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जैनागम दिग्दर्शन
परिणय समग्र ज्ञान का समावेश माना गया है । वे संख्या में चतुर्दश हैं । जैन श्रमणों में पूर्वधरों का ज्ञान की दृष्टि से उच्च स्थान रहा है। जो श्रमण चतुर्दश पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे, उन्हें श्रु तकेवली कहा जाता था। एक मत ऐसा है, जिसके अनुसार पूर्व ज्ञान भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती समय से चला आ रहा था। भगवान् महावीर के पश्चात् अर्थात् उत्तरवर्ती काल में जो वाङमय सजित हुअा, उससे पूर्व का होने से यह (पूर्वात्मक ज्ञान) 'पूर्व' शब्द से सम्बोधित किया जाने लगा। उसकी अभिधा के रूप में प्रयुक्त 'पूर्व' शब्द सम्भवतः इसी तथ्य पर प्राधृत है।
द्वादशांगी से पूर्व पूर्व-रचना
एक दूसरे अभिमत के अनुसार द्वादशांगी की रचना से पूर्व गणधरों द्वारा अर्हत्-भाषित तीन मातृका-पदों के आधार पर चतुर्दश शास्त्र रचे गये, जिनमें समग्रश्रत की अवतारणा की गयी; आवश्यक नियुक्ति में ऐसा उल्लेख है ।'
द्वादशांगी से पूर्व-पहले यह रचना की गयी; अतः ये चतुर्दश शास्त्र चतुर्दश पूर्वो के नाम से विख्यात हुये । श्रत ज्ञान के कठिन, कठिनतर और कठिनतम विषय शास्त्रीय पद्धति से इनमें निरूपित हुये। यही कारण है, यह वाङमय विशेषतः विद्वत्प्रयोज्य था । साधारण बुद्धिवालों के लिये यह दुर्गम था; अतएव इसके आधार पर उनके लाभ के लिये द्वादशांगी को रचना को गयो।
१. धम्मोवाप्रो पवयणमड़वा पुनाई देसया तस्स ।
सम्वजिणाण गणहरा चोद्दसपुव्वा उ ते तस्स ॥ सामाइयाइया वा वयजीवनिकायभावणा पढमं । एसो धम्मोवादो जिणेहिं सन्वेहिं उवइट्ठो॥
-मावश्यक नियुक्ति : गाथा २६२-६३
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