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पंतालीसमागम
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स्थानांग और नन्दी में प्रश्न-व्याकरण के स्वरूप का जो विश्लेषण हुआ है, वैसा कुछ भी आज उसमें नहीं मिलता। इससे यह अनुमान करना अनुचित नहीं होगा, स्थानांग और नन्दी के अनुसार इसका जो मौलिक रूप था, वह रह नहीं पाया। सम्भवतः उसका विच्छेद हो गया हो।
११. विवागसुय (विपाकश्रत) अशुभ-पाप और शुभ-पुण्य कर्मों के दुःखात्मक तथा सुखात्मक विपाक (फल) का इस श्र तांग में प्रतिपादन किया गया है। इसी कारण यह विपाक श्रु त या विपाक सूत्र कहा जाता है। दो श्रु तस्कन्धों में यह श्रु तांग विभक्त है। पहला श्रुत-स्कन्ध दुःख-विपाक विषयक है तथा दूसरा सुख-विपाक विषयक। प्रत्येक में दश दश अध्ययन हैं, जिनमें जीव द्वारा आचरित कर्मों के अनुरूप होने वाले दुःखात्मक और सुखात्मक फलों का विश्लेषण है।
जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त का जो सूक्ष्म, तलस्पर्शी एवं विशद विवेचन हुअा है, विश्व के दर्शन-वाङ्मय में वह अनन्य व असाधारण है। उसके सोदाहरण विश्लेषण-विवेचन की दृष्टि से यह ग्रन्थ बहत उपयोगी है। इसमें जहाँ कहीं लट्ठी टेक कर चलता हुआ, भीख मांगता हुअा कोई अन्धा दिखाई देता है. वहाँ कहीं खास, कास, कफ, भगन्दर, खुजली, कुष्ट आदि भयावह रोगों से पीड़ित मनुष्य मिलते हैं । राजपुरुषों द्वारा निर्दयतापूर्वक ताड़ित, पीडित तथा उद्वेलित किये जाते लोग दिखाई देते हैं। गर्भवती स्त्रियों के दोहद, नर-बलि, वेश्याओं के प्रलोभन, नाना प्रकार के मांस-संस्कार व मिष्ठान्न आदि के विषय में भी प्रस्तुत ग्रन्थ में विवरण प्राप्त होते हैं। इससे पुरातनकालीन मान्यताओं, प्रवृत्तियों, प्रथाओं, अपराधों आदि का सहज ही परिचय प्राप्त होता है । सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से यह श्रु तांग बहुत महत्त्वपूर्ण है।
स्थानांग में कम्मविवागदसानो के नाम से उल्लेख हुआ है। वहां उवासगदसामो, अंतगडदसायो, अणुत्तरोववाइयदसानो तथा
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