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व्याख्या साहित्य
प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने प्रदेशाख्या लघुवृत्ति की रचना की है। आचार्य मलयगिरि ने उसी के आधार पर टीका की रचना की । कुलमण्डन ने प्रवचूरि लिखी ।
जैनागम दिग्दर्शन
व्याख्याकारों ने इस आगम में समागत पाठ भेदों का भी उल्लेख किया है । अनेक स्थलों पर कतिपय शब्दों को अव्याख्येय मानते हुए टीकाकार ने उन्हें सम्प्रदायगम्य कहकर छोड़ दिया है । सम्भव है, वे शब्द स्पष्टार्थ द्योतक नहीं प्रतीत हुए हों; अतः आम्नाय या परम्परा से समझ लेने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता था ? प्रज्ञापना का ग्यारहवां पद भाषा-पद है । उपाध्याय यशोविजयजी ने इसका विवेचन किया है ।
५. सूरियपन्नत्ति (सूर्य प्रज्ञप्ति)
द्विसूर्य सिद्धान्त, सूर्य के उदय, ग्रस्त, आकार, प्रोज, गति प्रादि विस्तार से वर्णन है, जिससे इसके नाम की अन्वर्थकता प्रकट होती है । साथ ही साथ चन्द्र, अन्यान्य नक्षत्र आदि के आकार, गति, अवस्थिति आदि का भी विशद विवेचन है । बीस प्राभृतों में विभक्त यह ग्रन्थ एक सौ आठ सूत्रों में सन्निविष्ट है । प्राभृत प्राकृत के 'पाहुड' शब्द का संस्कृत-रूपान्तर है ।
प्राभृत का अर्थ
अनेक ग्रन्थों के अध्याय या प्रकरण के अर्थ में प्राभृत शब्द प्रयुक्त पाया जाता है । इसका शाब्दिक तात्पर्य उपहार भेंट या समर्पण है । व्युत्पत्ति की दृष्टि से इसकी व्याख्या इस प्रकार है : "अपने अभीष्ट - प्रिय जन को जो परिणाम - सरस, देश - कालोचित दुर्लभ वस्तु दी जाती है और जिससे प्रिय जन की चित्त प्रसन्नता प्रासादित की जाती है, लोक में उसे प्राभृत कहा जाता है ।" "
१. उच्चते - इह प्राभृतं नाम लोके प्रसिद्ध यदभीष्टाय पुरुषाय देश-कालोचित्त दुर्लभं वस्तु परिणामसुन्दरमुपनीयते ततः प्राम्रियते प्राप्यते चित्तमभीष्टस्य पुरुषस्यानेनेति प्राभृतमिति व्युत्पत्तेः ।
- श्रभिधान राजेन्द्र पंचम भाग; पृ. ६१४
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