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जैनागम दिग्दर्शन
जोड़ा जाना भी संगत प्रतीत होता है कि जिन वर्णों के जो-जो उच्चारण स्थान हों, उनका उन-उन स्थानों से यथावत् उच्चारण किया जाए। व्याकरण में उच्चारण-सम्बन्धी जिस उपक्रम को प्रयत्न कहा जाता है,
घोषसम में उसका भी समावेश होता है। ८. अहीनाक्षर-उच्चार्यमाण पाठ में किसी भी वर्ण को हीन अर्थात्
गायब या अस्पष्ट न करना। पाठ स्पष्ट होना
चाहिए। ६. अन्त्यक्षर-उच्चार्यमाण पाठ में जितने अक्षर हों, ठीक वे ही
उच्चरित, हों, कोई अतिरिक्त या अधिक न मिल जाए।
१. वर्गों के उच्चारण में कुछ चेष्टा करनी पड़ती है, उसे 'यत्न' कहते हैं ।
यह दो प्रकार का होता है। जो यत्न वर्ण के मुख से बाहर आने से पूर्व अन्तराल में होता है, उसको प्राभ्यन्तर कहते हैं। बिना इसके बाह्य यत्न निष्फल है। यही इसकी प्रकृष्टता है; अतएव इसे 'प्रयत्न' कहा जाता है। 'प्रकृष्टो यत्नः प्रयत्नः' यह अर्थ संगत भी इसीलिये है। इसका अनुभव उच्चारण करने वाला ही कर सकता है ; क्योंकि उसी के मुख के अन्तराल में यह होता है। दूसरा यत्न मुख से वणं निकलते समय होता है; अतएव यह बाह्य कहा जाता है। इसका अनुभव सुनने वाला भी कर सकता है। ___ यत्नो द्विधा-प्राभ्यन्तरो बाह्यश्च । प्राद्यः पंचधा-स्पृष्ट-ईषत्स्पृष्टईषद्विवृत-विवृत - संवृतभेदात् । तत्र स्पृष्टं प्रयत्नं स्पर्शानाम् । ईषत्स्पृष्ट - मन्तःस्थानाम् । ईषद्विवृतमूष्मणाम् । विवृतं स्वराणाम् । ह्रस्वस्यावर्णस्य प्रयोगे संवृतम्, प्रक्रियादशायां तु विवृतमेव ।
बाह्यस्त्वेकादशधा-विवारः संवारः श्वासो नादोऽघोषो घोषोल्पप्रारणो महाप्राण उदात्तोनुदात्तः स्वरितश्चेति । स्वरो विवारा: श्वासा प्रघोषाश्च । हशः संवारा नादा घोषाश्च । वर्गाणां प्रथमतृतीयपंचमा मणश्चाल्पप्राणाः । वर्गाणां द्वितीयचतुर्थो शलश्च महाप्राणाः ।
- लघु सिद्धान्त कौमुदी; संज्ञाप्रकरणम्, पृ० १८-२०.
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