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________________ मागम विचार ४. मित सधता है, जब पाठ निज-वरांगत- अधिकृत या स्वायत्त हो जाता है । मित का अर्थ मान, परिमाण या माप होता है । पाठ के साथ मित विशेषण का प्राशय पाठगत अक्षर आदि की मर्यादा, नियम, संयोजन प्रादि है | ५. परिजित - अनुक्रमतया पाठ करना सरल है । यदि उसी पाठ का व्यतिक्रम या व्युत्क्रम से उच्चारण किया जाये, तो बड़ी कठिनता होती है । यह तभी सम्भव होता है, जब पाठ परिजित अर्थात् बहुत अच्छी तरह अधिकृत हो । अध्येता को व्यतिक्रम या व्युत्क्रम से पाठ करने का भी अभ्यास हो । Jain Education International ७ ६. नामसम - हर किसी को अपना नाम प्रतिक्षण, किसी भी प्रकार की स्थिति में सम्यक् स्मरण रहता है । वह प्रत्येक व्यक्ति को आत्मसात् हो जाता है । अपने नाम की तरह आगम-पाठ का आत्मसात् हो जाना । ऐसा होने पर अध्येता किसी भी समय पाठ का यथावत् सहज रूप में उच्चारण कर सकता है । ७. घोषसम - घोष का अर्थ ध्वनि है । पाठ शुद्ध घोष या ध्वनिपूर्वक उच्चरित किया जाना चाहिए । व्याख्याकारों ने घोष का प्राशय उदात्त', अनुदात्त तथा स्वरित अभिहित किया है । जहाँ जिस प्रकार का स्वर उच्चरित होना अपेक्षित हो, वहाँ वैसा ही उच्चरित होना । वेद-मन्त्रों के उच्चारण में बहुत सावधानी रखी जाती थी । घोषसम के अभिप्राय में इतना और १. उच्चैरुदात्तः । २. नीचैरनुदात्तः । ३. समवृत्त्या स्वरितः । ४. मन्त्रो हीनः स्वरतो वर्णतो वा, सा वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति, वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी १, २, २९-३१, मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह । यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोपराधात् ॥ पाणिनीय शिक्षा; ५२ - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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