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________________ पैतालीस मागम १०१ सकती थी। किसी व्यक्ति ने भण्डार में ग्रन्थों को व्यवस्थित करने हेतु या सूची बनाने के हेतु ग्रन्थों की छान-बीन की हो। जैन अगों, उपांगों आदि के पर्यवेक्षण के सन्दर्भ में ये दोनों प्रतियां उसके सामने आयी हों। नाम सहित प्रति के सम्बन्ध में तो उसे कोई कठिनाई नहीं हुई; क्योंकि वह नाम भी स्पष्ट था और ग्रन्थारम्भ भी। ऊपर के पत्र से रहित, बिना नाम की प्रति के सम्बन्ध में उसे कुछ सन्देह हमा हो, उसने ऊहापोह किया हो । सम्भवतः वह व्यक्ति विद्वान् न रहा हो । भण्डार की व्यवस्था या देख-रेख करने वाला मात्र हो, या ग्रन्थों की प्रतिलिपि करने वाला साधारण पठित व्यक्ति रहा हो। ऐसा सम्भव है कि प्रथम प्रति को जिसमें ग्रन्थ-नाम था, गाथाएं नहीं थीं, प्रकरण प्रारम्भ से चालू होता था, उसने यथावत् रहने दिया। दूसरी प्रति, जिस पर नाम नहीं था, गाथाओं के कारण जो भिन्न ग्रन्थ प्रतीत होता था, के लिए उसने कल्पना की हो कि वह सम्भवतः चन्द्रप्रज्ञप्ति हो और अपनी कल्पनानुसार वैसा नाम लगा दिया हो। वह ग्रन्थ को भीतर से देखता, गवेषणा करता, पाठ मिलाता, यह सब तो तब होता, जब वह एक अनुसन्धित्सु विद्वान् होता। चन्द्रप्रज्ञप्ति का यथार्थ रूप तब तक सम्भवतः नष्ट हो गया होगा; अतः अन्यत्र कहीं उसकी सही प्रतिमिल नहीं सकी हो और उसी प्रति के आधार पर, जिस पर नाम बतलाया गया था, एक ही पाठ के ग्रन्थ दो नामों से चल पड़े हों, चलते रहे हों। शताब्दियां बीतती गयीं और एक ही पाठ के दो ग्रन्थ पृथक्-पृथक् माने जाते रहे। धर्म श्रद्धा भी देता है और विवेक भी। विवेक-शून्य श्रद्धा अचक्षुष्मती कही जाती है। पर, धर्म के क्षेत्र में वैसा भी होता है, जो पालोच्य है, प्रादेय नहीं। अति श्रद्धा-पूर्ण मानस के बाहुल्य के कारण प्रागमवेत्ताओं में इस तथ्य को जानते हुए भी व्यक्त करने का उत्साह क्यों होता ? जब लोगों के समक्ष यह स्थिति आई, तो अपनी मान्यता और परम्परा के परिरक्षण के निमित्त ऐसे तर्कों का, जिस ओर इगित किया गया है, जिन्हें तर्क नहीं, तर्काभास कहा जा सकता है, सहारा लिया जाने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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