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________________ जैनागम दिग्दर्शन अर्थ की अनभिलाप्यता ___ अर्थ की वाग्गम्यता या वागगम्यता के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण करने के अभिप्राय से भाष्यकार लिखते हैं : "अर्थ अनभिलाप्य है। वह अभिलाप या निर्वचन का विषय नहीं है; इसलिये शब्दरूपात्मक नहीं है। ऐसी स्थिति में अर्थ का किस प्रकार कथन कर सकते हैं ? शब्द का फल अर्थ-प्रत्यायन है-वह अर्थ की प्रतीति कराता है; इसलिये शब्द में अर्थ का उपचार किया गया है। इस दृष्टिकोण से अर्थ-कथन का उल्लेख किया गया है।" पुनः आशंका करते हैं : "तब ऐसा कहा जा सकता है, अर्हत्, अर्थ-प्रत्यायक सूत्र ही भाषित करते हैं, अर्थ नहीं। गणधर उसी का संचयन करते हैं । तब दोनों में क्या अन्तर हुअा ?" - समाधान दिया जाता है-अर्हत् पुरुषापेक्षया-गणधरों की अपेक्षा से स्तोक-थोड़ा-सा कहते हैं, वे द्वादशांगी नहीं कहते; अतः द्वादशांगी की अपेक्षा से वह (अर्हत्-भाषित) अर्थ है तथा गणधरों की अपेक्षा से सूत्र ।" मातृका-पद - उत्पाद, व्यय तथा ध्र वत्व मूलक तीन पद, जो अर्हत् द्वारा भाषित होते हैं, मातका-पद कहे जाते हैं। उस सम्बन्ध में भाष्यकार लिखते हैं : "अंगादि सूत्र-रचना से निरपेक्ष होने के कारण (तीन) मातृका-पद अर्थ कहे जाते हैं। जिस प्रकार द्वादशांग प्रवचन-संघ के लिये हितकर है, उस प्रकार वे (मातृका-पद) हितकर नहीं हैं। संघ के लिये वही हितकर है, जो सुखपूर्वक ग्रहण किया जा सके। १. नण प्रत्थोऽभिलप्पो स कहं भासइ न सदरूवो सो। सदम्मि तदुवयारो प्रत्थप्पच्चायण फलम्मि ।। तो सुत्तमेव भासइ प्रत्यप्पच्चायगं, न नामत्थं । गणहारिणो वितं चिय करिति को पडिविसेसोत्थ ।। सो पुरिसाविक्खाए थोवं भरण्इ न उ बारसंगाई। प्रत्थो तदविक्खाए सुत्त चिय गणहराणं तं । -विशेषावश्यक भाष्य : ११२०-२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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