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जैनागम दिग्दर्शन
संकेत किया गया है, जो पूर्व के उल्लेखों से भिन्न है। वहां सर्वप्रथम प्राचारांग की रचना का उल्लेख है, उसके अनन्तर अंग-साहित्य और इतर वाङमय का । जहाँ एक ओर पूर्व वाङमय की रचना के सम्बन्ध में प्रायः अधिकांश विद्वानों का अभिमत उनके द्वादशांगी से पहले रचे जाने का है, वहां प्राचारांग-नियुक्ति में सब से पहले प्राचारांग के सर्जन का उल्लेख एक भेद उत्पन्न करता है। वर्तमान में उसके अपाकरण का कोई साधक हेतु उपलब्ध नहीं है। इसलिये इसका निष्कर्ष निकालने की ओर विद्वज्जनों का प्रयास रहना चाहिए। __सभी मतों के परिप्रेक्ष्य में ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है कि पूर्व वाङ्मय की परम्परा सम्भवतः पहले से रही है और वह मुख्यतः तत्त्ववाद की निरूपक रही है। वह विशेषत: उन लोगों के लिये थी, जो स्वभावतः दार्शनिक मस्तिष्क और तात्विक रुचि-सम्पन्न होते थे, सर्वसाधारण के लिये उसका उपयोग नहीं था। इसलिये कुछ उक्तियां प्रचलित हुई–बालकों, नारियों, वृद्धों, अल्पमेधावियों या गूढ़ तत्व समझने की न्यून क्षमता वालों के हित के लिये प्राकृत में धर्म-सिद्धांत की अवतारणा हुई।' पूर्व वाङ्मय की भाषा
पूर्व वाङमय अत्यधिक विशालता के कारण शब्द-रूप में समग्रतया व्यक्त किया जा सके, सम्भव नहीं माना जाता। परम्परया कहा जाता है कि, मसी-चूर्ण की इतनी विशाल राशि हो कि अंबारी सहित हाथी भी उसमें ढंक जाये, उस मसी चूर्ण को जल में घोला जाए। उससे पूर्व लिखे जाएं, तथापि वह मसी-चूर्ण अपर्याप्त रहेगा। वे लेख में नहीं बांधे जा सकेंगे। अर्थात् पूर्व ज्ञान समग्रतया शब्द का विषय नहीं है। वह लब्धिरूप-प्रात्मक्षमतानुस्यूत है। पर, इतना सम्भाव्य मानना ही होगा कि जितना भी अंश रहा हो, शब्द-रूप
१. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । अनुग्रहार्य तत्वज्ञः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।।
-दशवकालिक वृत्ति ; पृ० २०३
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