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________________ मागम विचार वह गणघरों द्वारा रचित बारह प्रकार का श्रु त है। वह निपुणनियतगुण या निर्दोष, सूक्ष्म तथा महान्-विस्तृत अर्थ का प्रतिपादक है।" भाष्यकार ने द्वादशांगात्मक प्रागम-रचना हेतु, परम्परा, क्रम, प्रयोजन, आदि के सन्दर्भ में बहुत विस्तार से जो कहा है, उनका मानसिक झुकाव यह सिद्ध करने की ओर विशेष प्रतीत होता है कि प्रागमिक परम्परा का उद्गम-स्रोत तीर्थंकर है; अतः गणधरों का कर्तृत्व केवल नियू हण, संकलन या ग्रथन मात्र से है। वैदिक परम्परा में वेद अपौरुषेय माने गये हैं। परमात्मा ने ऋषियों के मन में वेद-ज्ञानमय मन्त्रों की अवतारणा की। ऋषियों ने अन्तश्चक्षुषों से उन्हें देखा। फलतः शब्दरूप में उन्होंने उन्हें अभिव्यंजना दी। ऋषि मन्त्र-द्रष्टा थे, मन्त्र-स्रष्टा नहीं। इसी प्रकार भाष्यकार द्वारा व्याख्यात किये गये तथ्यों से यह प्रकट होता है, गणधर वास्तव में पागम स्रष्टा नहीं थे, प्रत्युत वे अर्हत्-प्ररूपित श्रु त के द्रष्टा या अनुभविता मात्र थे । जो उनके दर्शन और अनुभूति का विषय बना, उन्होंने शब्द रूप में उसकी अवतारणा की। भारतवर्ष की प्रायः सभी प्राचीन धार्मिक परम्पराओं का यह सिद्ध करने का विशेष प्रयत्न देखा जाता है कि उनका वाङमय अपौरुषेय, अनादि, ईश्वरीय या पार्ष है। पूर्वात्मक ज्ञान और द्वादशांग जैन वाङमय में ज्ञानियों की दो प्रकार की परम्परायें प्राप्त होती है: -पूर्वघर और द्वादशांग-वेत्ता। पूर्वो में समग्र श्रुत या वाक्१. अंगाइसुत्तरयणानिरवेक्खो जेण तेण सो प्रत्यो। महवा न सेसपवयणहियउ त्ति जह वारसंगमिणं ॥ पवयणहियं पुरण तयं जं सुहगहणाइ गणहरेहितो। बारसविहं पवत्तइ निउणं सुहम महत्थं च ।। निययगुणं वा निउणं निदोसं गणहराऽहवा निउणा । तं पुण किमाइ-पज्जतमामिह को व से सारो॥ -विशेषावश्यक भाष्य : ११२३-२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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