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पैंतालीस श्रागम
ग्रन्थ के प्रकरण के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या इस प्रकार है : "अपने प्रिय तथा विनय प्रादि गुण-युक्त शिष्यों को देश और काल की उचितता के साथ जो ग्रन्थ-सरणियां दी जाती हैं, उन्हें भी प्राभृत कहा जाता है ।"" शब्द चयन में जैन विद्वानों के मस्तिष्क की उर्वरता इससे स्पष्ट है । प्रकरण के अर्थ में प्राभृत शब्द वास्तव में साहित्यिक सुषमा लिये हुए है । व्याख्या - साहित्य
श्रुतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु ने इस पर नियुक्ति की रचना की, ऐसा प्रसिद्ध है । पर, वह प्राप्त नहीं है, काल-कवलित हो गईं है । आचार्य मलयगिरि की इस पर टीका है । वास्तव में यह ग्रन्थ इतना दुर्ज्ञेय है कि टीका की सहायता के बिना समझ पाना सरल नहीं है । सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि से सम्बद्ध अपने विशेष प्रकार के विश्लेषण के कारण यह ग्रन्थ विद्वज्जगत् में आकर्षण का केन्द्र रहा है । प्रो० वेबर ने जर्मन भाषा में इस पर एक निबन्ध लिखा, जो सन् १८६० में प्रकाशित हुआ । सुना जाता है, डा० आर० शाम शास्त्री ने इसका A Brief Translation of Mahavira's Suryaprajnapti के नाम से अ ंग्रेजी में संक्षिप्त अनुवा दकिया था ! पर, वह भी अप्राप्य है । डा० थीबो ने सूयप्रज्ञप्ति पर लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने जैनों के द्विसू और द्विचन्द्रवाद की भी चर्चा की थी । उनके अनुसार यूनान के लोगों में उनके भारत आने के पूर्व यह सिद्धान्त सर्व स्वीकृत था | Journal of The Asiatic Society of Bengal, Vol. no 49, P. 107 में वह लेख प्रकाशित हुआ था ।
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६. जम्बूद्दीवपन्नत्ति (जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति)
जम्बूद्वीप से सम्बद्ध इस उपांग में अनेकविध वर्णन हैं । इस ग्रन्थ के दो भाग हैं- पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । पूर्वार्द्ध चार वक्षस्कारों तथा उत्तरार्द्ध तीन वक्षस्कारों में विभक्त हैं । समग्र उपांग में १७६ सूत्र हैं ।
१. विवक्षिता अपि च ग्रन्थपद्धतयः परमदुर्लभा परिणामसुन्दराश्चाभीष्टेभ्यो विनयादिगुणकलितेभ्यः शिष्येभ्यो देशकालौचित्येनोपनीयन्ते । - श्रभिधान राजेन्द्र पञ्चम भाग, पृ. ६१४.
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