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पंतालीस आगम
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के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं। उनसे अधिगत होता है कि परिकर्म के अन्तर्गत लिपि-विज्ञान और गणित का विवेचन था। सूत्र के अन्तर्गत छिन्नछेदनय, अछिन्नछेदनय तथा चतुर्नय आदि विमर्श-परिपाटियों का विश्लेषण था। छिन्नछेदनय व चतुर्नय की परिपाटियां निर्ग्रन्थों द्वारा तथा प्रच्छिन्नछेदनयात्मक परिपाटी आजीवकों द्वारा व्यहृत थी। आगे चल कर इन सब का समावेश जैन नयवाद में हो गया। अनुयोग का तात्पर्य
दृष्टिवाद का चतुर्थ भेद अनुयोग है, उसे प्रथमानुयोग तथा गण्डिकानुयोग' के रूप में दो भागों में बांटा गया है। प्रथम में अर्हतों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान आदि से सम्बद्ध इतिवृत्त का समावेश है, जब कि दूसरे में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि महापुरुषों के चरित का। जिस प्रकार के विषयों के निरूपण की चर्चा है, उससे अनुयोग को प्राचीन जैन पुराण की संज्ञा दी जा सकती है। दिगम्बरपरम्परा में इसका सामान्य नाम प्रथमानुयोग ही प्राप्त होता है।
दृष्टिवाद के पंचम भेद चूलिका के सम्बन्ध में कहा गया हैचूला (चूलिका) का अर्थ शिखर है। जिस प्रकार मेरु पर्वत की चूलाएं (चूलिकाए) या शिखर हैं, उसी प्रकार दृष्टिवाद के अन्तर्गत परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में उक्त और अनुक्त; दोनों प्रकार के अर्थों-विवेचनों की संग्राहिका, ग्रन्थ-पद्धतियां चूलिकायें हैं। चूर्णिकार ने बतलाया है कि दृष्टिवाद में परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में जो अभणित या अव्याख्यात है, उसे चूलिकाओं में व्याख्यात किया गया है। प्रारम्भ के चार पूर्वो की जो चूलिकायें हैं, उन्हीं का यहां अभिप्राय है । दिगम्बर-परम्परा में ऐसा नहीं माना १. इहैकवक्तव्यताधिकारानुगता वाक्यपद्धतयो गण्डिका उच्यन्ते । तासामनुयोगोऽर्थकथनविधिगंण्डिकानुयोगाः।
-अभिधानराजेन्द्र; तृतीय भाग, पृ० ७६१. २. (१) उत्पाद, (२) अग्रायणीय, (३) वीर्यप्रवाद, (४) अस्ति
नास्ति-प्रवाद । ३. अथ काश्ताश्चूला: ? इह चूला शिखरमुच्यते । यथा मेरी चूलाः, तत्र
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