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प्रस्तुत पुस्तक में केवल श्वेताम्बर शास्त्रीय धारा का ही विश्लेषण किया गया है । श्रागम अपनी प्राचीनता व मौलिकता की दृष्टि से गवेषक विद्वानों की निरुपम थाती है । 'जैनागन दिग्दर्शन " पुस्तक उनके लिए कुरूंजी का कार्य करेगी, ऐसी आशा है । पुस्तक के प्रस्तुतीकरण में राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान के सचिव देवेन्द्रराज मेहता का आवेदन ही एक मात्र निमित्त बना है। उनके कतिपय सुझाव भी इसमें क्रियान्वित किये गये हैं ।
सम्पादन उपाध्याय मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' ने किया है । उनकी पैनी निगाह में त्रुटियों के बच पाने की शक्यता बहुत कम ही रहती है । कार्य - व्यस्तता में भी उन्होंने इसका सम्पादन मनोयोग-पूर्वक किया है।
२४ मार्च, १६७८ जैन उपाश्रय, बड़ा मंदिर, कलकत्ता
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( iv )
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मुनि नगराज
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