________________
१०२
जैनागम दिग्दर्शन
बर्तमान में दो कहे जाने वाले उपांगों का जो कलेवर है, उसे देखते हुए यह मानने में धर्म की जरा भी विराधना या सम्यक्त्व का हनन नहीं लगता कि एक ही पाठ को दो ग्रन्थों के रूप में स्वीकार करने की बात कुछ और गवेषणा, चिन्तन तथा परिशीलन की मांग करती है, ताकि यथार्थ की उपलब्धि हो सके । संख्या-क्रम में भिन्नता
उपांगों के संख्या-क्रम में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्राप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति की स्थानापन्नता में कुछ भेद है। बत्तीस आगम-ग्रन्थों के प्रथम हिन्दी अनुवादकर्ता श्री अमोलक ऋषि ने जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति को पाँचवां, चन्द्र-प्रज्ञप्ति को छठा तथा सूर्य-प्रज्ञप्ति को सातवां उपांग माना है। विप्टरनित्ज का इस सम्बन्ध में अभिमत है कि मूलतः चन्द्र-प्रज्ञप्ति की गणना सूर्यप्रज्ञप्ति से पहिले की जाती रही है । विण्टरनित्ज यह भी मानते हैं कि चन्द्रप्रज्ञप्ति का आज जो रूप है, पहले वैसा नहीं था। उसमें इनसे भिन्न विषय थे। संख्या-क्रम में मैंने पांचवें स्थान पर सूर्यप्रज्ञप्ति; छठे स्थान पर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति तथा सातवें स्थान पर चन्द्रप्रज्ञप्ति को लिया है। कारण यह है, जहां तक पता चलता है, सूर्य प्रज्ञप्ति अपने यथावत् रूप में विद्यमान है । अपने नाम के अनुरूप उस में सर्य-सम्बन्धी वर्णन अपेक्षाकृत अधिक है। चन्द्र का भी वर्णन है, पर, विस्तार और विविधता में उससे कम । चन्द्रप्रज्ञप्ति का वर्तमान सस्करण स्पष्ट ही मौलिकता की दृष्टि से आलोच्य है; अतः इसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के पश्चात् लिया गया है। प्राचार्य मलय.. गिरि की इस पर टीका है।
पांच निरयावलिया निरयावलिया (निरयावलिका) में पांच उपांगों का समावेश है, जो इस प्रकार है : - १. निरयावलिया या कप्पिया (कल्पिका)
२. कप्पवडंसिया (कल्पावतंसिका) ३. पुप्फिया (पुष्पिका)
४. पुप्फचूलिया (पुष्पचूलिका) १५. वहि दशा (वृष्णि दशा)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
___www.jainelibrary.org