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________________ ४४ जैनागम दिग्दर्शन प्रत्येक अध्ययन का उद्देशों या चूलिकाओं में विभाजन है । प्रथम श्रु त-स्कन्ध में नौ अध्ययन एवं चौवालीस उद्देश हैं । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तीन चूलिकाएं हैं, जो १६ अध्ययनों में विभाजित हैं। भाषा, रचना-शैली, विषय-निरूपण आदि की दृष्टि से यह स्पष्ट है कि प्रथम श्रुत-स्कन्ध बहुत प्राचीन है। अधिकांशतया यह गद्य में रचित है। बीच बीच में यत्र-तत्र पद्यों का भी प्रयोग हुअा है । अर्द्धमागधी प्राकृत के भाषात्मक अध्ययन तथा उसके स्वरूप के अवबोध के लिए यह रचना बहुत महत्वपूर्ण है। सातवें अध्ययन का नाम महापरिज्ञा निदिष्ट किया गया है, पर, उसका पाठ प्राप्त नहीं है। इसे व्युछिन्न माना जाता है। कहा जाता है, इसमें कतिपय चमत्कारी विद्याओं का समावेश था। लिपिबद्ध हो जाने से अधिकारी, अनधिकारी; सब के लिए वे सुलभ हो जाती हैं। अनधिकारी या अपात्र के पास उनका जाना ठीक न समझ श्री देवद्धिगणो क्षमाश्रमण ने आगम-लेखन के समय इस अध्ययन को छोड़ दिया। यह एक कल्पना है। वस्तुस्थिति क्या रही, कुछ कहा नहीं जा सकता। हो सकता है, बाद में इस अध्ययन का विच्छेद हो गया हो। ___ नवम उपधान अध्ययन में भगवान महावीर की तपस्या का मार्मिक और रोमांचकारी वर्णन वहां उनके लाढ़ (बर्दवान जिला), वज्रभूमि (मानभूम और सिंहभूम जिले) तथा शुभ्र भूमि (कोडरमा, हजारीबाग का क्षेत्र) में बिहार-पर्यटन तथा प्रज्ञ जनों द्वारा किये गये विविध प्रकार के घोर उपसर्ग-कष्ट सहन करने का उल्लेख किया गया है। भगवान् महावीर के घोर तपस्वी तथा अप्रतिम कष्ट सहिष्णु जीवन का जो लेखा-जोखा इस अध्ययन में मिलता है, वह अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है। द्वितीय श्रु तस्कन्ध : रचना : कलेवर द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में श्रमण के लिये निर्देशित व्रतों व तत्सम्बन्धी भावनाओं का स्वरूप, भिक्षु-चर्या, आहार-पानशुद्धि,शर यासंस्तरण-ग्रहण, विहार-चर्या, चातुर्मास्य-प्रवास, भाषा, वस्त्र, पात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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