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प्रागम विचार
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में है । पद, वाक्य, प्रकरण, अध्ययन, प्राभृत आदि निश्चित क्रमपूर्वक वे ( सूत्र ) व्यवस्थित हों, तो यह गृहीत है, यह गृहीतव्य है, इस प्रकार - समीचीनता और सरलता के साथ उनका ग्रहण, गुणन-परावर्तन, धारणस्मरण, दान, पृच्छा आदि सध सकते हैं । इसी कारण गणधरों ने श्रुत की अविच्छिन्न रचना की । उनके लिए वैसा अवश्य करणीय था; क्योंकि उन ( गणधरों) की वैसी मर्यादा है । गणधर - नाम-कर्म के उदय से उनके द्वारा श्रुत रचना किया जाना अनिवार्य है । सभी गणधर ऐसा करते रहे हैं ।""
स्पष्टीकरण के हेतु भाष्यकार जिज्ञासा - समाधान की भाषा में आगे बतलाते हैं : "तीर्थंकर द्वारा प्रख्यात वचनों को गणधर स्वरूप या कलेवर देते हैं । फिर उनमें क्या विशेषता है ? यथार्थता यह है कि तीर्थंकर गणधरों की बुद्धि की अपेक्षा से संक्षेप में तत्वाख्यान करते हैं, सर्वसाधारण हेतुक विस्तार से नहीं । दूसरे शब्दों में त् (सूक्ष्म) अर्थभाषित करते हैं । गणधर निपुणतापूर्वक उसका (विस्तृत) सूत्रात्मक ग्रथन करते हैं । इस प्रकार धर्म - शास्त्र के हित के लिये सूत्र प्रवर्तित होते हैं ।"२
१. तं नागकुसुमवुट्ठि घेत्त ं बीयाइबुद्धिश्रो सव्वं । गंथति पवयरट्ठा माला इव चित्तकुसुमारणं ॥ tri anj वरणमिह सुयनारणं कहं तयं होज्जा | पवर महवा संघो गर्हति तयरण गहट्ठाए ॥ धे व सुहं सुहगुणधारणा दाउ पुच्छिउ चेव । एएहि कारणेहि जीयं ति कयं गरणहरेहिं ॥ मुक्ककुसुमारणं गणाइयाई जह दुक्करं करेउ जे । गुच्छारण च सुहयरं तहेव जिरणवयरणकुसुमाणं ॥ पय-वक्क-पगररण-ज्झाय - पाहुडाइनियतक्कमपमाण । तदरगुसरता सहं चिय घेप्पइ गहियं इदं गेज्भं ॥ एवं गुणणं धरणं दारण पुच्छा य तदरसा रेणं । होइ सुहं जोयंपि य कायध्वमियं जनोऽवस्सं ॥ सहि गरणहरेहि जयंति सुयं जनो न वोछिन्नं ।
गरण हरमज्जाया वा जीयं सव्वाचिन वा ॥ - विशेषावश्यक भाष्यः ११११-१७
२.
जिणभरिणइ च्चिय सुत्त गरगहरकरणम्मि को विसेसो त्थ । सो तदविक्ख भासइ न उ वित्थरम्रो सुयं कि तु ॥
प्रत्थंभास हा सुतं गंथति गरगहरा निउणं । सासरास हिट्ठाए तो सुत्त पवत्त इ ॥
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वही, १११८-१६
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