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पैतालीस प्रागम
विविध अध्ययनयुक्त इस श्रुत-रत्न का जिस प्रकार विवेचन किया है, मैं भी उसी प्रकार करूंगा।
इन गाथाओं में प्रयुक्त 'दिट्ठिवायणीसंद' पद पर विशेष गौर करना होगा। दृष्टिवाद व्युछिन्न माना जाता है। श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् उसके सम्पूर्ण वेत्ताओं की परम्परा मिट गई । पर, अंशतः वह रहा । श्यामार्य के सम्बन्ध में जिन दो वन्दनमूलक गाथाओं की चर्चा की गई है, वहां उन्हें पूर्व-ज्ञान से युक्त भी कहा गया है । सम्भवतः आर्य श्याम प्रांशिक दृष्ट्या पूर्वज्ञ रहे हों। हो सकता है, इसी अभिप्रायः से उन्होंने यहां दृष्टिवाद-निस्यन्द शब्द जोड़ा हो, जिसका प्राशय रहा हो कि दृष्टिवाद के मुख्यतम भाग पूर्व-ज्ञान से इसे गृहीत किया गया है।
प्रस्तुत आगम में वर्णित वनस्पति आदि के भेद-प्रभेद बहुत ही विस्तृत व विज्ञेय हैं । भेद-प्रभेदों के इसी क्रम में म्लेच्छों व आर्यों का भी उल्लेखनीय चित्रण है। म्लेच्छ
शक, यवन, चिलात (किरात), शबर, बर्बर, मरुड, उड्ड (ोड़),भडग, निण्णग, पक्कणिय, कुलक्ख, गोंड, सिंहल, पारस, गोध, कोंच, अंध. दमिल (द्रविड़), चिल्लल, पुलिंद, हरोस, डोंब, बोक्कण, गंधहारग, वहलीक, उज्झल (जल्ल), रोमपास, बकुश, मलय, बंधुय, सूयलि, कोंकणग, मेय, पह्लव, मालव, मग्गर, आभासिय, आणक्ख, चीण, लासिक, खस, खासिय, नेहुर, मोंढ, डोंबिलग, लोस, पनोस, केकय, अक्खाग, हूण, रोमक, रुरु, मरुय आदि।
पार्य
आर्य दो प्रकार के होते हैं-ऋद्धि-प्राप्त और अनृद्धि-प्राप्त । ऋद्धि प्राप्त-अरहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण और विद्या१. सूयरयणनिहाणं, जिरणवरेण भवियणनिव्वुइकरेणं । .
उवदंसियाः भगवया, पण्णवरणा सव्वभावारणं ॥... अज्झयणमिणं चित्त, सुयरयरणं दिठिवायरणीसंदं । जहवणियं भगवया, अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥
-प्रज्ञापना: मंगलाचरण. २. ३
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