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जैनागम दिग्दर्शन
ऐसा है। तथ्य यही है, दोनों उपांग, जो वर्तमान में उपलब्ध हैं, यथावत् हैं, अपरिवर्तित हैं। उन्हें भिन्न-भिन्न हो माना जाना चाहिये ।
कहने को स्वीकृत परम्परा के संरक्षण के हेतु जो कुछ कहा जा सकता है, पर, विवेक के साथ उसको यथार्थता का अंकन करने का प्रबुद्ध मानव को अधिकार है। इसलिये यह कहना परम्परा का खण्डन नहीं माना जाना चाहिए कि रहस्यमयता और शब्दों को अनेकार्थकता का सहारा पर्याप्त नहीं है, जो इन दोनों उपाँगों के अनैक्य या असादृश्य को सिद्ध कर सके। अधिक युक्तियां उपस्थित करने को आवश्यकता नहीं है। विज्ञजन उन्मुक्त भाव से चिन्तन करेंगे, तो ऐसा सम्भव प्रतीत होगा कि उनमें से अधिकांश को किसी रहस्यमयता तथा शब्दों के बह्वर्थकता-मूलक समाधान से तुष्टि नहीं होगी। यह मानने में कोई अन्यथाभाव प्रतीत नहीं होना चाहिए कि वर्तमान में उपलब्ध ये दोनों उपांग स्वरूपतः शाब्दिक दृष्टि से एक हैं और तात्पर्यतः भी दो नहीं प्रतीत होते। एक सम्भावना • हो सकता है, कभी प्राचीन काल में कहीं किसो ग्रन्थ-भण्डार में सूर्यप्रज्ञप्ति की दो हस्तलिखित प्रतियां पड़ी हों। उनमें से एक प्रति ऊपर के पृष्ठ व उस पर लिखित 'सूर्यप्रज्ञप्ति' नाम सहित रही हो तथा दूसरी का ऊपर का पत्र-नाम का पत्र नहीं रहा हो, नष्ट हो गया हो, खो गया हो। नामवालो प्रति में भी प्रारम्भ का पत्र, जिसमें मांगलिक व विषयसूचक गाथानों का उल्लेख था, खोया हुअा हो। अर्थात् अब दोनों प्रतियों का स्वरूप इस प्रकार समझा जाना चाहिए। उन दोनों प्रतियों में एक प्रति ऐसी थी, जिसका ऊपर का पृष्ठ था, उस पर ग्रन्थ का नाम था, पर, उसमें गाथायें नहीं थों। ग्रन्थ का विषय सोधा प्रारम्भ होता था। गाथानों का पत्र लुप्त था। दूसरी प्रति इस प्रकार की थी, जिसमें ऊपर का पृष्ठ, ग्रन्थ का नाम नहीं था । ग्रन्थ का प्रारम्भ गाथाओं से होता था। दोनों में केवल भेद इतना-सा था, एक गाथाओं से युक्त थो, दूसरी में गाथाएं नहीं थीं, पर, आपाततः देखने पर दोनों का प्रारम्भ भिन्न लगता था, इससे इस विषय को नहीं समझने वाले व्यक्ति के लिए असमंजसता हो
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