचना की। टीकाकार ने एक प्रसंग में उल्लेख किया है कि वराहमिहिर आचार्य भद्रबाहु के भाई थे। इस सम्बन्ध में प्राचार्य भद्रबाहु के इतिवृत्त के सन्दर्भ में चर्चा की जा चुकी है, यह इतिहास-सम्मत तथ्य नहीं है । इतिहास पर प्रामाणिकता, गवेषणा तथा समीक्षा की दृष्टि से ध्यान न दिये जा सकने के कारण इस तरह के अप्रामाणिक उल्लेखों का प्रचलन रहा हो, ऐसा सम्भावित लगता है । टीकाकार ने यह भी चर्चा की है कि वराहमिहिर ने चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्य-प्रज्ञप्ति प्रादि शास्त्रों का अध्ययन करके वराही-संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की।
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