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जैनागम दिग्दर्शन
वक्षस्कार का तात्पर्य
वक्षस्कार का अर्थ यहां प्रकरण को बोधित कराता है। पर, वास्तव में जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जिनका जैन भगोल में कई अपेक्षाओं से बड़ा गहत्व है । जम्बूद्वीप से सम्बद्ध विवेचन के सन्दर्भ में ग्रन्थकार, प्रकरण का अवबोध कराने के हेतु वक्षस्कार का जो प्रयोग करते हैं; वह सर्वथा संगत है। जम्बूद्वीपस्थ भरत क्षेत्र आदि का इस उपाँग में विस्तृत वर्णन है। उनके सन्दर्भ में अनेक दुर्गम स्थल, पहाड़, नदो, गुफा, जंगल आदि की चर्चा है। - जैन काल-चक्र-अवसर्पिणी-सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषमदुःषमा, दुःषम-सुषमा, दुःषमा, दुःषम-दुःषमा, तथा उत्सर्पिणीदुःषम-दुषमा, दुषमा, दुःषम-सुषमा, सुषम-दुःषमा, सुषमा. सुषमसषमा का सविस्तार वर्णन है। उस सन्दर्भ में चौदह कुलकर आदि, तीर्थ कर ऋषभ, बहत्तर कलायें, स्त्रियों के लिये विशेषतः चौसठ कलायें तथा अनेक शिल्प आदि की चर्चा है । इस कोटि का और भी महत्वपूर्ण वर्णन है । जैन भूगोल तथा प्रागितिहास-कालीन भारत के अध्ययन को दृष्टि से जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का विशेष महत्व है।
७. चन्दपन्नत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति) स्थानांग में उल्लेख
स्थानांग सूत्र' में सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के साथ चन्द्रप्रज्ञप्ति का भी अंग बाह्य के रूप में उल्लेख हुमा है। इससे स्पष्ट है कि सूर्यप्रज्ञप्ति तथा चन्द्रप्रज्ञप्ति दोनों प्राचीन हैं। दोनों कभी पृथक्-पृथक् थे, दोनों के अपने-अपने विषय थे।
वर्तमान में चन्द्रप्रज्ञप्ति का जो संस्करण प्राप्त है, वह सूर्यप्रज्ञप्ति से सर्वथा-अक्षरशः मिलता है । भेद है तो केवल मंगलाचरण तथा ग्रन्थ में विवक्षित बीस प्राभृतों का संक्षेप में वर्णन करने वाली अठारह गाथाओं का । चन्द्रप्रज्ञप्ति के प्रारम्भ में ये गाथायें हैं। १. चत्तारि पण्णत्तीपो अंगबाहिरियानो पण्णतामो, तं जहा-चंदपण्णत्ती, सूरपण्णती, जंबूद्दीवपण्णती, दीवसागरपण्णती।
-स्थानांग सूत्र; स्थान ४,१,४७
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