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________________ प्रागम विचार आवश्यक नियुक्ति विवरण में प्राचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में जो लिखा है, पठनीय है। दृष्टिवाद में पूर्वो का समावेश द्वादशांगी के बारहवें भाग का नाम दृष्टिवाद है। वह पांच भागों में विभक्त है -१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका। चतुर्थ विभाग पूर्वगत में चतुर्दश पूर्व ज्ञान का समावेश माना गया है। पूर्व ज्ञान के प्राधार पर द्वादशांगी की रचना हुई, फिर भी पूर्व ज्ञान को छोड़ देना सम्भवतः उपयुक्त नहीं लगा । यही कारण है कि अन्ततः दृष्टिवाद में उसे सन्निविष्ट कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि जैन तत्व-ज्ञान के महत्वपूर्ण विषय उसमें सूक्ष्म विश्लेषण पूर्वक बड़े विस्तार से व्याख्यात थे। विशेषावश्यक भाष्य में उल्लेख है कि यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र उपयोग-ज्ञान का अवतरण अर्थात् समग्र वाङमय अन्तर्भूत है। परन्त, अल्पबुद्धि वाले लोगों तथा स्त्रियों के उपकार के हेतु उससे शेष श्रुत का नि' हण हुआ, उसके आधार पर सारे वाङमय का सर्जन हुमा ।२ पूर्व रचना : काल तारतम्य पूर्वो की रचना के सम्बन्ध में प्राचारांग-नियुक्ति में एक और १. ननु पूर्व तावा पूर्वाणि भगवद्भिर्गणधररुपनिबध्यन्ते, पूर्व करणात् पूर्वारणीति पूर्वाचार्यप्रदर्शितमुत्पत्तिश्रवणात्, पूर्वेषु च सकलवाङ्मयस्यावतारो, न खलु तदस्ति यत्पूर्वेषु नाभिहितं, ततः किं शेषांगविरचनेनांगबाह यविरचनेन वा ? उच्यते, इह विचित्रा जगति प्राणिनः तत्र ये दुर्मेधसः ते पूर्वाणि नाध्येतुमीशते, पूर्वाणामतिगम्भीरार्थत्वात्, तेषां च दुर्मेधसत्वात्, स्त्रीणां पूर्वाध्ययनानधिकार एव, तासां तुच्छत्वादिदोषवहुलत्वात् । --पृ० ४८ : प्रकाशक भागमोदय समिति, बम्बई २. जइवि य भूयावाए सव्वस्स वनोगयस्स प्रोयारो । निज्जूहणा तहा वि हु दुम्मेहे पप्प हत्थी य ।। -विशेषावश्यक भाष्य · गाथा ५५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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