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________________ पैतालीस प्रागम श्रमण मोक्ष-सुख की अनुभूति करता है। इस प्रकीर्णक में ऐसे अनेक मुनियों के कथानक दिये गये हैं, जिन्होंने संस्तारक पर आसीन होकर पण्डित-मरण प्राप्त किया। श्री गणरत्न ने इस पर प्रवचुरि की रचना की। ७. गच्छायार (गच्छाचार) गच्छ एक परम्परा या एक व्यवस्था में रहने वाले या चलने वाले समुदाय का सूचक है, जो प्राचार्य द्वारा अनुशासित होता है। जब अनेक व्यक्ति एक साथ सामुदायिक या सामूहिक जीवन जीते है, तो कुछ ऐसे नियम, परम्पराएँ, व्यवस्थाएं मानकर चलना पड़ता है, जिससे सामूहिक जीवन समीचीनता, स्वस्थता तथा शान्ति से चलता जाए। श्रमण-संघ के लिए भी यही बात है। एक संघ या गच्छ में रहने वाले साधु-साध्वियों को कुछ विशेष परम्पराओं तथा मर्यादाओं को लेकर चलना होता है, जिनका सम्बन्ध साध्वाचार, अनुशासन, पारस्परिक सहयोग, सेवा और सौमनस्यपूर्ण व्यवहार से है । सामष्टिक रूप में वही सब सम्प्रदाय, गण या गच्छ का प्राचार कहा जाता है । आधुनिक भाषा में उसे संघीय आचार-संहिता के नाम से अभिहित किया जा सकता है। प्रस्तुत प्रकीर्णक में इन्हीं सब पहलुओं का वर्णन है। प्रकीर्णक में कुल एक सौ सैंतीस गाथाएं हैं, जिनमें कतिपय अनुष्टुभ् छन्द में रचित हैं तथा कतिपय आर्या छन्द में । महानिशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार आदि छेद-सूत्रों का वर्णन पहले किया गया है, जिनमें साधु-साध्वियों के आचार, उनके द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में सेवित दोष, तदर्थ प्रायश्चित्त-विधान आदि से सम्बद्ध विषय वणित हैं। कहा जाता है, इन ग्रन्थों से यथापेक्ष सामग्री संचीर्ण कर एक गच्छ में रहने वाले साधु-साध्वियों के हित की दृष्टि से इस प्रकीर्णक की रचना की गयी। इसमें गच्छ, गच्छ के साधु, साध्वी, प्राचार्य, उन सब के पारस्परिक व्यवहार, नियमन आदि का विशद विवेचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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