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जैनामम दिग्दर्शन इस प्रकार है : “वाचकवंशीय, आर्य सुधर्मा की तेवीसवीं पीढ़ी में स्थित, धैर्यशील, पूर्वश्रुतः में समुद्ध, बुद्धि-सम्पन्न प्राय श्याम को वन्दन करते हैं जिन्होंने श्रुत-ज्ञान रूपी सागर में से अपने शिष्यों को यह (प्रज्ञापना) श्रुत-रत्न प्रदान किया।" .
आर्य श्याम के प्रार्य सुधर्मा से तेवीसवीं पीढ़ी में होने का जो उल्लेख किया है, वह किस स्थविरावली या पट्टावली के आधार पर किया गया है, ज्ञात नहीं होता। नन्दी-सत्र में वर्णित स्थविरावली में श्याम नामक आचार्य का उल्लेख तो है, पर वे सुधर्मा से प्रारम्भ होने वाली पट्टावली में बारहवें होते है।' तेवीसवें स्थान पर वहां ब्रह्मदीपकसिंह नामक आचार्य का उल्लेख है। उन्हें कालिक श्रृंत तथा चारों अनुयोगों का धारक व उत्तम वाचक-पदप्राप्त कहा है। कल्पसूत्र की स्थविरावली से आर्य श्याम की ऋमिक संख्या मेल नहीं खाती।
रचना का प्राधार : एक कल्पना .. प्रज्ञापना सूत्र के प्रारम्भ में लेखक की ओर से स्तवनात्मक दो - गाथायें हैं, जो महत्वपूर्ण हैं। वे लिखते हैं : "सूत्र-रत्नों के निधान, भव्यजदों के लिए निर्वत्तिकारक भगवान् महावीर ने सब जीवों के भावों की प्रज्ञापना उपदिष्ट की। भगवान् ने दुष्टिवाद से निर्भरित,
१. सुहम्मं अग्गिवेसारणं, जंबूनामं च कासवं ।
पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छं सिज्जभवं तहा ॥ जसमद्दतुगीयं वंदे संभूयं चेव माढरं। . भद्दबाहुं च पाइन्न', थूलभद्दच गोयमं ॥ एलावच्चसगोत्तं, वंदामि महागिरि सुहत्थि च । ततो कोसियगोत्त, बहुलस्स बलिस्सहं वंदे ॥ हारियगोत्तं सायं च, वंदे मोहागोरियं च सामज्जं ।
-नन्दीसूत्र स्थविरावली; गाथा २५-२८ २. अयलपुरम्मि खेत्ते, कालियसुय अणुगए धीरे । बंभद्दीवगसीहे वायगपयमुत्तमं पत्ते॥
-नन्दीसूत्र, स्थविरावली : गाथा ३६
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