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जैनागम दिग्दर्शन
जाता। वहां चूलिका के पांच भेद बतलाये गये हैं : १. जलगत, २. स्थलगत, ३. मायागत, ४. रूपगत तथा ५. आकाशगत । ऐसा अनुमेय है कि इन चूलिका-भेदों के विषय में सम्भवतः इन्द्रजाल तथा मन्त्र तन्त्रात्मक आदि थे, जो जैन धर्म की तात्त्विक (दार्शनिक) तथा समीक्षा - प्रधान दृष्टि के आगे अधिक समय तक टिक नहीं सके; क्योंकि इनकी अध्यात्म - उत्कर्ष से संगति नहीं थी ।
द्वादश उपांग
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उपांग
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प्राचीन परम्परा से श्रुत का विभाजन श्रंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में चला आ रहा है । नन्दी सूत्र में अंग बाह्य का कालिक और उत्कालिक सूत्रों के रूप में विवेचन हुआ है। जो सूत्र ग्रन्थ आज उपांगों में अन्तर्गभित हैं, उनका उनमें समावेश हो जाता है । -ग्रन्थों के समकक्ष उतनी ही (बारह) संख्या में उपांग ग्रन्थों का निर्धारण हुआ । उसके पीछे क्या स्थितियां रही, कुछ भी स्पष्ट नहीं है । प्रागम पुरुष की कल्पना की गई। जहां उसके प्रांग स्थानीय . शास्त्रों की परिकल्पना और अंग सूत्रों की तत्स्थानिक प्रतिष्ठापना हुई, वहां उपांग भी कल्पित किये गये । इससे अधिक सम्भवतः कोई तथ्य, जो ऐतिहासिकता की कोटि में आता हो, प्राप्त नहीं है । आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थ भाष्य में उपांग शब्द व्यवहृत हुआ है ।
अग : उपांग : असादृश्य
ग गणधर रचित हैं । उनके अपने विषय हैं । उपांग स्थविररचित हैं । उनके अपने विषय हैं । विषय-वस्तु विवेचन आदि की
[ पूर्व पृष्ठ का शेष ]
चूला इव वूला दृष्टिवादे परिकर्म्मसूत्र पूर्वानुयोगोक्तानुक्तार्थसंग्रहपरा ग्रन्थपद्धतयः । तथा चाह चूरिणकृत् - दिट्ठिवाए जं परिकम्मसुत्त पुव्वा गुजोगे चूलि न भरिणयं तं चूलासु भरिणयं ति । अत्र सूरिराह-चूला प्रादिमानां
चतुर्णां पूर्वारणा, शेषारिण पूर्वाण्यचूलिकानि, ता एव चूला...........
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- श्रभिधान राजेन्द्र चतुर्थ भाग, पृ० २५१५
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