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'आगम विचार
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में उसकी अवतारणा अवश्य हुई । तब प्रश्न उपस्थित होता है, किस भाषा में ऐसा किया गया ?
साधारणतया यह मान्यता है कि पूर्व संस्कृत-बद्ध' थे। कुछ विद्वानों का इस सम्बन्ध में अन्यथा मत भी है। वे पूर्वो के साथ किसी भी भाषा को जोड़ना नहीं चाहते । लब्धिरूप होने से जिस किसी भाषा में उनकी अभिव्यंजना सम्भाव्य है। सिद्धान्ततः ऐसा भी सम्भावित हो सकता है, पर. चतुर्दश पूर्वधरों की, दश पूर्वधरों की, क्रमशः हीयमान पूर्वधरों की एक परम्परा रही है। उन पूर्वधरों द्वारा अधिगत पूर्व-ज्ञान, जितना भी वाग्-विषयता - में संचित हुआ, वहां किसी-न-किसी भाषा का अवलम्बन अवश्य ही रहा होगा। यदि संस्कृत में वैसा हुआ, तो स्वभावतः एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जैन मान्यता के अनुसार प्राकृत (अर्द्धमागधी) आदि भाषा है। तीर्थंकर अर्द्ध मागधी में धर्म-देशना देते हैं, जो श्रोत समुदाय की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है। देवता इसी भाषा में बोलते हैं । अर्थात् वैदिक परम्परा में विश्वास रखने वालों के अनुसार छन्दस् (वैदिक संस्कृत) का जो महत्व है, जैन धर्म में आस्था रखने वालों के लिये आर्षत्व के सन्दर्भ में वही महत्व प्राकृत का है।
भारत में प्राकृत बोलियां अत्यन्त प्राचीन काल से लोक-भाषा के रूप में व्यवहृत रही हैं। छन्दस् सम्भवतः उन्हीं बोलियों में से किसी एक पर प्राधृत शिष्ट रूप है। लौकिक संस्कृत का काल उससे पश्चादवर्ती है। इस स्थिति में पर्वश्रत को भाषात्मक दृष्टि से संस्कृत के साथ जोड़ना कहां तक संगत है ? कहीं पूर्ववर्ती काल में ऐसा तो नहीं हा, जब संस्कृत का साहित्यिक भाषा के रूप में सर्वातिशायी गौरव पुनः प्रतिष्ठापन्न हमा, तब जैन विद्वानों के मन में भी वैसा आकर्षण जगा हो कि वे भी अपने प्रादि-वाङमय का उसके साथ
१. यदिति श्रुतमस्माभिः पूर्वेषां सम्प्रदायतः ।
चतुर्दशापि पूर्वाणि संस्कृतानि पुराभवन् । ११३ प्रजातिशयसाध्यानि तान्युच्छिन्नानि कालतः । मधुनकादशांग्यस्ति सुधर्मस्वामिभाषिता । ११४
–মা কৃষি
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