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________________ जैनागम दिग्दर्शन श्रुतः कण्ठानः अपरिवर्त्य वेदों को श्रुति कहे जाने का कारण सम्भवतः यही है कि उन्हें सुनकर, गुरु-मुख से प्रायत्त कर स्मरण रखने की परम्परा रही है । जैन आगम-वाङ्मय को भी श्रु त कहा जाता है। उसका भी यही अभिप्राय प्रतीत होता है कि उसे सुनकर, प्राचार्य या उपाध्याय से अधिगत कर याद रखे जाने का प्रचलन था। सन कर जो स्मरण रखा जाए, उसमें सुनी हुई शब्दावली की यथावत्ता स्थिर रह सके, यह कठिन प्रतीत होता है। पुरा-कालीन मनीषियों के ध्यान से यह तथ्य बाहर नहीं था; अतः वे प्रारम्भ से ही इस ओर यथेष्ट जागरूकता और सावधानी बरतते रहे। वैदिक विद्वानों ने संहिता-पाठ, पद-पाठ, क्रम-पाठ, जटा-पाठ तथा धन-पाठ के रूप में वेद-मन्त्रों के पठन या उच्चारण का एक वैज्ञानिक अभ्यास-क्रम निर्धारित किया था। इस वैज्ञानिक पाठ-क्रम के कारण ही वेदों का शाब्दिक कलेवर आज भी अक्षुण्ण विद्यमान है। जैन आगमज्ञों ने इसे भलोभाँति अनुभव किया। उन्होंने भी आगमों के पाठ या उच्चारण के सम्बन्ध में कुछ ऐसी मर्यादाएँ, नियमन या परम्पराएँ बाँधीं, जिनसे पाठ का शुद्ध स्वरूप अपरिवर्त्य रह सके। अनुयोग द्वार सूत्र में आगमतः द्रव्यावश्यक के प्रसंग में सूचित किया गया है कि आगम-पाठ की क्या-क्या विशेषताएँ हैं ? वे इस प्रकार हैं : १. शिक्षित - साधारणतया पाठ सीख लेना, उसका सामान्यतः उच्चारण जान लेना । २. स्थित - अधोत पाठ को मस्तिष्क में स्थिर करना। ३. जित - क्रमानुरूप आगम-वाणी का पठन करना। यह तभी १. प्रागमो दवावस्सयं - जस्स णं प्रावस्सएति पदं -सिक्खतं, टितं, जितं, मित, परिजितं, नामसमं, घोससम, अहीणक्खरं, प्रणवक्खरं, अव्वाइद्धक्खरं, अक्खलियं, अमिलियं, अवच्चामेलियं, पडिपुण्णं, पडिपुण्णघोसं, कंट्ठोट्ठविप्पमुक्कं गुरुवायरणोवगयं । - अनुयोगद्वार सूत्र; ११ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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