________________
प्रागम विचार
होने के पश्चात् मुक्त हुए।"' ज्यों-ज्यों गणधर सिद्धि-प्राप्त होते गये, उनके गण सुधर्मा के गण में अन्तर्भावित होते गये। श्रु त-संकलन
तीर्थंकर सर्वज्ञत्व प्राप्त करने के अनन्तर उपदेश करते हैं। तब उनका ज्ञान सर्वथा स्वाश्रित या आत्म-साक्षात्कृत होता है, जिसे दर्शन की भाषा में पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा गया है। सर्वज्ञ होने के बाद भगवान् महावीर ने समस्त जगत के समग्र प्राणियों के कल्याण तथा श्रेयस् के लिए धर्म-देशना दी। उनकी धर्म-देशनाओं के सन्दर्भ में बड़ा सुन्दर क्रम मिलता है। उनके निकटतम सुविनीत अन्तेवासी गौतम, यद्यपि स्वयं भी बहुत बड़े ज्ञानी थे, परन्तु, लोक-कल्याण की भावना से भगवान् महावीर से अनेक प्रकार के प्रश्न पूछते थे। भगवान् उनका उत्तर देते थे। श्रत का वह प्रवहमान स्रोत एक विपुल ज्ञान-राशि के रूप में परिणत हो गया।
भगवान् महावीर द्वारा अर्द्धमागधी में उपदिष्ट अर्थागम का आर्य सुधर्मा ने सूत्रागम के रूप में जो संग्रथन किया, अंशतः ही सही द्वादशांगी के रूप में वही प्राप्त है। श्रुत-परम्परा के (महावीर के उत्तरवर्ती) स्रोत का आर्य सुधर्मा से जुड़ने का हेतु यह है कि वे ही भगवान् महावीर के उत्तराधिकारी हुए; इसलिये आगे की सारी परम्परा आर्य सुधर्मा की (धर्म -) अपत्य-परम्परा या (धर्म -) वंशपरम्परा कही जाती है। कल्पसूत्र में लिखा है : “जो आज श्रमणनिर्ग्रन्थ विद्यमान हैं, वे सभी अनगार आर्य सुधर्मा की अपत्यपरम्परा के हैं, क्योंकि और सभी गणधर निरपत्य रूप में निर्वाण को प्राप्त हुए।"3 १. सव्वे एए समणस्स भगव प्रो महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवाल__ संगिणो चोद्दसपुग्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नगरे मासिएणं
भत्तणं प्रपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा । थेरे इदभूइ थेरे
अज्ज सुहम्मे सिद्धि गए महावीरे पच्छा दोन्नि वि परिनिव्वुया॥२०३ ॥ २. बारहवां अंग दृष्टिवाद प्रभी लुप्त है। ३. जे इमे प्रज्जताते समणा निग्गंथा विहरंति ए ए णं सव्वे अज्ज सुहम्मस्स
प्रणगारस्स पाहावच्चिज्जा, प्रवसेसा गणहरा निरवच्चा वोच्छिन्ना।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org