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जैनागम दिग्दर्शन पर भी प्रायश्चित्त, तप आदि द्वारा प्रात्म-शुद्धि या अन्तः-सम्मार्जन कर पुनः यथावस्थ हो सकेगा । परिणामों को सात्विकता या भावविशुद्धि हो तो संयम का आधार है ।
विशेष बलपूर्वक आगे कहा गया है कि साधक का देह संयम पालन के लिए है, भोग के लिए नहीं है । यदि देह ही नहीं रहा, तो संयम-पालन का प्राचार-स्थल ही कहां बचा ? देह-रक्षा या शरीर को नष्ट न होने देने का कार्य देह के प्रति आसक्ति नहीं है, प्रत्युत संयम के प्रतिपालन की भावना है; अतः देह-प्रतिपालन इष्ट है। निशोथ-चूर्णी में भी यह प्रसंग व्याख्यात हुआ है। वहां भी वर्णित है कि जहां तक हो सके, संयम की विराधना नहीं करनी चाहिए, पर यदि कोई भी उपाय न हो, तो जीवन-रक्षा के लिए वैसा किया जा सकता है। उपधि-निरूपण
__ संयमी जीवन के निर्वाह हेतु जो न्यूनतम साधन-उपकरण अपेक्षित होते हैं, उन्हें उपधि कहा जाता है। प्रस्तुत प्रकरण में 'इस विषय का विवेचन है । वस्त्र, पात्र आदि उपकरण श्रमण द्वारा धारण किये जाने चाहिए या नहीं किये जाने चाहिए; जैन परम्परा के अन्तर्गत श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरों में यह एक विवादास्पद प्रसंग है, जिसके सन्दर्भ में दोनों ओर से द्विविध विचार-धाराएं एवं समाधान उपस्थित किये जाते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के इस प्रकरण का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक परिशीलन इस विषय में अनुसन्धित्सा रखने वालों के लिए वस्तुतः बड़ा उपयोगी है। इस प्रकरण में जिनकल्पी श्रमण, स्थविरकल्पी श्रमण तथा प्रायिका या साध्वी के लिए प्रयोज्य उपकरणों का विवरण है । जिनकल्पी व स्थविरकल्पी के उपकरण
जिनकल्पी के लिए जो उपकरण विहित हैं, उनका ग्रन्थ में इस प्रकार उल्लेख है : १. पात्र, २. पात्र-बन्ध, ३. पात्र-स्थापन, ४. पात्र-केसरिका ( पात्र-मुख वस्त्रिका), ५. पटल, ६. रजस्त्राण,
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