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पैंतालीस प्रागम
अंग-संज्ञा क्यों ?
अर्थ रूप में (त्रि पद्यात्मकतया) तीर्थंकर प्ररूपित तथा गणधर ग्रथित वाङमय अंग वाङमय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसे अंग नाम से क्यों अभिहित किया गया? यह प्रश्न स्वाभाविक है। उत्तर भी स्पष्ट है। श्रुत की पुरुष के रूप में कल्पना की गयी। जिस प्रकार एक पुरुष के अंग होते हैं, उसी प्रकार श्रु त-पुरुष के अंगों के रूप में बारह पागमों को स्वीकार किया गया। कहा गया है : "श्रु त-पुरुष के पादद्वय, जंघाद्वय, ऊरुद्वय, गात्र द्वय-देह का अग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग, बाहुद्वय, ग्रीवा तथा मस्तक (पाद २ + जंघा २ + ऊरु २ + गात्राद्ध २+बाह २+ ग्रीवा १+मस्तक १ = १२), ये बारह अंग हैं । इनमें जो प्रविष्ट हैं, अंगत्वेन अवस्थित हैं, वे आगम श्र त-पुरुष के अंग हैं।"१ बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छिन्न हो गया। इस समय ग्यारह अंग प्राप्त हैं।
१. प्रायारांग (प्राचारांग) प्राचारांग में श्रमण के प्राचार का वर्णन किया गया है। यह दो श्रु त-स्कन्धों में विभक्त है। प्रत्येक श्रुत-स्कन्ध का अध्ययनों तथा १. इह पुरुषस्य द्वादश अगानि भवन्ति । तद्यथा-द्वौ पादो, द्वे जंघे, द्वे ऊरुणी,
द्वे गात्रार्द्ध, द्वौ बाहू, ग्रीवा, शिरश्च एवं श्रुतपुरुषस्यापि परमपुरुषस्याचारादीनि द्वादशांगानि क्रमेण वेदितव्यानि । तथा चोक्तम्
पायदुर्ग जंघोरु गाप्रदुगद्ध तु दो य बाहू य ।
गीवा सिरं च पुरिसो बारस अगेसु य पविट्ठो। श्रुतपुरुषस्यांगेषु प्रविष्ट मंगप्रविष्टम् । अंगभावेन व्यवस्थिते श्रुत भेदे "।
--अभिधान राजेन्द्र, भाग १, पृ० ३८
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