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मागम विचार
तथा समादर का भाव अधिक होता है, वहाँ भाषा अर्थवाद-प्रधान हो जाती है। इसे दूषणीय नहीं कहा जाता। परन्तु, जहाँ भाषा का प्रयोग जिस विधा में है, उसे यथावत् रूप में समझ लिया जाये तो कठिनाई नहीं होती। इसी दृष्टिकोण से ये प्रसंग ज्ञेय और व्याख्येय हैं। भगवान् श्री महावीर इस युग के अन्तिम तीर्थंकर थे। इस समय उपलब्ध अर्द्ध मागधी आगम-वाङमय उन्हीं की देशना पर आधारित है। प्रत्थागम : सुत्तागम
आगम दो प्रकार के हैं.-१. अत्थागम (अर्थागम) और २. सुत्तागम (सूत्रागम)। तीर्थंकर प्रकीर्ण रूप में जो उपदेश करते हैं, वह अर्थागम है। अर्थात् विभिन्न अर्थों-विषय-वस्तुओं पर जब-जब प्रसंग आते हैं, तीर्थंकर प्ररूपणा करते रहते हैं। उनके प्रमुख शिष्य अर्थात्मक दृष्ट्या किये गये उपदेशों का सूत्ररूप में संकलन या संग्रथन करते रहते हैं। प्राचार्य भद्रबाहुकृत आवश्यक नियुक्ति में इसी प्राशय को अग्रांकित शब्दावली में कहा गया है : “अर्हत् अर्थ का भाषण या व्याख्यान करते हैं। धर्म-शासन के हित के लिए गणधर उनके द्वारा व्याख्यात अर्थ का सूत्र रूप में ग्रथन करते हैं। इस प्रकार सूत्र प्रवृत्त होता है।"
१. इन्द्रभूति, २. अग्निभूति, ३. वायुभूति, ४. व्यक्त, ५. सुधर्मा. ६. मण्डित, ७. मौर्यपुत्र ८. अकम्पित, ६. अचलभ्राता, १०. मेतार्य, ११. प्रभास; भगवान् महावीर के ये ग्यारह गणघर थे। उनका श्रमण-संघ नौ गणों में विभक्त था, जिनके नाम इस प्रकार हैं : १. गोदास गण, २. उत्तरबलियस्सय गण, ३. उद्देह गण, ४. चारण गण, ५. ऊर्ध्ववार्तिक गण, ६. विश्ववादी गण, ७. कामधिक गण, ८. माणव गण तथा ६. कोटिक गण ।'
१. समणस्स भगवो महावीरस्स नव गणा होत्था। तं जहा—गोदास गणे,
उत्तरबलियस्सयगणे, उद्देहगण, चारणगणे,उड्ढ़वाइयगणे, विस्सवाइगणे, कामिड्ढियगणे, मारवगणे, कोडियगणे।
- स्थानांग; ६, २६
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