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जैनागम दिग्दर्शन
गणधर आगम-वाङमय का प्रसिद्ध शब्द है । आगमों में मुख्यतया यह दो अर्थों में व्यवहृत हुआ है। तीर्थंकरों के प्रधान शिष्य गणधर कहे जाते हैं, जो तीर्थंकरों द्वारा अर्थागम के रूप में उपदिष्टज्ञान का द्वादश अंगों के रूप में संकलन करते हैं। प्रत्येक गणधर के नियन्त्रण में एक गण होता है, जिसके संयम जीवितव्य के निर्वाह का गणधर पूरा ध्यान रखते हैं। गणधर का उससे भी अधिक आवश्यक कार्य है, अपने अधीनस्थ गण को आगम-वाचना देना।
तीर्थंकर अर्थ में जो आगमोपदेश करते हैं, उन्हें गणधर शब्दबद्ध करते हैं । अर्थ की दृष्टि से समस्त प्रागम-वाङमय एक होता है, परन्तु, भिन्न-भिन्न गणधरों के द्वारा संग्रथित होने के कारण वह शाब्दिक दृष्टि से सर्वथा एक हो, ऐसा नहीं होता। शाब्दिक अन्तर स्वाभाविक है । अतः भिन्न-भिन्न गणधरों की वाचनाएँ शाब्दिक दृष्टि से सदृश नहीं होतीं । तत्वतः उनमें ऐक्य होता है। ग्यारह गणधर : नौ गण
__ भगवान् महावीर के संघ में गणों और गणधरों की संख्या में दो का अन्तर था। उसका कारण यह है कि पहले से सातवें तक के गणधर एक-एक गण की व्यवस्था देखते थे, पृथक्-पृथक् आगमवाचना देते थे, परन्तु, आगे चार गणधरों में दो-दो का एक-एक गण था। इसका तात्पर्य यह है कि पाठवें और नौवें गण में श्रमण-संख्या कम थी; इसलिए दो-दो गणधरों पर सम्मिलित रूप से एक-एक गण का दायित्व था। तदनुसार अकम्पित और अचलभ्राता के पास आठवें गण का उत्तरदायित्व था तथा मेतार्य और प्रभास के पास नौवें गण का।
कल्पसूत्र में कहा गया है : "भगवान् महावीर के सभी ग्यारहों गणधर द्वादशांग-वेत्ता, चतुर्दश-पूर्वी तथा समस्त गणि-पिटक के धारक थे। राजगृह नगर में मासिक अनशन पूर्वक वे कालगत हुए, सर्वदुःख-प्रहीण बने अर्थात् मुक्त हुए । स्थविर इन्द्रभूति (गौतम) तथा स्थविर आर्य सुधर्मा; ये दोनों ही भगवान् महावीर के सिद्धिगत
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