________________
पैतालीस प्रामम
६४
तत्पश्चात् क्रम-निर्दिष्ट विषय प्रारम्भ होता है। सूर्यप्रज्ञप्ति में ये गाथायें नहीं हैं अर्थात् मंगलाचरण तथा विवक्षित विषय-सूचन के बिना ही ग्रन्थ प्रारम्भ होता है, जो आद्योपान्त चन्द्रप्रज्ञप्ति जैसा है। वास्तव में यदि ये दो ग्रन्थ हैं, तो ऐसा क्यों ? यह एक प्रश्न है, जिसका अनेक प्रकार से समाधान किया जाता है। रहस्यमय : एक समाधान
अतिपरम्परावादो धार्मिक, जिन्हें स्वीकृत मान्यता की परिधि से बाहर निकल कर जरा भी सोचने का अवकाश नहीं है, सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति के परिपूर्ण पाठ-साम्य को देखते हुए भी आज भी यह मानने को तैयार नहीं होते कि ये दो ग्रन्थ नहीं हैं । उनका विचार है कि सूर्य, चन्द्र, कतिपय नक्षत्र आदि की गति, क्रम आदि से सम्बद्ध कई ऐसे विषय हैं, जो प्रवृत्तितः एक समान हैं; अतः उनमें तो भेद की कोई बात ही नहीं है । एक जैसे दोनों वर्णन दोनों स्थानों पर लागू होते हैं। अनेक विषय ऐसे हैं, जो दोनों में भिन्न-भिन्न हैं, यद्यपि उनकी शब्दावली एक है। एक ही शब्द के अनेक अर्थ होते हैं । सामान्यतः प्रचलित अर्थ को ही लोग अधिकांशत: जानते हैं। अप्रचलित अर्थ प्रायः अज्ञात रहता है। बहुत कम व्यक्ति उसे समझते हैं । यहां कुछ ऐसा ही हुआ प्रतीत होता है।
वास्तव में दोनों उपांगों में प्रयुक्त एक जैसे शब्द भिन्नार्थक हैं। ऐसा किये जाने के पीछे भी एक चिन्तन रहा होगा । बहुत से विषय ऐसे हैं, जिनका उदघाटन सही अधिकारी या उपयुक्त पात्र के समक्ष ही किया जाता है, अनधिकारी या अपात्र के समक्ष नहीं; अतः उन्हें रहस्यमय या गुप्त बनाये रखना आवश्यक होता है। अधिकारी को उन्हीं शब्दों द्वारा वह ज्ञान दे दिया जाता है, जिनका अर्थ सामान्यतः व्यक्त नहीं है । ऐसी ही कुछ स्थिति यहां रही हो, तो आश्चर्य नहीं । कभी परम्परा से इन रहस्यों को जानने वाले विद्वान् रहे होंगे, जो अधिकारी पात्रों के समक्ष उन रहस्यों को प्रकाशित करते रहे हों। पर, वह परम्परा सम्भवतः मिट गई। रहस्य रहस्य ही रह गये। यही कारण है इन दोनों उपांगों के सम्बन्ध में इस प्रकार के प्रश्न उपस्थित होते हैं। वास्तव में वर्तमान में ज्ञान के अल्पत्व के कारण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org