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मन:पर्ययज्ञान
मनः पर्यय ज्ञान मनुष्यों को होता है या श्रमनुष्यों को ? मनुष्यों होता है तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों को होता है या गर्भज मनुष्यों को ? यह ज्ञान सम्मूच्छिम मनुष्यों को नहीं, अपितु गर्भज मनुष्यों को ही होता है, कर्मभूमि अथवा अन्तरद्वीप के गर्भज मनुष्यों को नहीं । कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों में से भी संख्येय वर्ष की आयु वालों को ही होता है, असंख्येय वर्ष की आयु वालों को नहीं । संख्येय वर्ष की आयु वालों में से भी पर्याप्तक (इन्द्रिय, मन यादि द्वारा पूर्ण विकसित) को ही होता है, पर्याप्तक को नहीं। पर्याप्तकों में से भी सम्यग्दृष्टि को ही होता है, मिथ्यादृष्टि को अथवा मिश्रदृष्टि ( सम्यक् - मिथ्यादृष्टि) को नहीं । सम्यद्दृष्टि वालों में से भी संयत ( साधु ) सम्यक दृष्टि को ही होता है, असंयत अथवा संयतासंयत सम्यकदृष्टि को नहीं । संयतोंसाधुत्रों में से भी अप्रमत्त संयत को ही होता है, प्रमत्त संयत को नहीं । श्रप्रमत्त साधुयों में से भी ऋद्धि प्राप्त को ही होता है, ऋद्धिशून्य को नहीं । मनः पर्यय ज्ञान के अधिकारी का नव्य न्याय की शैली में प्रतिपादन करने के बाद सूत्रकार मनःपर्यय ज्ञान का स्वरूप वर्णन प्रारंभ करते हैं । मनः पर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है : ऋजुमति और विपुलमति । दोनों प्रकार के मनः पर्यय ज्ञान का संक्षेप में चार दृष्टियों से विचार किया जाता है : १. द्रव्य, ३. क्षेत्र, ३. काल और भाव । द्रव्य की अपेक्षा से ऋजुमति अनन्तप्रदेशी अनन्त स्कन्धों ( संघात ) को जानता व देखता है और उसी को विपुलमति कुछ अधिक विपुल, विशुद्ध तथा स्पष्ट जानता देखता है ।" क्षेत्र की अपेक्षा से ऋजुमति कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग और अधिक से अधिक नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपरी भाग के नीचे के छोटे प्रतरों तक, ऊपर ज्योतिष्क विमान के ऊपरी तलपर्यन्त तथा तिर्यक्-तिरछा मनुष्य क्षेत्र के ढाई द्वीप समुद्र पर्यन्त अर्थात् पन्द्रह कर्मभूमि, तोस कर्मभूमि और छप्पन अन्तरद्वीपों में रहे हुए संज्ञी ( समनष्क) पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है
जैनागम दिग्दर्शन
१. ते चैव विउलमई प्रमहियतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ ।
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