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'पैतालीस प्रागम
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दृष्टि से वे परस्पर प्रायः असहश या भिन्न हैं। उदाहरणार्थ, पहला उपांग पहले अंग से विषय, विश्लेषण, प्रस्तुतीकरण आदि की दृष्टि से सम्बद्ध होना चाहिये, पर, वैसा नहीं है। यही लगभग सभी उपांगों के सम्बन्ध में कहा जा सकता है। यदि यथार्थ संगति जोड़ें तो. उपांग अंगो के पूरक होने चाहिये, जो नहीं हैं। फिर इस नाम की प्रतिष्ठापना कैसे हुई, कोई व्यक्त समाधान दृष्टिगत नहीं होता। . वेदों के अंग .. भारत के प्राचीन वाङ्मय में वेदों का महत्वपूर्ण स्थान है। वेदों के अर्थ को समझने के लिये, वहां वेदांगों की कल्पना की गयी, जो शिक्षा (वैदिक संहिताओं के शुद्ध उच्चारण तथा स्वर-संचार के नियम-ग्रन्थ), व्याकरण, छन्दः शास्त्र, निरुक्त (व्युत्पत्ति-शास्त्र), ज्योतिष तथा कल्प (यज्ञादि-प्रयोगों के उपपादन-ग्रन्थ) के नाम से प्रसिद्ध हैं । इनके सम्यग् अध्ययन के बिना वेदों को यथावत् समझना तथा याज्ञिक रूप में उनका क्रियान्वयन सम्भव नहीं हो सकता; अतः उनका अध्ययन आवश्यक माना गया । वेदों के उपांग
वेदार्थ की और अधिक स्पष्टता तथा जन-ग्राह्यता साधने के हेतु उपर्युक्त वेदांगों के अतिरिक्त वेदों के चार उपांगों की कल्पना की गयी, जिनमें पुराण, न्याय,मीमांसा तथा धर्मशास्त्र का स्वीकार हुआ। १. छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते ।
ज्योतिषामयनं चक्षुनिरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ॥ शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् । तस्मात सांगमधीत्यैव, ब्रह्मलोके महीयते ।
-पाणिनीय शिक्षा; ४१-४२ २. (क) संस्कृत-हिन्दी कोश : आप्टे, पृ० २१४ (ख) Sanskrit-English Dictionary, by Sir Monier M.
William, P. 213. (ग) पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्रांगमिश्रिताः। __ वेदा : स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ।
___ याज्ञवल्क्य स्मृति: १-३.
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