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पुष्पमाला की तरह सूत्रमाला का ग्रथन
बीजादि बुद्धि-सम्पन्न' व्यक्ति ( गणधर ) उस ज्ञानमयी पुष्पवृष्टि को समग्रतया ग्रहण कर विचित्र पुष्प माला की तरह प्रवचन के निमित सूत्र - माला - शास्त्रग्रथित करते हैं । जिस प्रकार मुक्त - बिखरे हुये पुष्पों का ग्रहण दुष्कर होता है और गूंथे हुये पुष्पों या पुष्प गुच्छों का ग्रहण सुकर होता है, वही प्रकार जिन वचन रूपी पुष्पों के सम्बन्ध
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कमल कुमुयारण तो तं साभव्वं तस्स तेसि च ॥ जह बोलूगाईस पगासघम्मावि सो सदोसेणं । उश्रो वि तमोरूवो एवमभव्वाण जिएसूरो ॥ सभं तिगिच्छमारणो रोगं रागी न भण्णए वेज्जो । मुरमाणो य प्रसज्झ निसेहयंतो जह प्रदोसो || तह भव्वकम्मरोगं नासंतो रागवं न जिरणवेज्जो । न य दोसी प्रभव्त्रासज्भकम्मरोगं निसेहतो ॥ मोत्त मजोग्गं जोग्गे दलिए रूवं करेइ स्वयारो । नय रागद्दोसिल्लो तहेव जोग्गे विबोहंतो ॥
जैनागम दिग्दर्शन
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- विशेषावश्यक भाष्य : ११०२-१११० कर लिये जाते हैं, उसे में उल्लिखित श्रादि शब्द अपने में अखण्ड धान्यप्रखण्ड सूत्र वाङ्मय को
१. जिस बुद्धि के द्वारा एक पद से अनेक पद गृहीत बीज - बुद्धि कहते हैं। बीज - बुद्धि के साथ पाठ कोष्ठ - बुद्धि का सूचक है । जैसे, धान्य-कोष्ठ भण्डार संजोये रहता है, उसी प्रकार जो बुद्धि धारण करती है. वह कोष्ठ-बुद्धि कही जाती है । २. प्रवचन का अभिप्राय प्रसिद्ध वचन या प्रशस्त वचन या धर्म-संघ से है । अथवा प्रवचन से द्वादशांग लिया जा सकता है । वह ( द्वादशांग श्रुत) किस प्रकार ( उद्भावित ) हो, इस प्राशय से द्वादशांगात्मक प्रवचन के विस्तार के लिये या संघ पर अनुग्रह करने के लिये गणधर सूत्र रचना करते हैं द्वादशांग रूप प्रवचन सुख पूर्वक ग्रहण किया जा सके, उसका सुखपूर्वक गुरणन - परावर्तन, धारण-स्मरण किया जा सके, सुखपूर्वक दूसरों को दिया जा सके, सुखपूर्वक पृच्छा-विवेचन, विश्लेषरण, अन्वेषण किया जा सके, एतदर्थ गणधरों का सूत्र रचना का प्रयत्न होता है ।
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