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.. जैनागम दिग्दर्शन प्रमाण न मिले, तब तक केवल नाम-साँगत्य कोई ठोस आधार नहीं माना जा सकता।
इस आगम की उल्लेखनीय विशेषता है, राजा प्रदेशी के अनघड़ प्रश्न और केशीकुमार श्रमण के मंजे-मजाये उत्तर। राजा प्रदेशी कहता है-"भदन्त ! मैंने एक बार आत्म-स्वरूप को समझने, साक्षात् देखने के लिए प्रयोग किया। एक जीवित चोर के दो टुकड़े किये, पर, आत्मा कहीं दिखाई नहीं पड़ी। दो के चार, चार के आठ, इस तरह मैं उसके शरीर का खण्ड-खण्ड करते ही गया, पर आत्मा कहीं नहीं मिली। आत्मा यदि शरीर से भिन्न तत्त्व हो, तो अवश्य वह पकड़ में आती।"
केशीकुमार श्रमण-"राजन् ! तू कठियारे की तरह मूर्ख है। चार कठियारों ने वन में जाकर एक को रसोई का काम सौंपा। तीन लकड़ियां काटने में लगे। अग्नि के लिए उसे 'अरणी' की लकड़ी दे गये। रसोई के लिए स्थित कठियारे को यह मालूम नहीं था कि अरणी का घर्षण कर के कैसे अग्नि उत्पन्न की जाती है। उसने भी अग्नि प्रकट करने के लिए 'अरणी' पर कुठार मारा। दो, चार, छह टुकड़े करता ही गया। चूर्ण कर दिया। पर अग्नि कहां? हताश बैठा रहा। रसोई न बना सका। तीनों कठियारे वापिस आये। वस्तु स्थिति से अवगत होकर बोले - बड़ा मुर्ख है तू, ऐसे भी कभी अग्नि प्रकट होती है ? देख, एक चतुर कठियारे ने तत्काल यथाविधि घर्षण कर उसे अग्नि प्रकट कर दिखाई । राजन् ! तू भी क्या कठियारे जैसा मूर्ख नहीं हैं ?"
प्रदेशी-"भन्ते ! मैं तो मुर्ख कठियारे जैसा हूं, पर आप तो चतुर कठियारे जैसे हैं। उसने जैसे अग्नि प्रकट कर बताई, आप भी आत्मा को प्रकट कर बतायें।"
___ केशीकुमार श्रमण-"राजन् ! इसी उद्यान में हिलते हुए वृक्षों को देख रहे हो ?"
प्रदेशी-"हाँ, भन्ते !"
केशीकुमार श्रमण-"यह भी बताओ, इन्हें कौन हिला रहा है ?"
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