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पैतालीस प्रागमः
है । साथ-साथ यह भी सूचित किया है कि इसके सूत्र विछिन्न हो गये । प्राचार्य हरिभद्र तथा देवसूरि द्वारा लघु-वृत्तियों की रचना की गई। एक अप्रकाशित चूर्णि भी बतलाई जाती है।
४. पनवरा ( प्रज्ञापना)
नाम : श्रर्थ
प्रज्ञापना का अर्थ बतलाना, सिखलाना या ज्ञापित करना है। इस उपाँग का नाम वस्तुतः अन्वर्थक है । यह जैन तत्त्व ज्ञान का उत्कृष्ट उद्बोधक ग्रन्थ है । यह प्रज्ञापना, स्थान, बहु-वक्तव्य, क्षेत्र, स्थिति, पर्याय, श्वासोच्छ्वास, संज्ञा, योनि, भाषा, शरीर, परिणाम, कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्या, काय स्थिति, दृष्टि, क्रिया, कर्म-बन्ध, कर्म- स्थिति, कर्म - वेदना, कर्म-प्रकृति, आहार, उपयोग, संज्ञी, अवधि, परिचारणा, वेदना - परिणाम, समुद्घात प्रभृति छत्तीस पदों में विभक्त है ।
पदों के नाम से स्पष्ट है कि इसमें जैन सिद्धान्त के अनेक महत्वपूर्ण पक्षों पर विवेचन हुआ है, जो तस्वज्ञान के परिशीलन की दृष्टि से बहुत उपयोगी है । उपांगों में यह सर्वाधिक विशाल हैं। गों में जो स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति का है, उपांगों में वैसा ही स्थान इस आगम का है । व्याख्या प्रज्ञप्ति की तरह इसे भी जैन तत्त्वज्ञान का वृहत् कोश कहा जा सकता है ।
रचना
ऐसा माना जाता है कि वाचकवंशीय आर्य श्याम ने इसकी रचना की। वे अंशतः पूर्वधर माने जाते थे । अज्ञातकर्तृक दो गाथायें प्राप्त होती हैं, जिनसे ये तथ्य पुष्ट होते हैं । उनका आशय
१. वायगवरवंसाओ तेवीसइमेण धीरपुरिसेण । दुद्धरधरेण मुणिरणा, पुग्वसुयसमिद्धबुद्धीगं । सुयसागरविएऊरण, जेसा सुरयणमुत्तमं दिव्ां । सीसगरणस्स भगवनो, तस्स गमो प्रज्जसामस्स ॥
- अमोलक ऋषि द्वारा अनूदित प्रज्ञापना सूत्र; प्रथम भाग, पृ. २,
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