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________________ पंतालीस मागम प्रदेशी--"भन्ते ! पवन ।" केशीकुमार श्रमण-"राजन् ! तुम क्या देख रहे हो कि पवन कैसा है. उसका वर्ण, प्राकार कैसा है ?" प्रदेशी-"भन्ते ! पवन देखने का विषय नहीं, वह तो अनुभूति का विषय है।" केशीकुमार श्रमण-"राजन् ! आत्मा भी देखने का विषय नहीं, अनुभूति का विषय है। वह चेतना, अनुभूति, ज्ञान आदि अपने गुणों से अनुभूत होती है।" प्रदेशी-"भन्ते ! आपकी प्रज्ञा प्रबल है। आपने मुझे निरुत्तर किया है, पर, इस विषय में मेरे अन्य प्रश्न हैं।" प्रदेशी व केशीकुमार श्रमण के प्रश्नोत्तरों का इस प्रकार एक प्रलम्ब क्रम इस आगम में है। अन्त में प्रदेशी राजा प्रतिबद्ध होता है, पर पार्हत्-धर्म को स्वीकार करना नहीं चाहता। तब उसे लोह वणिक् के उदाहरण से समझाया जाता है । केशीकुमार श्रमण कहते हैं-"राजन् ! तुम तो वैसे ही मूर्ख निकले, जैसे लोह वणिक् था।" प्रदेशी-"भन्ते ! उसने क्या मूर्खता की ?" केशीकुमार श्रमण-"चार वणिक् देशान्तर के लिए निकले। अरण्य में जाते हुए क्रमशः लोहा, चांदी, सोना व रत्नों की खाने पाई। तीन वणिकों ने लोह के बदले चांदी, चांदी के बदले सोना, सोने के बदले रत्न उठा लिये। एक वणिक लोहा ही उठाये चलता रहा। कहा, तो भी न माना । अपनी नगरी में लौटने के पश्चात् तीनों वणिक् श्रीमन्त हो गये। वह लोहा बेचकर चने बेचने की फेरी लगाने लगा। कालान्तर से जब उसने अपने तीन साथियों का वैभव देखा, अपनी भूल पर रो-रोकर पछताने लगा। राजन् ! अर्हत्-धर्म रूप रत्नों को स्वीकार नहीं कर के कालान्तर से लोह वणिक् की तरह तुम भी पछताओगे। प्रस्तुत पागम में आस्तिकता-नास्तिकता जैसे दुर्गम प्रश्न को सरस व सुगम रूप से सुलझाया गया है। प्रदेशी राजा अर्हद्-धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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