________________
पैतालीस प्रागम
४५
आदि उपकरण, मल-मूत्र-विसर्जन आदि के सम्बन्ध में नियम-उपनियम आदि का विवेचन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि महाकल्पश्र त नामक प्राचारांग के निशीथाध्ययन की रचना प्रत्याख्यान पूर्व की तृतोय आचार-वस्तु के बीसवें प्राभूत के आधार पर हुई है । आचारांग वास्तव में द्वादशांगात्मक वाङमय में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। "अगाणं कि सारो ? आयारो" जैसे कथन इसके परिचायक हैं।
दर्शन
प्राचारांग का प्रारम्भ दर्शन के मूलभूत प्रश्न से होता है। वह मूलभूत प्रश्न है, आत्मा या अस्तित्ववाद। आचारांग प्रथम श्रु तस्कन्ध, प्रथम अध्ययन के प्रथम उद्देशक में ही अस्तित्ववाद की संक्षिप्त, सुदृढ़ एवं मनोग्राही स्थापना की गई है। पाठक मूलस्पर्शी आनन्द की अनुभूति पा सकें तथा 'तन्दुल न्यायेन' समग्र प्राचारांग की भाव-भाषा का प्राभास भी पा सकें; अतः वह मौलिक प्रसंग यथावत् यहां समुद्ध त किया जा रहा है।
"सुयं मे पाउसं ! ते रणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसि नो सण्णा भवइ, तंजहापुरस्थिमानो वा दिसानो आगो अहमंसि, दाहिरगाप्रो वा दिसानो आगो अहमंसि, पच्चत्थिमानो वा दिसाम्रो प्रागो अहमंसि, उत्तरानो वा दिसानो आगो अहमंसि, उड्ढामो वा दिसानो आगो अहमंसि, अहे वा दिसानो आगो अहम सि, प्रणयरीनो वा दिसाम्रो आगो अहमंसि, प्रण दिसानो वा पागनो अहमंसि।"
आयुष्मन् ! मैंने सुना है । भगवान ने यह कहा-इस जगत् में कुछ मनुष्यों को यह संज्ञा नहीं होती, जैसे-मैं पूर्व दिशा से पाया हूं,
१. प्राचारांग नियुक्ति, २६१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org