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जैनागम दिग्दर्शन
सम्भवतः यही आशय रहा हो कि मानव काम से-कामिनी से इतना भयाक्रान्त हो जाए कि उसका और उसका आकर्षण ही मिट जाए। अस्तु, यह एक प्रकार तो है, पर, सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसकी उपादेयता सन्दिग्ध एवं विवादास्पद है।
प्रस्तुत प्रकीर्णक पर एक वृत्ति की रचना हुई, जिसके लेखक श्रीविजय-विमल हैं।
६. संथारग (संस्तारक) जो भूमि पर संस्तीर्ण या आस्तीणं किया जाए-बिछाया जाए, वह संस्तार या संस्तारक कहा जाता है। जैन परम्परा में इसका एक पारिभाषिक अर्थ है । जो पर्यन्त-क्रिया करने को उद्यत होते हैं, आत्मोन्मुख होते हुए अनशन द्वारा देह-त्याग करना चाहते हैं, वे भूमि पर दर्भ आदि से संस्तार-संस्तारक अर्थात् बिछौना तैयार करते हैं, उस पर लेटते हैं। उस संस्तारक पर देह-त्याग करते हुए जीवन का वह साध्य साधने में सफल होते हैं, जिसके लिए वे यावज्जीवन साधना-निरत तथा यत्नवान् रहे । उस बिछौने पर स्थित होते हए वे संसार-सागर को तैर जाते हैं; अतः संस्तारक का अर्थ संसार-सागर को तैरा देने वाला, उसके पार लगाने वाला करें, तो भी असंगत नहीं लगता। प्रकीर्णक में अन्तिम समय में प्रात्माराधना-निरत साधक द्वारा संयोजित इस प्रक्रिया का विवेचन है। .. एक सौ तेईस गाथाओं में यह प्रकीर्णक विभक्त है। इसमें संस्तारक की प्रशस्तता का बड़े सुन्दर शब्दों में वर्णन किया गया है। कहा गया है कि जिस प्रकार मणियों में वैर्य मणि, सुरभिमय पदार्थों में गोशीर्ष चन्दन तथा रत्नों में हीरा उत्तम है, उसी प्रकार साधनाक्रमों में संस्तारक परम श्रेष्ठ है। और भी बड़े उद्बोधक शब्दों में कहा गया है कि तणों का संस्तारक बिछा कर उस पर स्थित हुआ
१. संस्तीर्यते भूपीठे शयालुभिरिति संस्तारः स एव संस्तारकः । पर्यन्तक्रियां कुर्वद्भिर्द दिविरस्तरणे, तत्क्रियाप्रतिपादन-रूपे प्रकीर्णकअन्वे।
-अभिधान राजेन्द्र; सप्तम भाग, पृ० १६५
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